Sunday, May 17, 2020

Covid 19

कोरोना : तांडव इन स्लो मोशन

     पूरे विश्व में कोरोना ने तांडव मचा रखा है जिससे भारत भी अछूता नहीं है।  कोरोना अभिशाप है, वरदान है, या चेतावनी, इस निष्कर्ष पर पहुंचने का भी प्रयास जारी है।  इस कोरोना काण्ड के ११ प्रमुख बिंदु हैं :- 
१) कोरोना का उद्भव २) कोरोना का चरित्र ३) कोरोना रोग ४) कोरोना का व्यक्तिगत प्रभाव ५) कोरोना का सामाजिक प्रभाव ६) कोरोना का आर्थिक प्रभाव ७) कोरोना का सामरिक प्रभाव ८) कोरोना पर भारत की रणनीति  ९) कोरोना से निदान १०) कोरोना प्रबंध ११) कोरोनोत्तर भारत 

१) कोरोना का उद्भव :
कोरोना वायरस ज़ूनोटिक श्रेणी में आता है, अर्थात ऐसा विषाणु जो प्राणी प्रजातियों को लांघता हो।  अब यह प्रायः प्रमाणित हो गया है की दिसंबर २०१९ के आसपास चीन के वूहान शहर के जीवित प्राणियों के बाजार से इस वायरस ने पहले पहल किसी जानवर से मानव के शरीर में प्रवेश लिया।  हालांकि यह चर्चा भी जोरों पर है की यह वायरस चीन के जैविक प्रयोगशाला में उत्पन्न किया गया हो, पर इस बात के पुख्ता सबूत अभी तक नहीं मिले हैं।  इस सबके बावजूद यह भी  निर्विवाद हो गया है की चीन ने इसके व्यापक संक्रमण की जानकारी समय रहते विश्व स्वास्थ्य संगठन की नहीं दी जो चीन की इरादतन भूल थी। एक बार किसी पहले मनुष्य शरीर में घुसने के बाद कोरोना ज्यामितीय गति से नए लोगों को संक्रमित करते गया और भूमंडलीय युग में आवागमन के साधनों की प्रचुरता के चलते चंद महीनों में ही पूरे विश्व में फ़ैल गया।  ध्यान रखने योग्य बात है की किसी भी भौगोलिक क्षेत्र में पहला संक्रमण आयातित ही होता है।  यानी ऎसी जगह जहां कोई आवागमन न हो, वहां यह वायरस तब तक नहीं पहुंचता जब तक कोई बाहरी संक्रमित मनुष्य उस स्थान पर स्वयं न पहुंच जाए । 

  २) कोरोना का चरित्र :
कोई भी वायरस न तो जीवाणु होता है, न कीटाणु।  वायरस एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म विषाणु होता है।  समुद्र के पानी की एक बूँद में लाखों विषाणु होते हैं।  वायरस हमारे रसोई के डब्बे में पड़े हुए उस चने के सूखे दाने की तरह होता है जो महीनों तक डब्बे में बंद भी रह सकता है, तो पानी में भिगो देने पर कुछ ही घंटों में अंकुरित भी हो सकता है।  कोरोना वायरस भी ऐसा ही एक विषाणु होता है जो अनुकूल स्थिति पाते ही अबाध गति से बढ़ता है।  मगर जैसे चने के दाने को भून देने से उसकी अंकुरित होने की क्षमता समाप्त हो जाती है, वैसे ही कोरोना वायरस भी साबुन के झाग से स्पर्श होते ही विखंडित होकर अपनी शक्ति खो बैठता है।  सूर्य की रश्मि पड़ने पर भी यह कुछ ही मिनटों में निस्तेज हो जाता है।  सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार ९० प्रतिशत संक्रमण बंद वातावरण में सुदीर्घ संसर्ग से फैलता है।  कोरोना वायरस केवल मुंह, नाक और आँख के छिद्रों से ही मानव शरीर में प्रवेश करता है।  कोरोना की संरचना बाहर से कटहल जैसी खुरदरी होती है जिसके चलते यह अलग अलग तरह की सतहों पर भी कई दिनों तक चिपका रह सकता है।  कोरोना की संक्रमण क्षमता १:२.२५ है जो की सामान्य नजला जुकाम के १:१ का दुगुना है।  अर्थात एक संक्रमित व्यक्ति औसतन दो से अधिक नए लोगों को संक्रमित करता है। 

