Wednesday, October 9, 2019

LS 2019 : Begusarai

बेबाक बेगूसराय से 
सिद्धार्थ शर्मा\
14 Apr, 2019

https://www.satyahindi.com/states/kanhaiya-kumar-begusarai-giriraj-singh-102124.html


ख़म ठोक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड़,
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है !!

बेगूसराय! बुद्ध, महावीर की विहारस्थली, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की धरती, गंगा की कृपा से भारत की सबसे उर्वरा भूमि में से एक है। स्वतन्त्र भारत के शुरुआती दौर के औद्योगीकरण का प्रयोग क्षेत्र, वर्षा ऋतु में महीनों तक बाढ़ में डूबे दुनिया से कटे दियारे, बड़े-बड़े जमींदारों से लेकर भूमिहीन खेतिहर मजदूरों का हुजूम, इंटरनेशनल स्कूल चलानेवाले धनाढ्यों से लेकर औद्योगिक कचरा उठाने वाले जीविकोपार्जियों का जमघट भी बेगूसराय ही है। गर्म मिजाज, कुटीर शस्त्र उद्योग में कुख्यात, सामंतवाद का गढ़, दबंगई, रंगदारी - यह सब मिलकर बेगूसराय है और यह असली भारत का जीवंत प्रतीक है।

इस लोकसभा चुनाव में भारत भर की नज़रें बेगूसराय पर हैं। क्योंकि बेगूसराय का चुनाव पिछले 5 साल के बीजेपी के ‘राष्ट्रद्रोही बनाम राष्ट्रप्रेमी’ के बाइनरी की जनस्वीकृति का बैरोमीटर बनेगा। एक तरफ़ कन्हैया कुमार हैं, जिनपर मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के प्रारम्भ में ही देशद्रोही का लेबल चस्पा कर दिया था तो दूसरी ओर बीजेपी की उग्रता के जीवंत प्रतीक गिरिराज सिंह हैं, जो बीजेपी की विचारधारा से सहमति नहीं रखने वाले हर व्यक्ति को पाकिस्तान भेजने के टिकट एजेंट का प्रतिरूप बन चुके हैं। इस खौलती कड़ाही को क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय जनता दल भी अपनी भरसक ऊष्मा दे रहा है।

बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र में एक ओर जहाँ सघन जनसंख्या वाला बेगूसराय शहर आता है तो दूसरी ओर औद्योगिक नगर बरौनी भी आता है। इसके अलावा बिना सड़क, बिजली, शौचालय के शाम्हो अकबरपुर बरारी के कई देहात वाले इलाक़े भी आते हैं। स्वतन्त्र भारत के प्रांरभिक दौर में ही बेगूसराय को औद्योगिक क्षेत्र के रूप में विकसित किया गया।  बरौनी में रिफ़ाइनरी, फ़र्टिलाइजर, थर्मल पावर, डेयरी आदि के बड़े-बड़े उपक्रम बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के प्रयासों से स्थापित हुए जिसके चलते बेगूसराय बिहार की औद्योगिक राजधानी बन गया।

आज भी बेगूसराय में 4000 से अधिक औद्योगिक इकाईयाँ चल रही हैं। दूसरी तरफ़ माँ गंगा की अनुकम्पा से बेगूसराय में खेती भी बम्पर होती है। यहाँ की 45 क्विटंल प्रति हेक्टेयर गेहूँ की उपज पंजाब की उपज के टक्कर की है।  लेकिन सच्चाई यह भी है कि सरकारी ख़रीद की लचर व्यवस्था के चलते, 2000 रुपये प्रति क्विंटल सरकारी समर्थन मूल्य के बावजूद किसान 1600 रुपये पर इसे दलालों को बेचने को मजबूर हैं, क्योंकि उनके पास बम्पर फ़सल को भंडारण करने का इतना विशाल गोदाम नहीं होता।

बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र में क़रीब 17 लाख मतदाता हैं, जो 7 विधानसभा क्षेत्रों में फैले हुए हैं। कुल 250 पंचायतों में क़रीब 1200 गाँव-देहात भी आते हैं। यहाँ साक्षरता की दर 60 फ़ीसदी से नीचे है और औसत मतदान 60 फ़ीसदी होता है।
बेगूसराय भारत के घोषित पिछड़े जिलों में से एक है। यहाँ पुरुष-महिला अनुपात 875 है और प्रति व्यक्ति आय 18000 रुपये है, जो कि बिहार के 13000 रुपये से अधिक है।

बेगूसराय के कुल सात विधानसभा क्षेत्रों में दो सीट कांग्रेस, दो जेडीयू तथा 3 आरजेडी के पास हैं। 2015 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को यहाँ 20 फ़ीसदी, जेडीयू को 15 फ़ीसदी, कांग्रेस को 14 फ़ीसदी, आरजेडी को 20 फ़ीसदी, एलजेपी को 10 फ़ीसदी तथा सीपीआई को 10 फ़ीसदी मत मिले थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी+जेडीयू को 40 फ़ीसदी, आरजेडी को 35 फ़ीसदी, सीपीआई को 18 फ़ीसदी मत मिले थे। ध्यान रहे कि भारी औद्योगिकीकरण एवं स्थापित सामंतवाद के कारण बेगूसराय पारम्परिक रूप से सीपीआई का ठोस वोटबैंक रहा है तथा उसे 2009 के लोकसभा चुनावों में 33 फ़ीसदी वोट भी प्राप्त हुए थे।  बेगूसराय को ऐसे ही लिटिल मॉस्को या लेनिनग्राद ऑफ़ इंडिया की संज्ञा नहीं प्राप्त हुई है।

जातीय समीकरण की दृष्टि से देखें तो बेगूसराय में सबसे अधिक मिश्रित दलित समुदाय 25 फ़ीसदी, फिर भूमिहार 21 फ़ीसदी, यादव 14 फ़ीसदी, मुसलिम 13 फ़ीसदी, सवर्ण 11 फ़ीसदी, कुशवाहा 6 फ़ीसदी और 3 फ़ीसदी निषाद मतदाता हैं। पारम्परिक तौर पर यादव+मुसलिम मत आरजेडी के खेमे में जाते हैं, दलित मत सीपीआई को तथा भूमिहार+अन्य सवर्ण मत कांग्रेस+बीजेपी में बंटता है। भूमिहार समाज संख्या में भी, प्रभाव में भी तथा दबंगई में भी आगे होने की दृष्टि से जीत में निर्णायक सिद्ध होता है। सीपीआई ने स्थानीय युवा भूमिहार कन्हैया कुमार को चुनाव से बहुत पहले ही अपना प्रत्याशी बनाकर चुनावी समीकरण में प्रारम्भिक बढ़त हासिल कर ली थी।

 2018 के उत्तरार्ध से ही सीपीआई के कैडर ने प्रतिदिन कन्हैया कुमार की गाँव-गाँव में जनसभाएँ आयोजित करनी शुरू कर दी थीं, जिसमें कन्हैया का काफ़िला दोपहर से ही उस गाँव के प्रभावशाली व्यक्ति के दालान पर गोष्ठियाँ भी करता था, भोजन आदि भी करता था और स्थानीय लोगों से संवाद भी करता था। शाम को उसी गाँव में जनसभा भी होती थी जिसमें सीपीआई का कैडर बढ़-चढ़कर मज़दूर, दलित, पिछड़ों की भीड़ भी इकट्ठा करता था जिसे कन्हैया अपनी प्रभावशाली ग्रामीण बोली में सम्बोधित करते रहे।

कन्हैया का डोर-टू-डोर का यह सिलसिला कमोबेश 6 महीनों तक चलता रहा जिसके चलते गाँव-देहात में बीजेपी द्वारा प्रचारित उनकी राष्ट्रद्रोही वाली छवि काफ़ी हद तक कुंद पड़ गई। स्थानीय तथा स्वजातीय होने की सहानुभूति भी कन्हैया को भरपूर मिली क्योंकि कन्हैया की नेगेटिव छवि के प्रचार के अलावा बीजेपी अपनी तरफ़ से कोई और प्रचार उनके ख़िलाफ़ नहीं कर पाई।

