Saturday, December 24, 2011

LOKPAL or Govt's Pal !

-------------------------------लोकपाल या तंत्रपाल



     करीब पांच दशकों में नौवीं बार लोकपाल विधेयक संसद में पेश है |  1968 से अबतक लोकपाल की अतीव आवश्यकता के बावजूद संसद में इसका पारित नहीं होना स्वयंस्पष्ट है, क्योंकि लोकपाल लोक के आपसी भ्रष्टाचार में नहीं, अपितु लोक पर तंत्र के भ्रष्टाचार के विषय में पड़नेवाला क़ानून है | और स्वतन्त्र भारत में तंत्र ने यह विचार लोक के मन में पैठा दिया है कि विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका की तिकड़ी सर्वोच्च है और लोक द्वितीय दर्जे का | यह झूठ इतने तगड़े ढंग से लगातार 64 वर्षों से डंके की चोट पर दोहराया जा चुका है कि भारत की अधिकाँश जनता भी ईमानदारी से यह मान बैठी है कि लोकतंत्र का मतलब ही तंत्र का गुलाम लोक होता है | 

     आज स्थिति यह आ गई है कि जनता भारत में प्रचलित संसदीय लोकतंत्र (निर्वाचित सावधि तानाशाही) को ही असली लोकतंत्र मान चुकी है | दुनियाभर के अन्य विकसित लोकतंत्र के सहभागी माडल, या गांधी के ग्राम-गणराज्य कि कल्पना तक से हम कतराने लगे हैं | इसी गलतफहमी का फायदा उठाते हुए तंत्र ने अगस्त 2011 में 'संसद की भावना' के बावजूद आज एक ऐसा बिल संसद में पेश किया है जो कि राष्ट्र के विश्वास पर घात है | प्रस्तुत बिल तो अगस्त 2011 में पेश बिल से भी कमजोर है | इस बिल की कुछ प्रमुखाताएं हैं-

* लोकपाल के चयन में सरकारी प्रतिनिधियों की बहुलता, जो केन्द्रीय सतर्कता आयोग, थामस जैसे प्रकरण की पुनरावृत्ति पुष्ट करेगा
* इस बिल के दायरे से जनप्रतिनिधियों का सदन में आचरण बाहर रहेगा, जो संसद नोट काण्ड जैसे प्रकरण को भविष्य में रोक नहीं पाएगा
* इस बिल में लोकपाल को केवल जांच का अधिकार है, अभियोजन  का नहीं, जो कि वर्तमान के कर्नाटक लोकायुक्त विधेयक से भी कमजोर है
* इस बिल से सी.बी.आई. बाहर है, जो कि झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसे मामलों को अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंचा पाएगा
* इस बिल में भ्रष्टाचार विरोधी मुद्दे को भटकाकर आरक्षण पर ले जाने की साजिश तो साफ़ है ही
* यह बिल भारत के संघीय ढाँचे को भी कमजोर करेगा क्योंकि इसमें राज्यों में लोकायुक्त गठन के समर्थकारी प्रावधान के स्थान पर उसे अनिवार्य प्रावधान बनाया गया है
* इस बिल से सिटिजन चार्टर नदारद है, अलबत्ता यह एक अलग बिल के रूप में पेश है
लोकपाल का सिटिजन चार्टर भ्रष्टाचार विषयक राहत आम नागरिक को देता जो कि ज्वलंत समस्या है जबकि अनन्य सिटिजन चार्टर किसी सेवा प्रदाता के विषय में शिकायत पेटी मात्र है
* इस बिल में निचले सरकारी मुलाजिमों (ग्रुप सी,डी) का भ्रष्टाचार नहीं आता जिनसे सामान्य जनता त्रस्त है
* इस बिल में प्रधानमंत्री द्वारा लोक व्यवस्था हेतु  लिए गए निर्णय नहीं आते (यहाँ तो सरकारें शराबबंदी भी जनहित में कराती हैं और शराब के नए ठेके भी जनहित में ही देती हैं)
* इस बिल के अनुसार जहां भ्रष्टाचार के आरोपी सरकारी व्यक्ति को बचाव के लिए सरकारी वकील मुहैया होगा वहीँ शिकायतकर्ता को दंड का प्रावधान है
* इस बिल में राजनैतिक दल तो बिलकुल नहीं आते, 95% राजनेता नहीं आते (विधायिका), 90% नौकरशाही बाहर है (कार्यपालिका), और 100% न्यायपालिका तो बाहर है ही
* वहीँ इसके उलटे "हम भारत के लोग" द्वारा संचालित स्कूल, कालेज, स्वयंसेवी संस्थाएं, अस्पताल आदि इस बिल के दायरे में आते हैं

     इन सब तथ्यों से स्पष्ट है कि यह लोकपाल बिल नहीं तंत्रपाल बिल पेश किया गया है | इसका प्रारम्भ तो हुआ लोक पर तंत्र द्वारा भ्रष्टाचार मिटाने के बिल के रूप में मगर संसद में यह पेश है तंत्र द्वारा लोक को नए क़ानून के नाम पर गुलामी की एक और बेडी पहनाने के रूप में |

     आज मानव 21वीं सदी मैं है और विज्ञान ने कथनी-करनी के भेद को नगण्य कर दिया है | इसी समाज के एक वर्ग को लोकतंत्र की परिभाषा में दुष्प्रचार का एहसास हुआ और वह "सिविल सोसाईटी" कहलाया | इसने तंत्र की इस साजिश को लोक के सामने पर्दाफ़ाश करने का मन बना लिया है | टीम अन्ना यह जानती है कि वर्तमान संसदीय प्रणाली में जनलोकपाल आने की संभावना क्षीण है पर 27 से 29 दिसंबर तक की संसद की कार्यवाई पूरे देश के सामने निर्वाचित प्रतिनिधियों का रुख स्पष्ट कर देगी | तत्पश्चात  "लोक" में यह  धारणा प्रबल होने लगेगी कि वर्त्तमान संसदीय लोकतंत्र अब नाकाफी है और "हम भारत के लोग" प्रतिनिधि लोकतंत्र की राह छोड़कर भविष्य में सहभागी लोकतंत्र की राह पकडें |










Wednesday, November 16, 2011

Thursday, September 8, 2011

Delhi Terrorism


---------बार बार, आतंक से हार 

     7 सितम्बर को दिल्ली उच्च न्यायालय में आतंकी हमले ने फिर भारत को हिला दिया | कायरतापूर्ण इस मनमानी हिंसा को भारत कब तक सहता रहेगा यह सवाल आज हर नागरिक पूछ रहा है | विश्वभर में अविकसित राष्ट्रों को छोड़ दें, तो केवल भारत ऐसा देश है जहाँ ऐसे हमले लगातार होते आ रहें हैं | अन्य विकसित या विकासशील देश अपनी धरती पर आतंकवादी  घटनाओं में गुणात्मक कमी कर चुके हैं | 

     भारत एक लोकतंत्र है | सवाल उठता है कि पुलिस को कौन नियुक्त करता है ? क्यों नियुक्त करता है ? पुलिस को तंत्र नियुक्त करता है | आदर्श स्थिति वह होती है जब पुलिस, 'तंत्र' की सहायता से 'लोक' को सुरक्षा दे | पर भारत में आज हर नागरिक यह स्पष्ट अनुभव कर रहा है कि पुलिस 'लोक' नियंत्रण के माध्यम से 'तंत्र' को सुरक्षा दे रही है | तभी तो पुलिस बाबा रामदेव, अन्ना हजारे प्रकरण में तो 'तंत्र' की सुरक्षा हेतु नागरिकों को नियंत्रित करने में तो तत्परता दिखाती है, पर आतंक रोकने और  नागरिकों को सुरक्षा देते वक्त हर बार पूरी तरह विफल हो जाती है |