  ३) कोरोना रोग :
कोरोना वायरस शरीर के अंदर प्रवेश करने के बाद श्वास नाली में बैठ जाता है जहां से यह ज्यामितीय गति से बढ़ते बढ़ते फेफड़ों को संक्रमित कर देता है।  कोरोना संक्रमित व्यक्ति को खांसी, बुखार, आदि की प्रारम्भिक शिकायतें होते होते सांस की तकलीफ तक हो सकती है। संक्रमित होनेवाले ८०% लोगों की शारीरिक रोग प्रतिरोध क्षमता ही इतनी अच्छी होती है की उन्हें या तो कोई लक्षण नहीं आते या बहुत हलके लक्षण आते हैं।  मगर बिना लक्षण के भी वह दूसरों को संक्रमण उसी ढाई के अनुपात में करता रहता है, मगर अनजाने में।   बाक़ी बचे उन २०% लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता जो अन्य कारणों से पहले से ही कम होती है -जैसे बुजुर्ग, पुराने रोगी आदि को अस्पताल में भर्ती होना ही पड़ता है और उन्हें लम्बे समय तक मशीन की मदद से कृत्रिम सांस की आवश्यकता भी पड़ती है। इस जटिलता के चलते विश्व भर में कोरोना रोगियों में से करीब ५% की मौत हो रही है।  

अर्थात यदि कोरोना भारत सहित विश्व भर में निर्बाध गति से फ़ैल जाय तो भारत में २६ करोड़ लोगों को अस्पताल की जरूरत और विश्वभर में करीब ३५ करोड़ मौत होने की संभावना है।  क्योंकि यह वायरस रोजमर्रा के सर्दी-जुकाम की ही श्रेणी में आता है, तो किसी भी वैद्यकीय पद्धति के पास, समूची मानवजाति में, इतिहास में कभी भी जुकाम रोकने की दवा का आविष्कार नहीं हुआ है। हाँ, अस्पताल में भर्ती गंभीर मरीजों को कृत्रिम सांस, संक्रमण से ठीक हो चुके व्यक्ति का रक्त प्लाज़्मा आदि चढ़ाकर सुधार लाने के प्रयास जारी हैं।   

  ४) कोरोना का व्यक्तिगत प्रभाव :
कोरोना के भय से ८०% मानवता आज घरों में दुबकी हुई है।  हर व्यक्ति को अपने बौनेपन का एहसास हो रहा है।  एहसास हो रहा है  अपने अस्तित्व की महत्वहीनता का।  आवश्यकता और चाहत के बीच का अंतर स्पष्ट होता जा रहा है।  जीवन में बुनियादी वस्तुओं बनाम विलासी वस्तुओं का भान अब मनुष्य बेहतर कर पा रहा है। कर लेंगे दुनिया मुट्ठी में का दम्भ कितना खोखला था यह भी स्पष्ट होते जा रहा है। कोरोना ने हर व्यक्ति को उसकी अधिकतम शारीरिक परिधि का भी एहसास दिला दिया है।  

  ५) कोरोना का सामाजिक प्रभाव :
घर बैठने को मजबूर बहुसंख्य मानव को कोरोना ने परिवार, हितैषी, निकटवर्ती, मददगार आदि की परिभाषाएं सीखा दी है।  जहाँ कल तक परिवारों में रोजमर्रा के कलह, झगडे, रगड़े, द्वेष, प्रतियोगिता, आदि के भाव सामान्य थे, आज उन्हीं परिवारों में कोरोना के कारण जबरन शान्ति स्थापित है।  कोरोना ने परिवारों के अंदर नकारात्मक विकल्पों के चयन पर, नेगिटिव इमोशंस के इजहार पर गुणात्मक रोक लगा दी है। पर जो असंख्य लोग घरों में नहीं है, उनके साथ कोरोना ने क्रूर मजाक भी किया है।  उन्हें अपनी सारी विपत्तियों को स्वयं ही झेलने पर मजबूर कर दिया है। प्रतियोगिता के सिद्धांत पर सरपट दौड़ रही मानवता के सामने वायरस ने बचने हेतु सहभागिता के सिद्धांत को अपनाने की मजबूरी ला खडी की है।    

