Wednesday, November 24, 2010

भ्रष्टाचार -विवेचना एवं समाधान
1980 दशक में भारत का सबसे बड़ा घोटाला 'बोफोर्स' प्रकाश में आया | मूल्य था 64 करोड़ रुपये |25 वर्ष बाद आज 'स्पेक्ट्रम' घोटाला सामने आया है | मूल्य है 164 हजार करोड़ रुपये | यानी 2500 गुना से अधिक की मूल्यवृद्धि | इन पच्चीस वर्षों में भारत में मुद्रास्फिति, रुपये का अवमूल्यन, मूल्यवृद्धि आदि को समेटकर भी किसी भी वस्तु का दाम 2500 गुना नही बढ़ा है | चाहे वह सोना हो, चांदी हो, दलहन हो, तिलहन हो, कपड़ा हो, वेतन हो, चाहे सबसे महंगी जमीन ही क्यों न हो | स्पष्ट है की भ्रष्टाचार बाक़ी विषयों की तुलना में जामितीय अनुपात में बढ़ रहा है | इन पच्चीस वर्षों में सत्ताएं बदली, लोग बदले, नेता बदले, या यों कहें की एक पूरी पीढी ही बदल गई | इस बीच भारत में मध्यममार्गी, वामपंथी, राष्ट्रवादी और अलावा इनके हर तरह के गठबंधन ने सत्ता संभाली | पर भ्रष्टाचार न बदला न ही थमा |

जनता, और मीडिया की सामान्य प्रतिक्रिया यह होती है की ऐसे कांडों में जो व्यक्ति लिप्त पाया जाता है, उसपर भ्रष्टाचार का ठीकरा फोड़ना, उसे 'एक्सपोस' कर, दण्डित करने का उपक्रम चलाना आदि | पर यहाँ गौर करने लायक बात यह है की जब हर नया काण्ड एक नए व्यक्ति की करतूत है, तब तो व्यक्ति की अपेक्षा व्यवस्था को दोषी होना चाहिए |

थोड़ी और सूक्ष्मता से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है की भ्रष्टाचार सत्ताधारी ही करते हैं | निष्ठा निरपेक्ष | तो भ्रष्टाचार की जड़ सत्ता साबित होती है | सत्ता अर्थात समाज द्वारा मान्यताप्राप्त व्यवस्था को चलानेवाले व्यवस्थापक |
पर ऐसी सत्ताएं तो संसार भर में अनादी काल से व्याप्त हैं | पर ऐसा भ्रष्टाचार तो और किसी देश में नहीं दीखता | न ही इतिहास में | तो आखिर खोट कहाँ है ?

खोट है हमारी व्यवस्था (सत्ता) के व्यावहारिक प्रयोग में | सत्ताधारी असल में व्यवस्थापक होते हैं, मालिक नहीं | 60 साल पहले हमने जो व्यवस्था अपनाई है उसमे सत्ताधारियों को गलती से व्यवस्थापक के बदले मालिकाना हक़ दे दिया गया है | अत: सत्ता निरंकुश हो गई है | और निरंकुशता, जो प्रस्तुत सन्दर्भ में संविधान-सम्मत केन्द्रीकरण का प्रारूप लिए हुए है, वही भ्रष्टाचार की जड़ है |

भ्रष्टाचार का चरित्र होता है कि उसमें दो पक्ष होते हैं | एक मांगनेवाला, एक देनेवाला | यह तभी संभव है, जब दोनों अपरिचित हों| क्योंकि परिचितों के बीच भ्रष्टाचार संभव नहीं होता है | हमारा कोई मित्र या संबंधी हमारा कोई काम करे, या न करे, पर उसके एवज में कोई मांग नहीं करता है | परिचितों के बीच धोखा संभव है, भ्रष्टाचार नहीं | धोखे में हानि व्यक्ति को होती है | भ्रष्टाचार की परिधि में सम्पूर्ण समाज आ जाता है |

कल्पना करें कि हमारे गाँव में पुलिस का काम वैधानिक तरीके से गाँव के नागरिक ही कर रहे हैं | ऐसे में गाँव में पुलिस-ग्रामवासी के बीच भ्रष्टाचार बढेगा या घटेगा ? स्वाभाविक उत्तर है, घटेगा | क्योंकि मांगेगा किस मुंह से और देगा कौन | विश्व में वर्तमान में जितने
भी विकसित लोकतांत्रिक देश हैं, उनमें हूबहू यही व्यवस्था है | सुरक्षा, न्याय, नागरिक सुविधाएं आदि की व्यवस्था का भार स्थानीय नागरिकों का ही होता है | केवल विस्तृत विषय, जैसे मुद्रा, सेना, संचार, कर, विदेश नीति आदि की केंद्रीकृत होते हैं |

भारत के संविधान में भी पंचायती राज/स्थानीय निकाय अधिनियम के रूप में ऐसे प्रावधान हैं | समस्या केवल धारा 243 (क) और धारा 243 (छ) के शब्दों के हेरफेर में है | 243 (क) के अनुसार पंचायत/स्थानीय निकाय स्थापित करना राज्य के लिए अनिवार्य है | पर 243 (छ) आते-आते उन पंचायतों/स्थानीय निकायों को क्या अधिकार देना यह राज्य का ऐच्छिक विषय बना दिया गया है | इस कारण देशभर की पंचायतें/ स्थानीय निकाय अस्तित्व में तो आ जाते हैं, पर पंगु बनकर | क्योंकि राज्य, 243 (छ) की आड़ में उन्हें कोई अधिकार देता ही नहीं |

इसका समाधान सीधा सा हैं कि वर्तमान की संघ सूची, राज्य सूची एवं समवर्ती सूची में एक और सूची पंचायतों/स्थानीय निकायों के अधिकार की जोडी जाय, जिसमें अधिकाधिक दायित्व उन्हें सौंप दिए जाएं | केवल मुद्रा, दूरसंचार, सेना, कर, विदेशनीति, रेल, उड्डयन, जहाजरानी आदि ऐसे विषय जो पंचायतों/स्थानीय निकायों को लांघते हों, वे मात्र केंद्र तथा राज्य के पास रहें |




Karpuri Thakur

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