     इसके मूल में भारतीय पुलिस की स्थापना है | भारतीय पुलिस अधिनियम स्वतन्त्र भारत की देन नहीं है | यह देन है अंग्रेजों की, वर्ष 1861 में | सनद  रहे कि इसके चार वर्ष पूर्व ही, 1857  में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम प्रारम्भ हुआ था | स्वाभाविक है कि 150 वर्ष पहले अंग्रेजों ने जो पुलिस व्यवस्था स्थापित की थी, वह नागरिक सुरक्षा के लिए तो कतई नहीं थी | वह थी नागरिकों पर नियंत्रण करने के लिए, और तंत्र की सुरक्षा के लिए | तो भारतीय पुलिस आज भी  अगर अपना मुख्य कर्तव्य नागरिक सुरक्षा के बदले नागरिक नियंत्रण मान रही तो वह अपनी स्थापना-उद्देश्यों  के अनुरूप ही आचरण कर रही  है |  वर्ष 2006  में भारतीय पुलिस अकादमी के 57 वें दीक्षांत भाषण में तथा  देश भर के पुलिस  अधीक्षकों के सम्मलेन में स्वयं प्रधानमंत्री भी यही बात कह चुके हैं| http://indiannow.org/?q=node/12 हाँ यह अलग बात है कि पिछले पांच वर्ष में उनकी सरकार ने इसे सुधारने का प्रयास नहीं किया | करें भी क्यों | आतंकी 'तंत्र' पर हमला थोड़े ही कर रहे हैं, वे तो 'लोक' पर कर रहे हैं | तंत्र तो पुलिस द्वारा रक्षित है ही|  

     भारत में 'हम' निरीह नागरिक तब तक गाजर मूली की तरह कटते रहेंगे जब तक पुलिस, नागरिक नियंत्रण (जैसे हेलमेट, तम्बाकू, बारबाला) विषयों को समाज पर छोड़कर नागरिक सुरक्षा (जैसे चोरी, डकैती, आतंक, बलात्कार) तक अपने आप को सीमित नहीं कर लेती | आज तंत्र को यह समझना होगा की उसकी प्राथमिकता  नागरिक सुरक्षा  है, नागरिक नियंत्रण समाज स्वयं कर लेगा | दूसरी ओर समाज को यह समझना होगा की उसकी सुरक्षा सरकार ही कर सकती है, इसीलिए समाज नागरिक नियंत्रण के विषयों में सरकार से सहायता    मांगना छोड़े |  और यह गुणात्मक सुधार तभी आयेगा जब "हम  भारत के लोग" यह बात पूरी ताकत के साथ 'राज्य व्यवस्था' को समझा दें कि लोकतंत्र में पुलिस का काम 'लोक' को सुरक्षा प्रदान करना है 'तंत्र' को नहीं |     

Thursday, August 18, 2011

demo(N)cracy




ठोकतंत्र बनाम लोकतंत्र 
     लोकतंत्र दो शब्दों का जोड़ है | लोक एवं तंत्र | जब तंत्र, लोक-नियंत्रित होता है तब वह लोकतंत्र कहलाता है | पर जब तंत्र, लोक को नियंत्रित करने का षड्यंत्र रचाने लगता है तब वह ठोकतंत्र बन जाता है | क्योंकि 'लोक' को तंत्र, भय तथा  बलप्रयोग से ही काबू में रख सकता है | पहले बाबा रामदेव और अब अन्ना हजारे मामले में शासन ठोकतंत्र के रूप में उभरा है | सौभाग्य से भारत की जनता इक्कीसवीं सदी में जी रही है, सामंतवादी सदी में  नहीं | देशभर के हजारों स्थानों पर स्वयंभू विरोध प्रदर्शन इसका जीवंत उदाहरण हैं | 

     भारत के संविधान की  उद्देशिका का प्रारम्भ ही "हम भारत के लोग" से होता है | आश्चर्य है कि "हमारे" संविधान को संसद नाम की एक छोटी सी इकाई में बैठे मुट्ठी भर लोग आमूलचूल बदलते रहते हैं | कहने को तो "हम भारत के लोग" संविधान से बद्ध हैं, पर वास्तव में संसद के "हम" कैदी हैं | संसद ने निर्णय के "हमारे" सारे अधिकार "हम" से छीनकर अपने पास बंधुआ रख लिए हैं | और संसद का यह एकपक्षीय शक्तिशाली होना ही आजाद भारत के सभी समस्याओं की जड़ है |

     अन्ना  हजारे के समर्थन में खडी जनता को देखकर कोई यह गलतफहमी न पाल ले कि यह एक व्यक्ति के पक्ष में आंधी है | यह भीषण असंतोष है, संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली पर | संसद भी इसे समझ चुकी है | इसीलिए तो संसद में प्रधानमंत्री ने इसे संसदीय लोकतंत्र को कमजोर करने की साजिश कहा |  अन्ना तो केवल इसके प्रतीकमात्र हैं | और भ्रष्टाचार निर्मूलन विधेयक जनलोकपाल केवल इसका प्रथम चरण है |

     दूसरे चरण में देश की जनता प्रतिनिधि वापसी (राईट टु रीकाल) की स्वाभाविक मांग करेगी | क्योंकि वर्तमान प्रणाली, वोटर रूपी शाकाहारी के सामने विभिन्न पशु-पक्षी-मत्स्य के स्वादिष्ट मांस परोसकर उनमें से एक को खाने की बाध्यता जैसा है | ऊपर से उसे वमन करने की भी मनाही जो है |

     तीसरे चरण में यह मांग ग्राम गणराज्य पर जाएगी | संविधान की धारा 243 ग्रामसभा/नगरपालिका के गठन को आवश्यक ठहराती है | पर इसी धारा के उपबंध 'क' तथा 'ब' इन संवैधानिक इकाइयों को शक्ति प्रदान या न प्रदान करने की भी छूट देता है | इसीलिए आज स्थानीय निकाय वन्ध्यापुत्र  बनकर रह गए हैं | इस विडम्बना को दूर करने के लिए लोग सातवीं अनुसूची में संघ, राज्य, समवर्ती सूची के साथ स्थानीय निकाय सूची की भी मांग करेंगे |

     चौथे और अंतिम चरण में देश संविधान की मुक्ति की मांग उठाएगा | आज संविधान, तंत्र का बंधक बनकर रह गया है | तंत्र अपने सभी गलत काम संविधान को ढाल बनाकर ही करता है | पहले संविधान को संशोधित कर उसे मन-मुताबिक़ बनाता है, फिर उसी संविधान की दुहाई देकर अनाप-शनाप क़ानून जनता पर ठोक देता है | आज विश्वभर  में शायद भारत एकमात्र राष्ट्र है, जहां का संविधान उसके नागरिकों की सहमति के बिना ही संशोधित होता हो | आश्चर्य है कि केवल सदन में उपस्थित सांसदों कि दो-तिहाई बहुमत से हमारा संविधान पल-भर में बदला जा सकता है |

     संसद से संविधान की मुक्ति होने पर ही हम "प्रतिनिधि लोकतंत्र" रूपी राक्षस से मुक्त हो, "सहभागी लोकतंत्र" रूपी रामराज्य को पाएंगे | यही भारत की वर्तमान के ठोकतंत्र से भविष्य के लोकतंत्र तक पहुँचने की नियति है | मार्ग में जनलोकपाल, राईट टु रीकाल, ग्राम-गणराज्य, संविधान की मुक्ति आदि निश्चित पड़ाव भर हैं |    