६) कोरोना का आर्थिक प्रभाव :
भारत में कोरोना का आर्थिक प्रभाव कुछ ज्यादा ही गहन है।  विकासशील देश होने के चलते भारत की औसत जनता की आमदनी रोज कमाओ रोज खाओ वाली है।  ऐसे में बीते दो दशकों से आमदनी बढ़ाने की आकांक्षा से गाँवों से शहरों की और पलायन बढ़ा है।  मगर क्यूंकि भारत में श्रम को बुद्धि और धन दोनों से हेय मानने का प्रचलन है, अतः शहरों में प्रवास कर रहे श्रमिकों का जीवन स्तर और आमदनी दोनों शहरी बाशिंदों की तुलना में बहुत निकृष्ट है।  कोरोना के भय से ऐसे ४ करोड़ के आसपास श्रमिक महानगरों से अपने अपने गृह राज्यों की और औंधा पलायन कर रहे हैं। 

औचक घोषित लॉकडाउन के चलते शहरी श्रमिकों ने शहरों में बिना आमदनी के नारकीय जीवन व्यतीत करने की मजबूरी से बेहतर अपने अपने गृह राज्यों की और जैसे तैसे, पैदल, साइकिल, ट्रक, ऑटो, स्कूटी आदि किसी भी साधन से पलायन का विकल्प चुना है।  समूचे भारत के मुख्य राजमार्गों पर हजारों लाखों की संख्या में श्रमिक अपने बीवी बच्चों के साथ पैदल पलायन कर रहे हैं।  इसका भौतिक असर यह होगा की शहरों के विकास में निर्माण-कार्य का जो सबसे दृष्टिगोचर पहलू है, वह बाधित होगा।  इंफ्रास्ट्रक्चर के काम लंबित होंगे।  वहीँ दूसरी और कोरोना के चलते आम जनमानस में जो बुनियादी वस्तुओं का महत्त्व बढ़कर महत्वाकांक्षा घटी है, उसके चलते खेती के उत्पादों की कीमत में उछाल आना स्वाभाविक है।  किसान को अपनी लागत का बेहतर रिटर्न मिलना शुरू होगा।  आजीविका तथा निवास स्थान में दूरी घटेगी जिसके चलते आवागमन की आवश्यकता कम  होगी।   

२० लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज भी इस औंधे पलायन को नहीं रोक पायेगा क्योंकि कोरोना से पहले जो जनमानस सुविधा को प्राथमिकता बनाये हुए था, कोरोना के भय से अब सुरक्षा उसकी प्राथमिकता बन गई है।  भारत का औसत नागरिक कोरोना से स्थाई निदान मिलने तक केवल अपने परिवार के रोटी कपड़ा मकान स्वास्थ्य जैसी मूल सुरक्षा पर ध्यान देगा और सुविधा की चीजों से दूर रहेगा। यह औंधा पलायन तभी रुक सकता था अगर २४ मार्च को लॉकडाउन के साथ ही भारत सरकार यह घोषणा भी कर देती की घरों में बंद रहने के एवज में बिना आमदनी के घर चलाने हेतु भारत सरकार हर वोटर को न्यूनतम गुजारा भत्ता रु १७८ प्रतिदिन मुहैया कराएगी। एक महीने का यह केवल ५ लाख करोड़ रूपये आता।  यदि तीन महीने भी लॉकडाउन जारी रहता तो भी भारत सरकार पर महज १५ लाख करोड़ का भार पड़ता जिसका सीधा लाभ नागरिकों को मिलता।  आज जापान अपने हर नागरिक को ९३० डॉलर कोरोना भत्ता दे रहा है। कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, इटली, आयरलैंड, मलेशिया, फ्रांस, जर्मनी आदि भी इसी तर्ज पर अपने देशवासियों को यूनिवर्सल बेसिक इनकम दे रहे है, ताकि अकर्मण्यता के वातावरण में जनमानस आतंकित होकर उन्मादी निर्णय न लेने लग जाए।      