ग़ौरतलब है कि बेगूसराय की 7 विधानसभा सीटों में से एक भी बीजेपी के पास नहीं है। जो 2 जेडीयू के खाते में है, वह भी 2015 में बीजेपी विरोधी गठबंधन के नाते मिली हैं। इस पूरी कवायद में कन्हैया कुमार को क्षेत्र में स्वीकृति भी मिली, धूमिल छवि को नई चमक भी। इस पूरे दौर में आरजेडी पूरी तरह से शांत रहा जिससे मुसलिम+यादव बहुल क्षेत्रों में भी कन्हैया के अनुमोदन सूचकांक में वृद्धि ही हुई।
कांग्रेस के पूर्णतः नेपथ्य में चले जाने से कन्हैया के प्रचार में और अधिक वृद्धि हुई। वर्तमान ज़मीनी रुझान में बछवाड़ा, तेघरा तथा मटिहानी विधानसभा क्षेत्रों में कन्हैया कुमार बढ़त लिए हुए दिख रहे हैं।

चेरिया बरियारपुर, बेगूसराय, साहेबपुर कमाल तथा बखरी क्षेत्रों में कांटे का त्रिकोणीय संघर्ष जारी है। फिर भी इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि क्षेत्र में 2015 तक बीजेपी+जेडीयू+एलजेपी का भी 35 फ़ीसदी+ वोटबैंक ठोस रूप से मौजूद रहा है। आरजेडी का भी 20 फ़ीसदी सशक्त वोटबैंक 2015 में रहा है। इन चुनावों में ये दोनों मैदान में हैं, जो कन्हैया कुमार की बढ़ती लोकप्रियता को वोट में तब्दील होने से रोकने की पूरी क्षमता रखते हैं।
जातीयता, साम्प्रदायिकता, राष्ट्रीयता, ग़रीबी, बेरोज़गारी, किसान व्यथा आदि मुद्दों के बीच कौन जीतकर निकलेगा, यह बेगूसराय के लिए ही नहीं पूरे भारत के वैचारिक विमर्श का दिशा सूचक होगा। क्या कांग्रेस की अनुपस्थिति में कांग्रेस का वोटर कन्हैया की तरफ़ जाएगा?

क्या एक-चौथाई भूमिहार कन्हैया को स्वजातीय एवं स्वक्षेत्रीय मानकर उसकी तरफ़ झुकेंगे? क्या सीपीआई के क़रीब 3 लाख दलित वोट एकमुश्त कन्हैया के पक्ष में पड़ेंगे? क्या 50 हज़ार यादव युवा जात-पात से ऊपर उठकर कन्हैया में अपनी छवि देखेंगे? क्या दो-तिहाई मुसलमान अपना पारम्परिक वोट आरजेडी के खे़मे से कन्हैया के खे़मे में ट्रांसफ़र करेंगे? क्या पढ़ा-लिखा युवा वर्ग कन्हैया के शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के विचारों को सहमति प्रदान करेगा? या बाहरी भूमिहार गिरिराज सिंह हर-हर मोदी के गीत गाते हुए गंगा पार करेंगे?
बेगूसराय का चुनाव सक्षिप्त में ऐसा होगा -
टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फन शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
बेगूसराय! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृंगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आख़िर कोई भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।



LS 2019 : Predicted correctly

2019 : सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बनाम जातीय समीकरण का चुनाव   
सिद्धार्थ शर्मा
20 May, 2019

 https://www.satyahindi.com/lok-sabha-election-2019/2019-loksabha-election-bjp-congress-102645.html


