Thursday, April 23, 2015

Delhi Suicide : Who is responsible


दिल्ली किसान आत्महत्या  ---- 

जिम्मेदार कौन ? ​

     दिल्ली के एक राजनीतिक सार्वजनिक कार्यक्रम में एक व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली  । प्रश्न  उठ रहा है की इसका जिम्मेदार कौन ? वहां पर तो हजारों लोग थे । केवल तीन-चार लोगों ने पेड़ पर चढ़कर उसे नीचे  उतारने का काम किया । क्या इसका यह अर्थ लगाया जाय की बाक़ी हजारों लोग असंवेदनशील थे ? यह घटना इतनी बड़ी बन गयी है की  बड़े बड़े राजनेता भी कह रहे हैं की समाज को आत्ममंथन की जरूरत है । 

     यदि मैं अस्पताल में किसी को देखने गया हूँ, और वहां किसी बीमार को इलाज नहीं मिल रहा हो तो क्या मैं खुद उसका इलाज वहां शुरू कर दूंगा ? या अस्पताल के स्टाफ को डांट-फटकार के उस मरीज को त्वरित इलाज मुहैया करवाने की कोशिश करूंगा ? जाहिर सा उत्तर है की किसी अधिकृत इकाई की उपस्थिति में उसका काम दूसरी इकाई नहीं करती । किसी अग्निकांड में अग्निशामक दल के रहते  आग बुझाने का काम लोग नहीं करते ।   

     मीडिया में चल रही लगातार बहस के दौरान भी भारत के बुद्धिजीवी कुछ बेतुकी  बातें करते दिख रहे हैं । टीवी एंकरों, राजनेताओं की मानें तो पूरा समाज दोषी है, और बुद्धिजीवियों की माने तो हर दोषी को सजा  होनी चाहिए । इन दोनों की राय लागू हो जाय तो भारत से मनुष्य प्रजाति डायनोसार के सामान लुप्त हो जायेगी । आश्चर्य है की भारत के जिम्मेदार लोग यह भी नहीं जानते की समाज में अपराधियों की संख्या 2% से भी कम होती है, तथा ऐसे अपराधी तत्वों से शेष 98% सज्जनों को सुरक्षा प्रदान करने हेतु ही पुलिस होती है । राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्‍यूरो के वर्ष 2011 के आंकड़े बताते हैं की भारत में कुल संज्ञेय अपराधों की संख्या 2325575 है । तो दो प्रतिशत विकृत लोगों के कृत्यों की जिम्मेदारी शेष 98​ पर डालना कहाँ की समझदारी है ? यह तो चर्चा हुई समस्या की । अब देखें की भारत के ये मूर्धन्य इसका समाधान क्या बता रहे हैं । 

     ऐसे समय में राजनीतिक दलों से लेकर टीवी पर सभी किसी न किसी के सर ठीकरा फोड़ते दिख रहे है । मैं भी असाधारण कृत्यों हेतु कड़ी सजा का पक्षधर हूँ । पर सच्चाई यह है सुरक्षा और न्याय भिन्न-भिन्न विषय हैं । जब किसी व्यक्ति के साथ अन्याय घटित हो जाता है तब न्यायालय उस व्यक्ति को उसके मूल अधिकारों के हनन के नैतिक एवज में 'मुआवजे' के रूप में न्याय देता है । कानूनों को कडा करने से न्यायालयों को ऐसे 'मुआवजे' दने में अधिक सुविधा तो अवश्य होगी, पर ऐसी घटनाएं रोकने का काम न्यायालय नहीं कर सकते । 

     किसी व्यक्ति के मूल अधिकारों के हनन को रोकने का काम तो सुरक्षा एजेंसियों का है । भारत में उस एजेंसी को पुलिस कहते है । 

     भारत के कर्णधारों को दुनिया के अन्य लोकतन्त्रों में ऐसी ही समस्या का क्या समाधान खोजा गया, इसका अध्ययन करने की फुर्सत निकालनी चाहिए । 1990 के दशक में यूरोप एवं अमरीका के अपराध दर सार्वत्रिक रूप से घटे, चाहे वह भौगोलिक दृष्टि से हो, आर्थिक सम्पन्नता की दृष्टि से हो, या शैक्षणिक योग्यता की दृष्टि से । इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह प्रकट हुआ की इस घटती अपराध दर में बुद्धिजीवियों द्वारा बहुप्रचलित सिद्धांत, जैसे 'पुलिस सुधार', 'फांसी की सजा', 'कड़े क़ानून', 'जनसंख्या नियंत्रण', 'शिक्षा', 'संस्कृति' आदि का कोई स्थान नहीं था । घटती अपराध दर का एकमात्र ठोस कारण था पुलिस स्टाफ की संख्या में इजाफा । यहाँ तक की बढे हुए पुलिस दल की गुणवता भी अप्रासंगिक रही । केवलमात्र पुलिसवालों की संख्या की बढ़ोतरी से दो महाद्वीपों में अपराध दर में ठोस गिरावट देखी गयी है । 

     भारत में भी लोकस्वराज मंच जैसे सामान्य नागरिकों के सामाजिक सरोकार वाले समूह वर्षों से यही समाधान देते आये है की क़ानून से चरित्र न कभी बना है न बनेगा, यह सच्चाई राजनेताओं एवं बुद्धिजीवियों को समझनी चाहिए । यदि वे न समझें तो आम आदमी उन्हें समझाए । अपराध से समाज की सुरक्षा पुलिस का दायित्व है, अन्य किसी से यह संभव नहीं, यह बात आम आदमी को समझनी पड़ेगी । 

भारत में पुलिस की स्थिति यह है की प्रति एक लाख आम आदमी पर 137 पुलिसवाले तैनात हैं, वहीं महज 13000 वीआइपी की सुरक्षा में 45000 पुलिसवाले नियुक्त हैं । और सरकारी सूत्रों के अनुसार 22% पुलिस पद रिक्त हैं । इसी कारण राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्‍यूरो के अनुसार वर्ष 2003 में भारत में कुल अपराध जहां 17 लाख से कम थे, वहीँ वे 2011 में 23 लाख से ऊपर पहुँच गए । यानी केवल 8 साल में 1/3 से अधिक की खतरनाक वृद्धि । 

     सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है की यदि चरित्र निर्माण ही सारी समस्याओं का समाधान है तो इतनी भारी-भरकम राज्य व्यवस्था की आवश्यकता ही क्या है ? क्यों न सभी सरकारी महकमों को बंद कर सकल घरेलू उत्पाद को चरित्र निर्माण में झोंक दिया जाय ! समय आ गया है की हम भारत के लोग अपने स्वतन्त्र चिंतन से कुछ नतीजों पर पहुंचें, क्योंकि रोगी को समय से दवा न मिलने से जितना खतरा होता है, उससे कहीं ज्यादा खतरा गलत दवा के सेवन से होता है । 

     ​सुरक्षा और न्याय के अतिरिक्त सारे काम राज्य स्वेच्छा से समाज को सौंप दे और अपनी सारी शक्ति समाज को सुरक्षा और न्याय प्रदान करने में लगाए यही व्यवस्था परिवर्तन है, जो भारत की समस्याओं का सही समाधान है ।

Karpuri Thakur

  भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर  का कर्नाटक कनेक्शन (Click here for Kannada Book Details)        कर्पूरी ठाकुर कम से कम दो बार बैंगलोर आये। एक बार...