 ७) कोरोना का सामरिक प्रभाव : 
विश्व पटल पर देखें तो कोरोना काण्ड के चलते कई देश भारी परेशानी झेल रहे हैं।  कोरोना के उद्भव को छुपाने की चीन की नीति उसे विश्वंमानस में अविश्वसनीय होने की छवि प्रदान की है ।  हालांकि चीन ने अपनी छवि सुधारने हेतु विश्वभर में कोरोना से लड़ने के लिए उपकरण भी खुले हाथ से देना शुरू कर दिया है, पर यह महामारी फैलाने की तुलना में तुच्छ साबित होगा। विश्व के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका ने चीन की इस दोगली नीति के सामने, वायरस के सामने घुटने टेकने की बजाय वायरस का सामना करने की नीति अपनाई है भले इसका मूल्य उसे भारी प्राणहानि से चुकाना पड़ रहा हो।  अमेरिका का मानना है की कुछ महीनों बाद, जब कोरोना का वैश्विक प्रकोप समाप्ति की और होगा तब विकटतम परिस्थिति में भी डटकर खड़े रहने के चलते वह विश्व में अग्रणी होने की, सबसे बहादुर होने की छवि प्राप्त कर लेगा।
  
वर्तमान सन्दर्भ में यह लग रहा है की सामरिक दृष्टि से भविष्य में चीन थोड़ा कमजोर तथा अमेरिका अधिक मजबूत होकर उभरेगा।  वर्तमान चीन में जो सस्ता श्रम प्रदान करने की क्षमता है, वह अब खिसककर पूर्वी एशिया के मलेशिया, फिलीपींस, ताईवान, वियतनाम, थाईलैंड जैसे घनी आबादी वाले देशों की और जाएगा जिसकी शुरुआत हो चुकी है।  चीन से जो उत्पादन खिसकेगा, उसकी भारत में बड़े स्तर पर आने संभावना कम है क्योंकि वर्तमान भारत का मानव संसाधन निपुण श्रमिक या स्किल्ड लेबर नहीं है।  एक और महत्वपूर्ण बिंदु यह भी है की चीन की तानाशाही की ओर  झुकी शासन व्यवस्था कोरोना मामले में बदनाम हो चुकी है तथा कोई भी विश्वस्तरीय उत्पादक इतनी जल्दी पुनः किसी तानाशाही व्यवस्था में निवेश करने से बचेगा।  पिछले कुछ वर्षों में विश्वस्तर पर भारत की छवि पारदर्शी लोकतंत्र की कम और अधिनायकवाद या बेनेवोलेंट डिक्टेटरशिप की अधिक बनी है।    

८) कोरोना पर भारत की रणनीति : 
कोरोना से बचने हेतु भारत सरकार ने पहला प्रशासनिक कदम १२ मार्च २०२० को लिया जब उसने पूरे भारत में १८९७ का एपिडेमिक्स एक्ट लागू कर दिया।  इस क़ानून के अंतर्गत महामारी के दौरान हर जिला अपने आप में स्वायत्त इकाई माना जाता है और जिलाधिकारी को महामारी से अपने जिला वासियों को बचाने के लिए कोई भी कदम उठाने की छूट होती है। ऎसी विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के लागू होते ही कार्यपालिका सर्वोपरि हो जाती है जिस पर विधायिका का वर्चस्व घट जाता है।  