Monday, August 1, 2011

Lokpal v/s Jokepal




-------------लोकपाल का इंद्रजाल 


संसद के इस वर्षाकालीन  सत्र में सरकार लोकपाल विधेयक  पेश करनेवाली है | दो प्रारूप सामने आ रहे हैं | एक सरकारी लोकपाल  तथा एक जनलोकपाल | जनलोकपाल मसौदा देशभर में चर्चा का विषय बन गया है | पैंतीस वर्ष पूर्व के सम्पूर्ण क्रान्ति की लहर के बाद एक बार फिर जनता अपनी आवाज बुलंद करती दीख रही है | दूसरी तरफ सरकार गोवर्धन पर्वत उठाए गोकुलवासियों की धृषटता  पर क्रोधित इन्द्रदेव के समान दीख रही है | क्योंकि लोकपाल जनता के आपसी भ्रष्टाचार में नहीं पडेगा | लोकपाल केवल लोक की शिकायत पर तंत्र के भ्रष्टाचार की जांच करेगा | इसके पीछे कारण यह है कि भारत ने भी संयुक्त राष्ट्र संघ  के भ्रष्टाचार निरोधी चार्टर पर हस्ताक्षर कर दिया है | इस चार्टर के तहत हर देश को अपने सभी सार्वजनिक सेवकों की भ्रष्टाचार की जांच करनेवाली एक स्वतन्त्र एजेंसी स्थापित करना अनिवार्य है | भारत में वर्तमान में केवल केन्द्रीय सरकार में चालीस लाख सार्वजनिक सेवक हैं | राज्य सरकारों की तो बात ही अलग है |
  • सरकारी लोकपाल विधेयक के प्रावधानों के अनुसार लोकपाल की  नियुक्ति नौ सदस्यीय चयन समिति करेगी जिसमें पांच सदस्य सरकारी होंगे | जनलोकपाल के अनुसार केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त थामस प्रकरण की पुनरावृत्ति रोकने के लिए सम्पूर्ण चयन समिति गैर सरकारी होगी |
  • सरकारी लोकपाल को केवल जांच के अधिकार प्राप्त होंगे, दंड देने के नहीं | जनलोकपाल को जांच एवं दंड दोनों के अधिकार  होंगे | क्योंकि दंडशक्ति के बिना लोकपाल दंतहीन सर्प भर बनकर रह जाएगा | साथ ही सरकारी प्रारूप संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के भी विरुद्ध होगा |
  • सरकारी लोकपाल के अंतर्गत प्रधानमन्त्री, न्यायाधीश, संसद में सांसदों का आचरण तथा वर्ग 'अ' से नीचे के अधिकारी नहीं आते | इसका सीधा अर्थ यह कि राष्ट्रमंडल खेल, बल्लारी  खान, आदर्श, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, नरेगा आदि घोटाले प्रस्तुत सरकारी लोकपालके दायरे से बाहर रहेंगे | साथ ही वर्ग 'अ' से नीचे के अधिकारियों को बाहर रखने से  से दफ्तर के बाबू, चपरासी आदि भी नहीं आते | अर्थात, सामान्य जनता को सीधे प्रभावित करनेवाला भ्रष्टाचार सरकारी लोकपाल जांच नहीं पाएगा | 
  • इसी तरह प्रधानमंत्री, सांसदों, न्यायाधीशों  को बाहर रखने के चलते टूजी घोटाला हो या संसद नोट काण्ड या न्यायमूर्ति दिनकरन मामला, ये भी सरकारी लोकपाल के दायरे से बाहर रहेंगे | संक्षेप में कहें तो सरकारी लोकपाल बमुश्किल एक प्रतिशत सरकारी पदों की ही जांच कर सकेगा | दूसरी तरफ जनलोकपाल समस्त सार्वजनिक सेवकों को जांचने का अधिकारी होगा | साथ ही, प्रांतीय लोकायुक्त राज्य के सभी सेवकों को भी अपने दायरे में समेटेगा |
  • प्रधानमंत्री और न्यायाधीशों को लोकपाल से बाहर रखना असंवैधानिक  भी होगा क्योंकि  संविधान नागरिकों कि सुरक्षा का दस्तावेज होता है न कि तंत्र की सुरक्षा का | वीरासामी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने संसद द्वारा उनचालीसवां संशोधन रद्द करके यह स्थापित कर दिया है | 
  • वर्तमान में किसी भी न्यायाधीश के विरुद्ध प्रक्रिया चलाने के लिए मात्र एक व्यक्ति (मुख्य न्यायाधीश) की अनुशंसा लेनी है | दूसरी ओर जनलोकपाल के अंतर्गत प्रधानमंत्री एवं न्यायाधीश दोनों शामिल हैं | भ्रष्टाचार आरोप प्रक्रिया प्रारम्भ करने के लिए किसी एक व्यक्ति की नहीं, अपितु सात सदस्यीय लोकपाल खंडपीठ की अनुशंसा लेना आवश्यक होगा |
  • सरकार का कहना है कि एकमात्र लोकपाल पर इतना बोझ लादना अव्यावहारिक  है | जनलोकपाल के अनुसार लोकपाल विभाग की पूरी संख्या बीस हजार कार्यकर्ताओं की होगी | तुलना के लिए अकेली मुम्बई पुलिस में पच्चीस हजार से अधिक का स्टाफ है |
  • सरकार कहती है कि लोकपाल के अंतर्गत प्रधानमंत्री को लाना आवश्यक नहीं क्योंकि वर्तमान  में सी. बी. आई प्रधानमंत्री की जांच कर सकती है | प्रश्न है कि जब सी. बी. आई स्वयं प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन है तो नौकर अपने मालिक की जांच  कैसे कर सकता है | झारखंड मुक्ति मोर्चा घोटाले में यह दोष स्पष्ट रूप से उजागर हो चुका है |

विश्वभर में एक भी ऐसा देश नहीं है जहां भ्रष्टाचार के मामले में किसी को भी संवैधानिक संरक्षण प्राप्त हो | आशा करना चाहिए कि भारत इस दुर्भाग्यपूर्ण पदवी पर आसीन नहीं होना चाहेगा | भारत में पिछले चौंसठ वर्षों में लोक एकतरफा कमजोर और तंत्र एकतरफा मजबूत हुआ है | जनलोकपाल आन्दोलन इस समीकरण को बदलकर " मालिक लोक का सेवक तंत्र " बनाने का प्रतीक मात्र है |


Thursday, July 14, 2011

Mumbai Terror

मुम्बई बम विस्फोट की सीख 
- माया मिली न राम
     एक बार फिर आतंकवाद ने मुम्बई को लपेट लिया | 13 जुलाई की तिकड़ी विस्फोटों ने फिर से साबित कर दिया कि भारत आतंकवादियों के लिए साफ्ट टार्गेट है | हमले के तुरंत बाद राजनेताओं के बयान भविष्य के लिए स्पष्ट संकेत हैं | केन्द्रीय गृहमंत्री ने माना कि हमलों की कोई खुफिया  पूर्वसूचना नहीं थी | कांग्रेस के युवराज महासचिव  ने कहा कि हर हमले से जनता को बचाना सरकार के हाथ की बात नहीं है | गुजरात के मुख्यमंत्री, भाजपा के करिश्माई नेता ने तो यहाँ तक कह दिया कि यह भविष्य के बड़े हमलों का रिहर्सल मात्र है | निरीह जनता बेचारी पीड़ा से कराह रही है और राज्यसत्ता ने उन्हें रामभरोसे छोड़ दिया है |

      सवाल है कि जब देश के दोनों बड़े राजनैतिक दल जनता को आश्वस्त करने की बजाय अपने प्रारब्ध पर छोड़ रहे हैं, तो शासन व्यवस्था की आवश्यकता ही क्या है ? एक तरफ तो शासन  यह कहे कि गिनती भर आतंवादियों को नियंत्रित करना उसके बस का नहीं, अगले ही पल वही शासन 120  करोड़ जनता में सिगरेट, हेलमेट, बालविवाह, दहेज़, बारबाला आदि विषयों को नियंत्रित करने का ठेका जबरन अपने ऊपर लेने के लिए अगर जमीन-आसमान एक करता है तो उसकी नीयत पर शक न किया जाय तो क्या किया जाय | चोरी, डकैती, अपहरण, लूट, ह्त्या, आतंकवाद, भ्रष्टाचार आदि असली समस्याएं जिस व्यवस्था से नहीं संभलती वह सामाजिक सुधार में इतनी तत्परता क्यों दिखाती है | 

     सर्वमान्य सिद्धांत है हर कोई अपनी-अपनी क्षमता को प्राथमिकताओं के आधार पर ही नियोजित करता है | प्रश्न है कि भारत की जनता की प्राथमिकता क्या ? सुरक्षा या समाज सुधार ? सामाजिक न्याय हमारा अभीष्ट तो  है, पर सुरक्षा की कीमत पर नहीं | क्योंकि अगर बांस ही न रहे तो बाँसुरी कहाँ बजेगी |

     सन 2001  में अमरीका पर अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला हुआ | आश्चर्य  है वह दोबारा दोहराया नहीं जा सका | उलटे शासन ने उस हमले के सूत्रधार को ही बिल में घुसकर साफ़  भी कर दिया | क्या अंतर है भारत और अमरीका में | अमरीका ने 9/11  के बाद यह नीतिगत निर्णय ले लिया कि वह अपनी पूरी क्षमता पहले अपने नागरिकों की सुरक्षा पर लगाएगा, उसके बाद अगर क्षमता बचे तो वह समाज सुधार में | इसका प्रमाण है कि इन दस वर्षों के अंतराल में दो-दो अमरीकी राष्ट्रपतियों की प्रिय स्वास्थ सुधार योजना को भी वहां की सदनों ने निरस्त कर दिया |