इस क़ानून के लागू होते ही असर यह हुआ की जिन जिन जिलों में समझदार जिलाधिकारी थे, वे अपने बढे हुए अधिकार एवं कर्तव्यलोप की स्थिति में कानूनी दंड एवं बदनामी की संभावना को भांप गए। ऐसे सभी समझदार जिलाधिकारियों ने विधायिका के राजनीति प्रेरित हस्तक्षेप को दरकिनार करते हुए अपने अपने जिलों में कड़े कदम उठाने शुरू कर दिए।  कईयों ने जिला सील कर दिया, कईयों ने बार, होटल, भीड़ इकट्ठा होने जैसे क्रियाओं पर तुरंत रोक लगा दी। 
उदाहरण के तौर पर २० मार्च को ही तमिलनाड के उन जिलों ने सड़क यातायात सील कर दिया जो जिले पड़ोसी राज्यों से सटे थे।  १३ मार्च को ही कर्नाटक ने लॉकडाउन घोषित कर धारा १४४ लगा दी।  केरल ने अपना पहला क्वारंटाइन १२ मार्च को ही कासरगोड जिले में कर दिया था। इस विकेन्द्रीकृत व्यवस्था का परिणाम आज ६० दिनों बाद देखा जा सकता है की  भारत के २०० से अधिक जिलों में कोरोना के एक भी मामले नहीं हैं।  उन सभी जिलों में जहाँ त्वरित कार्रवाई हुई, कोरोना के अपेक्षाकृत कम मामले स्पष्ट दिख रहे हैं। 
भारतीय जनमानस की दुविधा यह है की पिछले ६ वर्षों से वह विकेन्द्रित व्यवस्था के स्थान पर व्यक्तिकेंद्रित निर्भरता में अधिक निवेश किये हुए है। इसका नतीजा यह देखने में आया की मार्च के प्रारम्भ में जब कोरोना का आयात चरम पर था, तब चुनिंदा जिलों की छोड़कर बाकी भारत में कोरोना से बचाव के कदम या तो उठाये नहीं गए या फिर जिलाधिकारी द्वारा उठाये  कदमों को उनके राजनैतिक आकाओं का आशीर्वाद नहीं प्राप्त हुआ।  

नतीजतन २४ मार्च को बढ़ती हुई महामारी को रोकने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री को देश को सम्बोधित कर एक ऐसे लॉकडाउन की औपचारिक घोषणा करनी पड़ी जो १२ मार्च से लागू ही थी।  हड़बड़ी में घोषणा के चलते सार्वजनिक स्वास्थ्य की चिंता के चक्कर में कई व्यावहारिक पहलू छूट गए जैसे गरीब, बेघर, बेरोजगार, श्रमिकों का ठौर ठिकाना क्या होगा।  इसी हड़बड़ निर्णय के चलते उस दिन से लेकर आज तक करीब डेढ़ महीनों से ४ करोड़ लोगों का घरवापसी पलायन नहीं रुक पा रहा है।  

दूसरा वैज्ञानिक पहलू जो प्रधानमंत्री के ध्यान से हट गया वह यह की कोरोना का चरित्र मियादी न होकर बेमियादी होता है जो देर सवेर अनुकूल वातावरण मिलते ही फूट पड़ता है।  फरवरी से ही दुनिया के मूर्धन्य विशेषज्ञ राय दे रहे थे की लॉकडाउन समाधान न होकर अपरिहार्य को विलंबित करने की युक्ति भर है जिसमें चुराए हुए लम्बे कालखंड का उपयोग नई स्वास्थ्य सेवाओं की व्यवस्था निर्माण में लगाना चाहिए जिससे की अंततोगत्वा जब महामारी बढ़ेगी तब हर एक रोगी को समुचित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने की शक्ति शासन के पास हो । इसी वैज्ञानिक पहलू को दरकिनार करने के कारण भारत आज लॉकडाउन ३.० से ४.० की और जा रहा है जिसका कोई अंत नहीं दिख रहा है।
  
दुनियाभर की शासन व्यवस्थाओं की सत्ता केवल दो वस्तुओं पर चलती है।  एक -प्रजा या नागरिकों पर तथा दूसरी -भौतिक जड़ वस्तुओं पर।  भौतिक वस्तुएं शासन के किसी भी निर्णय पर प्रतिक्रया देने में असमर्थ होती हैं।  प्रजा/नागरिकों के साथ सत्ता को अपने निर्णयों की प्रतिक्रया देखकर नीतियों में परिवर्तन करने की गुंजाइश रहती है।  अर्थात सत्ता के पास समय रहता है नीतियों में प्रतिक्रया के अनुसार ऊंच नीच करने का। कोरोना के सामने सभी सत्ताएं इसीलिए भी हतप्रभ हैं क्योंकि कोरोना न तो जड़ है, न ही चैतन्य।  न तो कोरोना शासन की नीतियों को जड़ की भांति स्वीकार कर रहा है, न ही वह मनुष्यों की तरह क्रिया-प्रतिक्रया के खेल में शासन को समय की गुंजाइश दे रहा है।  कोरोना उस सरपट दौड़ती हुई ट्रेन जैसी है जो पटरी पर खड़े रेल मंत्री को भी रौंदकर निकल सकती है और यदि पटरी से दूर रहें तो बुद्धिहीन मवेशी का भी बाल बांका नहीं होगा। 

बस कोरोना की इसी निरपेक्षता के चलते दुनिया भर के शासकों की घिग्घी बंध गई है क्योंकि वायरस न तो सत्ता के अधीन आ रहा है, न ही वह सत्ता को कोई प्रतिक्रया दे रहा है।  शासकों की हर विषय में राजनैतिक लाभ हानि देखकर नीति बनाने की अवसरवादिता को वायरस ने अपने समानता के सिद्धांत से धोबी पछाड़ दे रखा है।

वायरस एक वैज्ञानिक समस्या है जिसका वैज्ञानिक समाधान ही संभव है। जिन जिन शासन सत्ताओं ने इस सत्य को पहचानते हुए वायरस का राजनैतिक नहीं, अपितु विशुद्ध वैज्ञानिक समाधान निकाला, वो वायरस को अपेक्षाकृत काबू में रखे हुए हैं।  कोरिया हो या केरल या ताइवान, जिन्होंने वैज्ञानिक रणनीति अपनाई वो वायरस से बच रहे हैं -कोरिया बिना लॉकडाउन किये राष्ट्रीय चुनाव तक करवा रहा है, तो केरल ने संक्रमितों की संख्या को ५०० से घटाकर ५० से नीचे ला दिया है, और ताइवान ने अपने यहां स्टेडियम में बेसबाल शुरू करवा दी है ।  दूसरी तरफ गुजरात हो या इंग्लैंड या फिर अमेरिका, जिसने भी बड़बोलापन, राजनैतिक बयानबाजी, दोष दर्शन, अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की जिद्द की तो वायरस का भयंकरतम तांडव भी उन्हीं को झेलना पड़ रहा है।
                 
 ९) कोरोना से छुटकारा : 
कोरोना से तीन ही स्थाई निदान संभव हैं।  पहला है टीका जिसपर दुनियाभर के सैकड़ों प्रयोगशालाओं में शोध चल रहा है जिसमें चीन, अमरीका तथा ब्रिटेन के पांच दस संस्थानों ने मानव प्रयोग तक प्रारम्भ कर दिए हैं।  प्रभावी एवं व्यापक उपयोगजन्य टीका बनाने में १८ महीनों तक लग सकते हैं क्योंकि टीके की प्रभाव अवधि प्रमाणित होना सबसे जरूरी बिंदु होता है।  कोरोना का टीका शायद जल्दी बन जाय क्योंकि दुनियाभर के वैज्ञानिक इसमें लगे पड़े हैं।  दूसरा निदान है प्रभावी दवा।  रेमडिसिविर नाम की दवा रोगियों पर अच्छा प्रभाव डाल रही है इसीलिए इसके व्यापक उपयोग, साइड इफेक्ट्स आदि पर शोध जारी है।कोरोना से तीसरा निदान यह है की २००२ में आये सार्स वायरस की तरह कोरोना वायरस भी कुछ महीनों में स्वयं विलुप्त हो जाय।  विश्व में करोड़ों प्रजाति के वायरस हैं तथा मानवता केवल कुछ सौ वायरसों के बारे में ही जान पाई है।  अतः वायरस के स्वतः विलुप्त होने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता।  

जब तक उपरोक्त तीन निदान में से कोई एक भी उपलब्ध नहीं होता तब तक समूची मानवता के सामने एकमात्र विकल्प है कोरोना से बच के रहना।  और कोरोना से बचने का सबसे कारगर उपाय है कोरोना को वैज्ञानिक दृष्टि से समझना तथा इससे बचने के विश्वस्तरीय ताजातरीन उपायों का  तुरंत अपनाया जाना. 