       भारत में इसके ठीक उल्टा हो रहा है | एक तरफ तो शासन ने आतंवाद निरोधी धारा टाडा को निरस्त कर दिया, भ्रष्टाचार पर सशक्त लोकपाल विधेयक लाने में आना-कानी कर रही है | दूसरी तरफ समाज सुधार के नाम पर नरेगा, खाद्य आपूर्ती बिल, सार्वजनिक स्थानों पर सिगरेट पर रोक जैसे विधेयक लाने में तत्परता दिखाती है | अब इन्हें कौन समझाए कि मुर्गी को किस मसाले में तला जाय इससे मुर्गी को कोई अंतर नहीं पड़ता | अनपढ़ आदमी भी अपने घर के मुख्यद्वार के लिए पहले अच्छा ताला लाता है फिर क्षमतानुसार सामान भरता है | जनता जीवित रहेगी  तब खाना सिगरेट आदि प्रश्न उठेंगे, मृत या शीघ्र ही  मरने वालों के लिए ये किस काम के |

     समय आ गया है कि भारत की राज्य व्यवस्था भी अपनी सीमित क्षमता केवल जनता को सुरक्षा एवं न्याय प्रदान करने में लगाए | समाज सुधार जैसी कृत्रिम मृगमरीचिका अगर अब लम्बे समय तक जनता को दिखाने का प्रयास जारी रहा तो अववस्था भी बढ़ेगी और सुरक्षा-ख़तरा भी | माया या राम में से शासन हम जनता को क्या दिलाएगा यह स्पष्ट करे |  

Monday, June 6, 2011

Ramlila Maidan

------------------ दमनचक्र या  चक्रव्यूह 

     4-5 जून की अँधेरी रात में शासन ने देश की राजधानी में मीडिया की उपस्थिति में  ही शान्तिपूर्ण विरोध कर रहे हजारों लोगों पर शारीरिक प्रहार करके  सभ्य समाज में एक नयी बहस छेड दी है | निश्चित रुप से यह कृत्य अलोकतान्त्रिक है तथा सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसका संज्ञान ले लिया है | अतः निकट भविष्य में निश्चित ही उस प्रकरण के उचित-अनुचित का निर्णय हो जाएगा | मुख्य बात यह है कि क्या शासन दमनचक्र प्रारम्भ करने से पहले सम्भावित परिणामों से अनभिज्ञ था ? सामान्य ज्ञान  रखनेवाला भारत का कोई भी नागरिक कहेगा कि शासन को सभी परिणामों का पूर्ण ज्ञान था | 

     अब प्रश्न यह उठता है कि न्यायिक, सार्वजनिक तथा मीडिया की व्यापक भर्त्सना की अवश्यम्भाविता के बावजूद शासन ने ऐसा क्यों किया ? क्रिकेटप्रेमी जानते हैं की बुरी तरह हार के कागार पर खडी टीम जैसे वर्षा की प्रार्थना करती है, ठीक उसी तरह दसों दिशाओं से भ्रष्टाचार की मार झेल रही शासन व्यवस्था भी बहस का मुद्दा बदलने के ताक में थी | आन्दोलन के नेता की छोटी सी त्रुटी ने उसे वह बहाना दे दिया |  

     4  जून तक भारतभर में जो माहौल भ्रष्टाचार विरोध का था, वह अचानक  5 जून को सरकार विरोध में तब्दील हो गया | ध्यान देने योग्य बात है कि आजाद भारत के सभी शासन व्यवस्थाओं का यह चरित्र रहा है कि वे नागरिकों को गम्भीर मुद्दों में सहभागिता प्रदान करने से येन-केन-प्रकारेण बचती रह्ती हैं | क्योंकी उसने तो यह प्रचारित कर रखा है कि लोकतन्त्र अर्थात समाज के ऊपर  प्रतिनिधियों द्वारा शासन |  पौराणिक कथाओं में विश्वामित्र के तप को मेनका द्वारा भंग करवाने की इन्द्र की कुटिलता की कहानियाँ हम सभी जानते ही हैं | लोकपाल बिल मसौदा समिति  में सिविल सोसाईटी के नुमाइंदों की उपस्थिती की वैधानिकता ही  भविष्य में शासन व्यवस्था  को कमजोर कर  सभ्य समाज को मजबूत करनेवाला कदम है | शासन व्यवस्था एक बार तो गच्चा खा गई, दुबारा नहीं |   

     रामलीला मैदान की घटना शासन व्यवस्था का नागरिक विरोध झेलने के बदले राजनीतिक  दलों का विरोध मोल लेने की चतुर रणनीति के रुप में देखना चाहिए | इसीलिए आज सभ्य समाज के सामने यह स्पष्ट विकल्प खडा है कि या तो हम भ्रष्टाचार विरोध की आवाज बुलन्द रखते हुए व्यवस्था परिवर्तन लाएँ, अथवा सरकार विरोध करते हुए सत्ता परिवर्तन लाएँ | यहाँ पर हमें ध्यान देना होगा कि पिछ्ले  64  वर्षों में हम केवल सत्ता  परिवर्तन तक सीमित रहे है, और हर ब्राण्ड की सत्ता समाधान देने में असफल रही है | शायद अब एकाध बार व्यवस्था परिवर्तन का प्रयोग करने का समय आ गया है |

Wednesday, May 18, 2011

Education

-----------Education

Social development occurs due to a synergy of two things। 1) Individual competition। 2) Society’s Caravan approach.

In the competition model, an individual is free to forge ahead to the extent that the society permits him to, but in a caravan model it is binding to take along weaker individuals as well. A harmony between the two is an ideal system. The western model is far off from the caravan model and communism has no incentive for individual competitiveness. Prior to the nineties, India was devoid of any model of development. Post liberalization, we are running at breakneck speed on the competition model super highway.

Education is vital in the competitive model. An educated person is undoubtedly more successful in the material progress of himself, his family and his nation than an uneducated person, but this education has been more of a hindrance rather than of any help as regards to the issues of social order and justice. Education has no consequence whatsoever on the character of an individual. Education merely enhances skill and induces capacity augmentation.

If a criminally inclined individual attains higher education, he will be able to commit crimes with that much more finesse. Conversely, an individual inclined to be a keen watcher will become a policeman and and will investigate crimes in a better way on attaining education. Education is a weapon and its application is dependent upon the user weather for social purpose or anti-social.

Education expansion has undoubtedly helped India reach the top of the world order but simultaneously it has to be accepted that it has resulted in unbridled corruption, moral turpitude, and newer dimensions to crimes. If the credit goes to education, the blame too lies at its altar.

It is due to the effect of education that educated people have found out newer ways of labor exploitation and moreover amusingly, convinced the proletariat that this scheme is beneficial to them too. Education exhorts us to uni-directionally keep looking ahead, but sadly does not develop the tendency to look back and evaluate.

Tendencies are primes by genes, family atmosphere and social environment. Tendencies that develop as a result of these three factors are augmented by education. It is our misfortune that in independent India, we have never bothered about family structure and social environment. The Indian Constitution has not found words like family and society worth incorporating, leave alone assigning them their sphere of influence. Resultantly, the tendencies have steadily deteriorated and education has magnified the residual appalling tendencies.

Today, every sociologist, religious head and intellectual contains himself to criticizing the education system rather than discuss the truth regarding education. Some blame McCauley, others blame something else. Surprisingly, none advocate an ideal system. The simple reason is that nothing of idealistic consequence can be achieved by education itself. Education is not a seed as in agriculture. It is the manure and needs to be seen in that light. Manure cannot change the characteristics of a seed; it can only augment its original traits. If comparable education could not influence homogenous results in Duryodhana and Yudhishtira in Mahabharat times, it is futile to think it will do so today.

I am fully convinced that education has been successful in all the aspects for which it was intended for, but other results that we wish for is not a subject matter of education but rather a topic of tendencies.

If instead of depending upon education, we concentrate on family atmosphere and social environment, the tendencies so generated will be constructive and then education will automatically augment them to a higher level. For this to occur, the Indian Constitution will have to incorporate words like family and society in its vocabulary and allocate them certain rights.

The word “education” too has metamorphosed over time. In pre-industrial times, it was the training imparted to an individual over a lifetime by the triad of family, society and wise men. In post-industrialized vocabulary, education has become synonymous with regimented schooling. We need to distinguish between the two. Education widens an individuals’ horizon. Regimented schooling merely enhances his inherent traits.