  १०) कोरोना मैनेजमेंट :
विश्वभर में फैले कोरोना और उससे बचने के सबसे कारगर उपायों से कुछ चीजें स्पष्ट हो चुकी हैं ; 
१. कोरोना की संक्रमण क्षमता १:२ है, अर्थात हर संक्रमित व्यक्ति दो नए लोगों को संक्रमित करता है। 
२. चहरे को नकाब या मास्क से ढकने पर, व्यक्तिगत शारीरिक दूरी बनाये रखने से, तथा साबुन से हाथ धोते रहने से कोरोना संक्रमण की संभावना को ९०% घटाया जा सकता है। 
३. बंद वातावरण एवं दीर्घ संसर्ग के कारण ही ९०% नए संक्रमण हो रहे हैं। 
४. जो भी प्रशासन वायरस को खोजने में आक्रामक टेस्ट+ट्रेस+आइसोलेट की नीति अपनाता है, वहां संक्रमण शनै शनैः काम होता जाता है। 

 टेस्ट अर्थात अधिकतम जनता का शीघ्रातिशीघ्र कोरोना जांच। चूंकि कोरोना जांच किटों  का उत्पादन हाल ही में शुरू हुआ है, तो जब तक प्रचुर मात्रा में टेस्ट किट उपलब्ध नहीं हो जाते, तब तक हर भौगोलिक क्षेत्र के प्रशासन को धीरे धीरे प्रभावित क्षेत्र/आबादी में टेस्ट बढ़ाते जाना चाहिए।  इसमें क्रिकेट में लक्ष्य का पीछा करने वाली टीम का ही नियम लागू होता है की प्रति ओवर आवश्यक रन गति से किसी भी सूरत में बहुत पीछे न रहे जिससे की अंतिम ओवरों में प्रति ओवर असंभव रन बनाने की नौबत आ जाय।  कोरोना टेस्टिंग के मामले में यह अनुपात २% का है। प्रति सौ टेस्ट, कोरोना पाज़ीटिव की संख्या २% से यदि नीचे है, तथा प्रशासन दैनिक टेस्टों की संख्या भी संक्रमण बढ़ने की औसत से बढ़ा रहा हो तो संक्रमण नियंत्रण में माना जा सकता है। वर्तमान में केरल, कर्नाटक, आदि रोज टेस्ट बढ़ा भी रहे है, तथा पाजिटिव संख्या २/१०० से नीचे भी है, जिससे की यह माना जा रहा की यहां संक्रमण काबू में है।  महाराष्ट्र, दिल्ली आदि हालांकि रोज टेस्ट बढ़ा रहे हैं पर वहां पाजिटिव की संख्या ४/१०० से अधिक होने के चलते इन राज्यों में संक्रमण बेतरतीब बढ़त लिए हुए है।  गुजरात, बंगाल आदि में हालांकि पॉजिटिव की संख्या २/१०० से कम है, पर चूंकि यहां टेस्ट ही कम हो रहे है, इसीलिए निकट भविष्य में यहां अचानक बहुत बड़ा संक्रमण फूटने की संभावना बलवती है। 

ट्रेस माने हर एक संक्रमित रोगी के संपर्क एवं संभावित संपर्क में आये हुए लोगों की जल्द शिनाख्त एवं आइसोलेट यानी उनके एकांतवास की व्यवस्था। संक्रमण से फैलने वाले रोगों में प्रशासन जितनी जल्द संभावित संक्रमितों को अलग कर उनके एकांतवास की व्यवस्था कर देता है, आगे आने वाली संक्रमण की कड़ी उतनी जल्दी टूट जाती है।  इस अभियान में प्रशासन को पुलिस, सरकारी नौकर, स्थानीय निकायों के कर्मचारी आदि की सेना को प्रशिक्षित कर तैयार रखना होता है जो क्षेत्र में हर नए संक्रमित से संपर्क स्थापित करे, उससे गहन पूछताछ कर उसके संपर्क में आये लोग चाहे वो जो हों. जहां हों, उनकी शिनाख्त कर उन्हें दो हफ्ते तक क्वारंटाइन में रख दे और तय काल बीतने के बाद उनकी जांच कर असंक्रमित पाने पर ही उन्हें एकांतवास से मुक्ति दे। क्वारंटाइन के मामले में उदाहरणार्थ केरल या कोरिया प्रति संक्रमित व्यक्ति ५०० से अधिक संपर्कित लोगों का क्वारंटाइन कर रहा है जबकि कर्नाटक केवल १०० का और गुजरात, उत्तर प्रदेश, ब्रिटेन या अमेरिका तो अपने अधीन क्वारंटाइन संख्या का ब्योरा देने में ही पूरी तरह विफल है। 