Friday, April 15, 2011

Revolution


------------------- क्रान्ति के पुरोधा

यह भ्रान्ति है कि क्रांतियाँ भौतिक होती हैं | क्रांतियाँ असल में मनुष्य के दिमाग में होती हैं, भले ही उसकी निष्पत्ति व्यापक रूप से भौतिक दृष्टिगोचर हो | जो क्रांतियों को गहराई से नहीं समझते  वे क्रान्ति के बाद की परिस्थिति देखकर उस क्रान्ति का आकलन करते हैं | अगर क्रान्ति के बाद का समाज पहले से बेहतर प्रतीत होता है तो क्रान्ति की शान में कसीदे पढ़े जाते हैं | इसके  विपरीत अगर क्रान्ति के बाद का समाज पहले से बदतर प्रतीत होता है तो क्रान्ति को टायं-टायं फिस्स मान लिया जाता है | बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में रूस में भी साम्यवाद-क्रान्ति हुई और जार शासन ख़त्म हुआ | बीसवीं सदी के मध्य  में उस क्रान्ति को मानव इतिहास की सफलतम क्रांतियों में गिना जाता था | और इक्कीसवीं सदी के  आते आते वही क्रान्ति पूर्णतः असफल सिद्ध हुई | गांधी की अहिंसक क्रान्ति भी बीसवीं सदी के मध्य में सफल मानी जाती थी | आज इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के आते-आते देश की स्थिति देखकर अधिकाँश लोग स्वतन्त्र भारत की दशा से परेशान हैं | आचार्य विनोबा भावे की भूदान क्रान्ति का भी यही हाल हुआ, जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रान्ति का भी | शुरुआत में सफल, उत्तरोत्तर उसकी उपादेयता निरर्थक दिखने लगी |

इस विरोधाभास को  समझने के लिए क्रान्ति के अग्रदूत की मानसिकता को समझना उचित रहेगा | क्रांतिकारी दो तरह के होते हैं, एक वे, जो भ्रमित समाज की सोच बदलने को तत्पर रहते हैं, और दूसरे वे जो दयनीय स्थिति में पड़े  समाज को बेहतर  स्थिति में ले जाने की लालसा रखते हैं | पहले प्रकार के क्रांतिकारी यह समझते हैं कि व्यक्ति  की बौद्धिक क्षमता भले असीमित हो, पर उसकी भौतिक क्षमता नैसर्गिक रूप से ही सीमित है | इसीलिए वे अपने-आप को परिवर्तन की प्रक्रिया का प्रारम्भ या अंग भले मानें, उसकी निष्पत्ति की सम्पूर्ण जिम्मेदारी अपनी न मानकर, समाज की साझेदारी मानते हैं | ऐसे लोग क्रान्ति के पुरोधा तो होते हैं, परन्तु क्रान्ति के बाद की व्यवस्था वे सामूहिक इच्छाशक्ति पर छोड़ते हैं | क्योंकि सैद्धांतिक रूप से वे यह मानते हैं कि क्रान्ति केवल अव्यवस्था से व्यवस्था की ओर का प्रयाण है |

दूसरे तरह के क्रान्ति के पुरोधा यह मानते हैं कि क्योंकि क्रान्ति अव्यवस्था से सुव्यवस्था की ओर का प्रयाण है, अतः क्रान्ति के बाद की व्यवस्था का भी स्वयं नेतृत्व करते हैं, क्योंकि क्रान्ति की सफलता की सारी जिम्मेदारी उनकी है | पहले प्रकार के क्रांतिकारियों में महावीर, ईसा, गांधी, मार्टिन लूथर, विनोबा, जे.पी आदि हैं, तो दूसरी में बुद्ध, हजरत मुहम्मद, लेनिन, मंडेला आदि |

वैचारिक क्रान्ति के पुरोधा क्योंकि क्रान्ति के बाद की व्यवस्था का नेतृत्व स्वयं नहीं करते, इसीलिए नई व्यवस्था में भले कमोबेश अल्पकालिक त्रुटियाँ रह जाती हों, पर विचार दीर्घकालिक अक्षुण  रह जाता है | भौतिक क्रान्ति के पुरोधा क्योंकि क्रान्ति के बाद की व्यवस्था का स्वयं नेतृत्व करते हैं, इसीलिए नई व्यवस्था को अल्पकालिक सुव्यवस्था में तो उन्होंने बदल दिया पर प्रकारांतर से प्रच्छन्न तानाशाही की भी नींव पड़ जाती है | इसीलिए उन पुरोधाओं के अवसान के बाद उक्त सुव्यवस्था पुनः अव्यवस्था में तब्दील हो जाती है | पहले में विचार प्रमुख होकर व्यक्ति गौण हो जाता है, तो दूसरे  में व्यक्ति प्रमुख हो विचार गौण हो जाता है |

भारत आज अन्ना हजारे प्रणीत भ्रष्टाचार विरोधी क्रान्ति के दौर से गुजर रहा है | यह उपरोक्त दो दिशाओं में से किधर जाएगी यह देखना रोचक होगा | क्या यह अव्यवस्था से जूझ रहे भारत को व्यवस्था कि ओर ले जाएगी, या सुव्यवस्था की मृगमरीचिका दिखलाएगी | पहली स्थिति में भौतिक क्रान्ति भले असफल हो, पर विचार बच जाएगा और अनुकूल परिस्थितियों में भविष्य में फिर कोंपलें खिलाएगा | इसका प्रमाण गांधी जनित अहिंसक क्रान्ति में ही विनोबा के भूदान का, विनोबा के ग्रामदान में ही जयप्रकाश के सम्पूर्ण क्रान्ति का, और जे.पी. के सहभागी लोकतंत्र की निष्पत्ति ही अन्ना हजारे की मांग के अनुसार ड्राफ्ट कमेटी में सिविल सोसाईटी को शामिल किया जाना है |  दूसरी स्थिति में भौतिक क्रान्ति भले सफल हो, पर सुव्यवस्था के नाम पर आनेवाला शक्ति का केन्द्रीकरण भविष्य में फिर अव्यवस्था के बीज बो देगा | क्योंकि चोर से तो हमें पुलिस बचा लेगी, पर पुलिस से हमें कौन बचाएगा ?  



Friday, April 8, 2011

Anti Corruption

------------अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार उन्मूलन

अन्ना हजारे आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध सशक्त प्रतीक के रूप में उभरे हैं | उनके जीवन संघर्ष से परिचित लोग यह जानते हैं की उनका पहला भ्रष्टाचार विरोधी संघर्ष 1975 में एक वन अधिकारी के विरुद्ध प्रारम्भ हुआ था जो आज 35  वर्ष बाद प्रधानमंत्री तक पहुँच गया | (लोकपाल विधेयक प्रधानमंत्री तक को भ्रष्टाचार विरोधी क़ानून के अंतर्गत लाने का प्रावधान रखता है ) अन्ना हजारे अत्यंत सरल, सहज, निश्छल, एवं सादे व्यक्ति हैं | इन वर्षों में महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में सिद्धि ग्राम को उन्होंने स्वावलंबी बनाकर एक आदर्श ग्राम का प्रारूप भी दिया है | उनका आन्दोलन भी ऐसा ही पाक साफ़ है | शासन के आदेशों के विरुद्ध समय-समय पर उठती उनकी आवाज के पीछे भी उनकी सामाजिक चेतना ही प्रमुख है |

शासन और अनशनकारियों के बीच सैद्धांतिक रूप से किसी बात पर मतभेद नहीं है  क्योंकि सरकार ने अगले सत्र में विधेयक लाने का संकल्प ले लिया है | टसमटस इस बात पर है की आन्दोलनकारी विधेयक  प्रारूप समिति में सिविल सोसाईटी अर्थात समाज के आधे प्रतिनिधि चाहते हैं, पर सरकार इसे मानने से इनकार कर रही है | सरकार का तर्क है की वह स्वयं जब समाज की प्रतिनिधि है तो अलग से सिविल सोसायिटी के सदस्यों का क्या काम ? सरकार का ऐसा कहना स्वाभाविक ही है | अन्ना हजारे ने साठ वर्षों के  शासन के एकाधिकार को जो चुनौती दे दी है | 

साठ वर्षों से शासन ने समाज को निगल कर स्वयं को समाज जो घोषित कर रखा है | इसका प्रमाण भारत का संविधान स्वयं है जिसके चार सौ से अधिक पृष्ठों में एक जगह भी समाज नामक शब्द नहीं है | आज अन्ना हजारे एवं हजारों लोग यह भेद जान गए हैं और शासन तथा समाज के अंतर को जानकार ही शासन में समाज की अलग से सहभागिता मांग रहे हैं | 

आज भारत का आम नागरिक यह समझ गया है की लोक और  तंत्र  के बीच एकपक्षीय रूप से तंत्र के पास शक्ति का ध्रुवीकरण होता जा रहा है और  वह अन्ना हजारे के माध्यम से तंत्र पर लोक की प्रधानता स्थापित करना चाहता है |  अतः इस बिल में समाज का प्रतिनिधित्व  ही हमारे लोकतंत्र  के लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी |

भारत में  एक भ्रम घर कर गया है की भ्रष्टाचार व्यक्ति की करतूत होती है | असल में, भ्रष्टाचार व्यक्ति नहीं, व्यक्ति में शासन द्वारा निहित वैधानिक शक्ति करती है | पदहीन व्यक्ति भ्रष्टाचार कर ही नहीं सकता, परिचितों को धोखा भले दे दे | और शक्ति जब भी केन्द्रित होगी, उसके दुरूपयोग की संभावना भी उसी अनुपात में बढ़ जाती है |

केन्द्रीय सतर्कता आयोग का गठन भी भ्रष्टाचार को पनपते ही नोचने के उद्देश्य से हुआ था | इसीलिए उस इकाई के पास दंडशक्ति भी दी गई | पर आखिर हुआ क्या ? शासन ने उसका नेतृत्व ही ठकुरसुहाती करने वाले व्यक्ति के हाथ में देने की पूरी योजना बना डाली | भला हो सर्वोच्च न्यायालय का जिसने देर से ही सही, उस नियुक्ति को रद्द कर दिया | लोकपाल को भी ऎसी ही दंडशक्ति से लैस करने की हिमायत जन लोकपाल मांगनेवाला सभ्य समाज कर रहा है | भविष्य में लोकपाल का नेतृत्व भी थोमस जैसा कोई आदेशपाल नहीं करेगा इसकी  क्या गारंटी ?  तब फिर से सभ्य समाज को अपना काम धंधा छोड़कर,  या सर्वोच्च न्यायालय को न्याय देने के स्थान पर  नियुक्ति प्रक्रिया जैसे ओछे प्रशासनिक विषयों पर निर्णय देने हेतु बाध्य होना पडेगा |


शरीफ लोग शेर को शाकाहारी बनाने का प्रयास करते हैं | समझदार लोग शेर को पिंजड़े में बंद करने की योजना बनाते हैं | पहले तरीके में अपवाद स्वरूप सफलता मिलती भी है, फिर भी शेर का आदमखोर बनने का ख़तरा बना रहता है,| दूसरे तरीके में सफलता भले देर से मिले, शेर के आदमखोर बनने का ख़तरा समाप्त हो जाता है | क्योंकि बकरी यह जानती है की सौ में से निन्यानवे शेर  अगर शाकाहारी बन जाए  तो भी उसकी  जान को ख़तरा कम नहीं होता |


आज पूरे भारत में यह बात सर्वमान्य है की भारत की सभी समस्याओं की जड़ में भ्रष्टाचार है, और शक्ति का केन्द्रीकरण ही भ्रष्टाचार का उत्स है | अतः सभ्य समाज को भारत की सभी समस्याओं के शाश्वत निदान के लिए भविष्य में गांधी प्रणीत सत्ता  के अकेंद्रीकरण ( लोक स्वराज ) की दिशा में चलना ही होगा | उस स्थिति में पहुँचने से पहले वर्तमान में चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी अहिंसक सात्विक आवाज की सुर में सुर मिलाना भी समझदारी ही होगी |

Sunday, April 3, 2011

Criket Victory

-----------------क्रिकेट विजय का मतलब

भारत ने आखिरकार २८ वर्षों बाद क्रिकेट  विश्व कप जीत ही लिया | करोड़ों लोगों की शुभकामनाएं  तथा टीम के शानदार प्रदर्शन के बदौलत यह संभव हुआ |  कमोबेश यह वही टीम है जो पिछले विश्व कप में पहले ही दौर में बाहर हो गई थी | विशेषता यह की इस विजय अभियान में टीम ने सभी भूतपूर्व विश्व विजेताओं को एक एक कर हराकर खिताब जीता है | 

जीत के बाद  टीम का रवैया टीम के जीत का  सूत्र को दर्शाता  है | फाइनल मैच टीम सचिन तेंदुलकर के खराब प्रदर्शन के बावजूद जीती, फिर भी पूरी टीम ने जीत का श्रेय सचिन  को समर्पित किया | सचिन का फाइनल से पहले  श्रंखला में शानदार प्रदर्शन रहा था, सो वे इस श्रेय को वैध रूप से ले सकते थे | पर उन्होंने जीत का सम्पूर्ण श्रेय टीम को समर्पित किया | इसके विपरीत टीम के कप्तान धोनी ने श्रंखला में टीम चयन से लेकर पिच के गलत आकलन तक का सभी दोष अपने ऊपर लिया, जबकी सब जानते हैं की  चयन या पिच संबंधी सभी निर्णय टीम, कोच आदि सामूहिक रूप से लेते हैं, कप्तान व्यक्तिगत नहीं |

ऐसा अक्सर कम ही होता है की श्रेय दूसरों को दिया जाय और दोष अपने ऊपर लिया जाय | साधारणतः कोई भी समूह -चाहे वह परिवार हो, संघ हो, संस्थाएं हो, प्रतिष्ठान हो, सरकार हो, -में श्रेय लेने की होड़ और दोष मढने की प्रवृत्ति होती है जो उत्तरोत्तर  उस इकाई में कलह या सडन पैदा करती है | भारत की ग्रामीण सभ्यता में सामूहिकता आज भी नैसर्गिक रूप से विद्यमान है, पर शहरों में व्यक्तिवादिता के कारण अब वह विलुप्त होती जा रही है | सामूहिकता में श्रेय देने की प्रवृत्ति का निर्माण होता है, जबकी व्यक्तिवादिता, स्वार्थ को वैधानिक मानने के चलते  दोष मढने की प्रवृत्ति उत्पन्न करती है |  इस परिप्रेक्ष्य में  भारतीय कप्तान का मूलतः ग्रामीण प्रदेश से आना भी एक सशक्त प्रतीक है |

शंकराचार्य का अद्वैत हो, सर्वोदय का  सिद्धांत हो, चाहे भगवान् बुद्ध का मूलमंत्र, "संघम शरणम गच्छामी", यही सिखाता है की अगर किसी इकाई में श्रेय देने की और दोष लेने की प्रवृत्ति निर्मित हो जाए तो वह इकाई स्वाभाविक रूप से  सर्वोत्तम बन जाती है | सभी इतिहासपुरुष इसी सिद्धांत पर चले, चाहे वह ईसा का दोषहीन होने के बावजूद सलीब पर चढ़ना  हो, या चौरी-चौरा के  बाद गांधी द्वारा  उसकी नैतिक जिम्मेदारी लेकर किया गया प्रायश्चित्त हो | 

भारतीय क्रिकेट टीम ने जाने-अनजाने स्वच्छ और सफल समाज रचना का सूत्र पेश कर दिया है | क्रिकेट की लोकप्रियता को देखते हुए, यह सूत्र शनै-शनै समाज में व्यापक रूप से प्रतिष्ठित  होगा ऐसी आशा है | 


Tuesday, March 29, 2011

 -----------------------क्रिकूटनीति

भारत पाकिस्तान समस्या को समझने के लिए दोनों देशों की स्थापना के सिद्धांत को जानना  आवश्यक है | भारत ने कभी धर्माधारित दो-राष्ट्र सिद्धांत को सही नहीं माना, पर जब वह लागू हो गया तो मजबूरी में फैसले को अंतिम मान  लिया, जबकी पाकिस्तान ने दो-राष्ट्र सिद्धांत को सही मना इसीलिए अभी तक क्रियान्वयन अधूरा मान रहा है | यही भारत पाकिस्तान समस्या की जड़ है | सैद्धांतिक रूप से दोनों मुद्राएं इतनी दूर हैं की समन्वय करना आसान नहीं है | समय ही इसका संतोषप्रद समाधान निकालेगा |