तो सारांश ये की जो भी राष्ट्र, राज्य, जिला, नगर, गाँव या मोहल्ले के प्रशासन ने  टेस्ट+ट्रेस+आइसोलेट पर पूरा जोर देकर अपने सारे मानव एवं भौतिक संसाधन टीटीआई पर झोंक दिए, वहां वहां कोरोना काबू में आ जाता है।  जिन्होंने भी टीटीआई का अभी तक महत्त्व नहीं समझा उन्हें इस अभियान में अपना समूचा तंत्र तुरंत लगा देना चाहिए।  
               
११) कोरोनोत्तर भारत :
 लॉकडाउन ३.० भी अब समाप्ति की ओर है।  २१ मार्च को जनता कर्फ्यू के दिन जब भारत में कुल २५० कोरोना केस थे उस दिन जिस सरकार ने कोरोना के खिलाफ युद्ध की घोषणा की थी वही सरकार १२ मई को ४००० केस प्रतिदिन जब हैं, तब कोरोना के साथ जीने की नसीहत दे रही है। मार्च में सामान्य चल रहे जिस देश को एक वायरस ने ठिठका कर रोक दिया, मई आते आते उसी वायरस से निजात पाए बगैर ही हम विश्वगुरु बनने के सपने बुन रहे हैं. बिना वायरस से पिंड छुड़ाए स्थिति कैसे सामान्य होगी इस विरोधाभासी यक्ष प्रश्न के जवाब में आत्मनिर्भरता के नारे ने १३० करोड़ लोगों को सकते में भले डाल रखा हो, पर इस का मतलब स्पष्ट है।  कोरोना के सामने शासन ने सरेंडर कर दिया है और जनता को कोरोना से अब स्वयं लड़ना है।  

इस लड़ाई में सफलता तभी मिलेगी, हम सब ज़िंदा तभी बचेंगे जब हम प्रशासनिक दृष्टि से भारत को एक राष्ट्र के स्थान पर छोटी छोटी इकाइयों के रूप में देखना शुरू करें। विकेन्द्रित व्यवस्था में हर इकाई अपने आप में स्वायत्त और अपने कार्यक्षेत्र के विषयों में निर्णय लेने हेतु संप्रभु होती है।  १२ मार्च २०२० को लागू महामारी क़ानून १८९७ के अनुरूप यदि भारतीय शासन व्यवस्था स्थानीय इकाइयों को कोरोना से लड़ने की सम्पूर्ण स्वायत्तता दे दे, और स्वयं केवल विश्वस्तरीय कोरोना सम्बन्धी जानकारियों को नागरिकों को तुरंत व्यापक रूप से देने भर का काम और बीमार लोगों के स्तरीय इलाज की व्यवस्था भर कर दे तो भारत वर्षाऋतु के अंत तक कोरोना के मामलों में बहुत हद तक कमी ला सकता है।  

क्योंकि लब्बोलुआब बस इतना ही है की कोरोना से बचने के लिए नागरिकों को तीन और सरकारों को तीन काम ही करने हैं।  नागरिकों को साबुन से हाथ धोना, शारीरिक दूरी बनाये रखना और मास्क लगाना है और सरकारों को केवल टीटीआई यानी टेस्ट+ट्रेस+आइसोलेट सुनिश्चित करना है।  

हालिया हिन्दुस्तान, एक्ट ग्लोबल थिंक लोकल के रोग से ग्रसित रहा है  -एक तरफ तो दुनिया में नाम कमाने की ज्वलंत पिपासा दिखती है, तो  वहीँ पर आपस में छोटी-छोटी ओछी जाति-धर्म जैसी बातों में प्रवृत्त होने की भयंकर लत भी ।  पर कोरोना ने आकर, पर्यावरण को संवारकर, जीव जंतुओं में नई ऊर्जा भरकर भारत समेत समूची मानवता को प्रतियोगिता मॉडल के बदले सहयोगिता मॉडल की जरूरत को अपनाने की सख्त हिदायत दी है। 
  


कोरोना हमें बस यही सन्देश दे रहा है -थिंक ग्लोबल बट एक्ट लोकल।  ऑलवेज !

Karpuri Thakur

  भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर  का कर्नाटक कनेक्शन (Click here for Kannada Book Details)        कर्पूरी ठाकुर कम से कम दो बार बैंगलोर आये। एक बार...