जब हम शुरू में किसी की आलोचना करते हैं तो भविष्य का रास्ता भी स्वयमेव तय हो जाता है | अगले कदम पर हम विरोध करने पर मजबूर होते हैं, उत्तरोत्तर संघर्ष की स्थिति बनती है जो की अंत में विद्रोह का रूप लेती है | इसके ठीक उलटे जब हम किसी की प्रशंसा करते हैं, तब भी भविष्य में उत्तरोत्तर समर्थन, सहयोग, सहभागिता हेतु मजबूर होते हैं | वैकल्पिक रूप से अगर हम शुरू से ही  समीक्षा के धरातल पर रहें तो तटस्थ बुद्धि से मुद्दे के आधार पर अपनी मुद्रा तय कर सकते हैं, बिना मजबूरी के |

पाकिस्तान ने शुरू  से ही भारत की आलोचना की मुद्रा तय की जिसके फलस्वरूप उसे भारत पर कई बार हमला  तक करना पडा | भारतीय विदेशनीति ने पाकिस्तान के विषय में  समीक्षात्मक मुद्रा तय की जिसके कारण  भारत को एक बार भी पाकिस्तान पर हमला करने की नौबत नहीं आई |

भारत पाकिस्तान वार्ता वर्तमान में आतंकवाद के विषय से आच्छादित है | आतंकवाद को सही दृष्टिकोण से समझने के लिए सामाजिक रचना समझना उचित रहेगा | औसतन समाज में धर्म के आधार पर चार सम्प्रदाय होते हैं |
1. जो मान्यता एवं आचरण दोनों में कट्टर हैं, 2. जो मान्यता में शांतिप्रिय मगर आचरण से कट्टर होते हैं, 3. जो मान्यता में कट्टर पर आचरण में शांतिप्रिय होते हैं, 4.  जो मान्यता तथा आचरण दोनों ही में उदार एवं  शांतिप्रिय होते हैं,


नगण्य अपवादों को छोड़ दें तो, वर्तमान में वहाबी विचारधारा से प्रभावित लोग पहली श्रेणी में, सूफियाना इस्लाम एवं ईसाई मतावलंबी तीसरी श्रेणी में, 'हिंदुत्व' के बहुप्रचारित विचारधारा से प्रभावित, तथा यहूदी दूसरी श्रेणी में, तथा सनातन एवं अन्य भारतीय मतावलंबी, चौथी श्रेणी में खड़े दीख रहे हैं |


पहली श्रेणी वाले आतंकवादी होते हैं | दूसरी श्रेणी वाले उग्रपंथी या प्रतिक्रियावादी कहलाते हैं | तीसरी श्रेणी वाले भ्रमित होते हैं, तथा चौथी श्रेणी वाले सज्जन होते हैं | हमें इनके भेद समझते हुए पहली श्रेणी के हौसले को बलपूर्वक तोड़ना होगा | दूसरी श्रेणी के लोगों पर अंकुश लगाना होगा ताकि उनके आचरण के उकसावे में सामान्य भोले-भाले लोग न आ जाय | तीसरी श्रेणी के लोगों को ह्रदय परिवर्तन की और प्रोत्साहित करना होगा ताकि वे चौथी श्रेणी वालों के सामान आदर सम्मान प्राप्त कर सकें, क्योंकि समाज के अस्सी प्रतिशत लोग इसी चौथी श्रेणी के होते हैं |

आतंकवाद धर्म, क्षेत्र, सभ्यता, राष्ट्र आदि सभी वर्गों को लांघता है | अपनी बात को हिंसा के बल पर मनवाने का प्रयत्न आतंकवाद होता है | इस आधार पर भारतीय नक्सलवाद, पूर्वोत्तर का अलगाववाद, फिलिस्तीन का यहूदी-विरोध, स्पेन का बास्क उग्रवाद, आयरलैंड का अलगाववाद आदि सब आतंकवाद की श्रेणी में आते हैं |

पाकिस्तान में भी आज सभ्य समाज और कट्टरवादियों में जंग छिड़ी हुई है | पाकिस्तानी राज्यसत्ता की समस्या यह है की अतीत मैं वह कट्टरवादियों का सहभागी रहा था | वर्तमान में जब समूचे विश्व में आतंकवाद विरोधी लहर उठ गई है, तब मजबूरन राज्यसत्ता को सहभागिता से कदम-दर-कदम वापस आना ही एकमात्र उपाय है | पर अतीत में की गई प्रतिबद्धता के चलते अब अचानक उलटे मुंह चलना असंभव है | इसीलिए हम देख रहें हैं की 9/11 के पूर्व का पाकिस्तान, पहले आतंकवाद की सहभागिता, फिर सहयोग, समर्थन, प्रशंसा से समीक्षा तक पहुंचा |

अब पाकिस्तान आतंकवाद की खुलकर आलोचना भी कर रहा है | भविष्य में  विरोध भी करने पर मजबूर होगा , उत्तरोत्तर संघर्ष भी करेगा और अंत में आतंकवाद के खिलाफ  विद्रोह भी करेगा | अमरीकी कूटनीतिज्ञों ने इस बात को समझ लिया 2001 में, भारतीय कूटनीतिज्ञ भी अब इसे समझने  लगे हैं, और भारतीय प्रधानमंत्री के क्रिकेट निमंत्रण को भी इसी परिप्रेक्ष्य में हमें देखना चाहिए |

खेल आम जनता के दिलों को छूता है | आम जनता कहीं की भी हो, उदार और शांतिप्रिय ही होती है | इसीलिए ऐसे मौके  जब भी स्वयमेव उपस्थित हों, दोनों राष्ट्रों के सभ्य समाज की उसमें साझीदारी निश्चित तौर पर उदारवाद को पुष्ट और कट्टरवाद को कमजोर ही करेगी | जहां तक मोहाली की बात है, खेल में अमुक दिन अच्छा खेलनेवाला विजयी होता है , अतः जो खराब  खेलेगा, वह हारेगा | पर यह पक्का  है की  इस पूरे मामले में कट्टरवाद पर उदारवाद जीतता हुआ दीख रहा है | 

Saturday, February 12, 2011

Jasmine Revolution




-------------अरब में बेला-चमेली की  खुशबू 

हर चैतन्यमय जीव, और खासकर मानव का सहज स्वभाव उत्तरोत्तर अधिकाधिक स्वतंत्रता के प्रति आकर्षण  का होता है | बौद्धिक जमात इसे प्राप्त करने के लिए अहिंसक विधाई उपाय का सहारा लेती है तो भावनाप्रधान जमात इसे हासिल करने हेतु हिंसक, बेढब प्रयास करती है | इसी की अभिव्यक्ति हाल में ही मिस्र की क्रान्ति में दिखी जिसमें तीन दशक से चले आ रहे राष्ट्रपति हुस्ने मुबारक का अधिनायकवाद समाप्त हो गया | मिस्र की संस्कृति विश्व की सुलझी हुई संस्कृतियों में गिनी जाती है |  सुलझी हुई, अनुभव के अर्थ में, वर्तमान शिक्षा के अर्थ में नहीं | इस क्रांति को बेला-चमेली क्रान्ति भी कहा जा रहा है क्योंकि फूल की सुगंध की तरह सत्ता परिवर्तन की यह क्रान्ति ट्यूनीसिया के सत्ता  पलट से  शुरू हुई और अल्जीरिया, यमन, जोर्डन, आल्बानिया आदि  में भी फ़ैल रही है | अब मिस्र में भी इसने खुशबू बिखेरकर दो राष्ट्रों  में सत्ता पलट दी | 

इस क्रान्ति की विशेषताएं हैं, व्यक्तिगत नेतृत्व का अभाव और अहिंसक प्रतिकार | इस क्रान्ति का कोई पुरोधा नहीं है | न ही इसमें हिंसक बलवा है | यह  अक्षरशः लोक-क्रान्ति है | इसकी एक और विशेषता धर्म के ठेकेदारों की अनुपस्थिति है | मिस्र का कट्टरवादी संगठन माने जाने वाला मुस्लिम ब्रदरहुड ने भी सहभागी न बनकर समर्थन की भूमिका तक अपने आप को सीमित कर लिया है | संभव है की आतंकवाद के विश्वव्यापी प्रमाणित आरोप से परेशान होकर इस्लाम की उदारवादी शाखा उसके विस्तारवादी, कट्टरपंथी  शाखा पर भारी पड़ रही है | धर्म के अधीन राज्य के स्थान पर समाज के अधीन धर्म की सही परिभाषा को शायद इस्लाम अब मानने पर मजबूर हो | इसीलिए पश्चिमी देश, जो तीस वर्षों से मुबारक को अरब संस्कृति का दहलीज मानकर उनका पोषण करते रहे, वे भी इस वक्त पाला बदलकर क्रांतिकारियों की मांग को जायज ठहरा रहे हैं | अगर इस क्रान्ति में वहाबी समर्थक होते तो निश्चय ही अमरीका मुबारक का साथ देता | 

अरब संस्कृति वर्तमान में विश्व अर्थ व्यवस्था का केंद्र-बिंदु है |  यह निर्विवाद तथ्य है की औद्योगिक क्रान्ति के बाद का सम्पूर्ण मानव विकास कृत्रिम ऊर्जा पर आधारित है | और कृत्रिम ऊर्जा का अधिकाँश  भण्डार अरब में है | परन्तु इस कृत्रिम ऊर्जा की अधिकाँश खपत पाश्चात्य संस्कृति कर रही है | अतः, इस  भण्डार से ऊर्जा प्रवाह की निरंतरता बरकरार रखने हेतु पाश्चात्य देश अरब संस्कृति में गुणात्मक सुधार (तानाशाही से लोकतंत्र का सफ़र) के स्थान पर यथास्थिति को अधिक महत्त्व देते हैं | इसीलिए प्रायः सभी अरब राष्ट्र आर्थिक रूप से विश्व के संपन्नतम राष्ट्र होने के बावजूद मानवाधिकार एवं लोकतंत्र के मामले में पाषाण युग में हैं |

इतने पिछड़ेपन  के बावजूद वहां की संस्कृति में अहिंसक, व्यक्ति-निरपेक्ष, विचार-प्रधान क्रान्ति होना जहां सम्पूर्ण विश्व के उदारवादी विचारधार के लिए शुभ संकेत है, तो वहीँ अधिकारवाद -  चाहे वह  वंशवाद हो, परिवारवाद  हो , अधिनायकवाद हो , धार्मिक कट्टरपंथी हों या तानाशाह हों,  -की राज्यसत्ता को ठोस चुनौती है |  जो भी हो, बेला-चमेली क्रान्ति का यह प्रकरण, आने वाले समय में मानवता की लिए उदारवाद  एवं कट्टरवाद के बीच के जद्दोजहद का रोचक एवं निर्णायक प्रसंग बनने की पूरी संभावना रखता है | 

Monday, January 10, 2011

विशेषाधिकार पर उद्योगपतियों एवं 
कांग्रेस अध्यक्ष का बयान

भ्रष्टाचार निर्मूलन हेतु हाल के दिनों में कांग्रेस अध्यक्ष ने सभी कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को उनके संविधान-सम्मत विशेषाधिकारों को स्वेच्छा से विसर्जित करने का परामर्श दिया है | इसके तुरंत  बाद भारत के चौदह प्रमुख उद्योगपतियों ने भी इसी विषय पर एक सामूहिक सार्वजनिक पत्र प्रधानमन्त्री जी को लिखा | इन दोनों पत्रों को मीडिया ने भी खूब उजागर किया है |
अधिकारों का प्रयोग दो प्रकार से होता है | पहला उदाहरण अभिभावक-बालक का सा है | इसमें अभिभावक बालक के सभी अधिकार अपने पास रख लेते हैं और बालक की उम्र एवं परिपक्वता के अनुपात में वे अधिकार शनै-शनै उसे दिए जाते हैं | दूसरा उदाहरण लक्ष्य का पीछा कर रही क्रिकेट टीम का सा है जिसमें सलामी बल्लेबाजों की मंशा पूरा लक्ष्य बिना विकेट खोए पूरा करने की होती है, फिर भी इस प्रयास में विकेट गिरते जाते हैं और अगला बल्लेबाज उसे पूरा करने की कोशिश करता है | इसमें मूल इकाई (सलामी बल्लेबाज) अपनी पूरी शक्ति लगाने के बाद, बाक़ी बचा काम अगली इकाई को सौंपते हैं | इस प्रारूप में उत्तरोत्तर आने वाली इकाई का बोझ (लक्ष्य) छोटा होता जाता है और कई बार तो आगे की बड़ी इकाइयों (नामी बल्लेबाज) को उतरना ही नहीं पड़ता है |
पहला उदाहरण अधिकारों के विकेंद्रीकरण का है तो दूसरा अधिकारों के अकेंद्रीकरण का | जब बड़ी इकाई सभी अधिकार अपने पास रखकर कभी-कभार कुछ अधिकार मूल इकाई को देती है तो वह विकेंद्रीकरण होता है | जब सारे अधिकार मूल इकाई के पास सुरक्षित हों और मूल इकाई अपनी शक्ति लगाने के बाद कुछ स्वेच्छा से, अपने से बड़ी इकाई को देती है, तो वह अधिकारों का अकेंद्रिकरण होता है | पिछले साठ वर्षों से भारत पहले उदाहरण जैसी लोकतांत्रिक प्रणाली से संचालित है जबकी विश्व के अन्य विकसित लोकतांत्रिक राष्ट्रों ने दूसरी प्रणाली अपनाई है |
कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी अत्यंत विचारशील एवं कुशाग्र महिला हैं | वर्तमान भारत में उनके जैसी पैनी राजनैतिक सोच रखने वाले अन्य किसी पार्टी में नहीं हैं | उनका बचपन एक आधुनिक लोकतंत्र में बीता और उच्च शिक्षा बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के उदार, प्रगतिशील, लोकतांत्रिक यूरोप में हुई | बाद का उनका अधिकाँश परिपक्व जीवन भारतीय लोकतंत्र में बीत रहा है | इसीलिए तो वे भारत की विकेन्द्रित व्यवस्था, जो प्रतिनिधि लोकतंत्र का जीवंत उदाहरण है, उसमें अकेंद्रित व्यवस्था, या सहभागी लोकतंत्र की सही परिभाषा है, -की आंशिक वकालत कर रही हैं | इस परिप्रेक्ष्य में जो उन्होंनें अपने मुख्यमंत्रियों को स्वेच्छा से विशेषाधिकार विसर्जन करने की जो राय दी है, उसके पीछे गंभीर सोच है |
उन्होंने इसके समर्थन में यह तर्क दिया है की विशेषाधिकार ही वर्तमान भूमि संबंधी भ्रष्टाचारों के जड़ में है | उन्होंने बिलकुल सही मीमांसा की है | वास्तव में सारे भ्रष्टाचार विशेषाधिकार प्राप्त इकाइयां ही करती हैं | आश्चर्य इस बात का है की इस सामान्य बात को भारत के बहुश्रुत समाजशास्त्री आज तक क्यों नहीं मंडित कर रहे हैं | इससे भी बड़ा आश्चर्य यह है की जब विशेषाधिकार-विसर्जन से भ्रष्टाचार कम हो जाएगा ऐसा श्रीमती गांधी का मानना है, तो वे केवल भूमि संबंधी विषयों में ही क्यों स्वैच्छिक विशेषाधिकार विसर्जन की बात कर रही हैं | शुक्र है की उद्योगपतियों के समूह ने विशेषाधिकार विसर्जन की वकालत सभी क्षेत्रों में की है |
 बोफोर्स, हवाला, हर्षद मेहता, यूरिया, ताबूत, आईपीएल, आदर्श, कर्नाटक जमीन आबंटन से लेकर स्पेक्ट्रम तक सारे भ्रष्टाचार को विशेषाधिकार-प्राप्त इकाइयों ने ही तो अंजाम दिए हैं | तो क्यों नहीं कांग्रेस अध्यक्ष भारत के संविधान में निहित विशेषाधिकार,  अर्थात केन्द्रीकरण, अर्थात भ्रष्टाचार के उत्स का समूल नाश  करने हेतु संघ-राज्य-समवर्ती सूची के तर्ज पर जिला-तालुक-गाँव-परिवार आदि को भी अपने-अपने क्षेत्र में स्वनिर्णय का अधिकार रखने हेतु संविधान संशोधन की पहल करती हैं | 
उन्होंने तो मर्ज का मूल पकड़ लिया है, और संकेत में निदान भी बतला दिया है | शायद अब भारत के उद्योगपति, समाजशास्त्री, बुद्धिजीवी, मीडिया आदि इस विषय को अपने तार्किक परिणति तक ले जाएंगे ऎसी आशा है |

Karpuri Thakur

  भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर  का कर्नाटक कनेक्शन (Click here for Kannada Book Details)        कर्पूरी ठाकुर कम से कम दो बार बैंगलोर आये। एक बार...