लोकसभा चुनाव के सभी चरण समाप्त हो गए हैं और अब नतीजों का इंतजार है। इस चुनाव में बीजेपी स्पष्ट रूप से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को राष्ट्रीयता का जामा पहना कर मैदान में उतरी तथा विपक्ष स्पष्ट रूप से जातीय समीकरण को संघीय व्यवस्था का मुखौटा पहनाकर। औसत भारतीय क्योंकि सज्जन तथा मासूम होता है, तो मतदान या तो राष्ट्रवाद अर्थात अधिक केन्द्रीकरण के पक्ष में हुआ या संघीय ढाँचा अर्थात अधिक विकेन्द्रीकरण के पक्ष में। बीजेपी ने भारतीयता का हवाला दिया तो विपक्ष ने क्षेत्रीयता का। सनद रहे कि हर नागरिक भारतीय होने के साथ-साथ समानांतर रूप से क्षेत्रीय भी होता है, क्योंकि वह भारत में भी रहता है, तथा किसी क्षेत्र में भी। भावनात्मक राष्ट्रवाद बनाम व्यावहारिक क्षेत्रवाद की बाइनरी में लोकमत का रुझान दोनों में से किसी भी ओर निर्णायक रूप से  झुकने की पूरी संभावना रहती है।
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भारतीय संविधान में राष्ट्र शब्द नदारद है तथा प्रथम अनुच्छेद में ही भारत को राज्यों का संघ बताया गया है, तथा 73वें संशोधन के बाद पंचायत राज कानून बना है, पर असलियत यह है कि छोटी स्थानीय इकाइयों को अधिकार देने या न देने का विशेषाधिकार विधानसभाओं के पास होने के चलते पंचायत राज की इकाइयाँ जनता की नहीं बल्कि सरकार की ही एजेंट बनने को बाध्य हैं।

कुल मिलाकर यह निर्विवाद है कि भारतीय लोकतंत्र में "लोक" को पांच साल में एक बार वोट के माध्यम से अपने अधिकार किसी प्रतिनिधि को देने के अलावा सत्ता में कोई और सहभागिता नहीं है। इस केन्द्रीकरण के चलते, भारत की विशालता के चलते, अनंत कार्यों को पूरा करने की संवैधानिक ज़िम्मेदारी के चलते, सरकारें अत्यधिक ओवरलोड हो जाती हैं तथा नतीजतन अव्यवस्था आ जाती है। अव्यवस्था आते ही लोकमानस में अनुशासन की चाह बढ़ने लगती है, क्योंकि अनुशासित माहौल में अव्यवस्था कम होती है। 
दूसरी तरफ़, सत्ता में आने के लिए लोकसभा में साधारण बहुमत भर सीटों का नियम तय किया गया है। चुनाव जीतने के लिए तो और सरल नियम हैं जो ख़ुद जीतने से अधिक दूसरों की हार में अपनी जीत सुनिश्चित करने भर की कवायद है।


आचार्य विनोबा भावे की भाषा में कुल मिलाकर चुनाव अर्थात संख्यासुर का पैदा होना है, 49=0 तथा 51=100 होना। ऐसी स्थिति में स्पष्ट है कि सभी राजनीतिक दल अपने अपने वोटबैंक बनाने की जुगत भर करेंगे। भारत में भी आजादी के पहले पचास वर्षों तक राजनीतिक दलों ने यही किया। इस कारण कुछ राजनीतिक दलों को लाभ यह हुआ कि उनके ठोस वोट बैंक तो बन गए मगर हानि यह हुई कि लोकहित से अधिक लोकप्रिय काम करने की मजबूरी भी आयी।

उदाहरण के लिए, भारत संभवतः विश्व का एकमात्र लोकतांत्रिक देश है, जहाँ सामान नागरिक संहिता नहीं है। पिछले 70 वर्षों में भारत में वामपंथी, दक्षिणपंथी, मध्यममार्गी, सभी तरह की सरकारें आयीं मगर समान नागरिक संहिता को किसी ने लागू नहीं किया। क्योंकि समान नागरिक संहिता आने से हर वर्ग के कुछ विशेषाधिकार कम होंगे और हर नागरिक में अधिक समानता आएगी।  समान नागरिक संहिता आएगी तो हिन्दू कोड बिल की अनुपस्थिति में संपत्ति के विभाजन में पुरुषों की प्रधानता भी समाप्त होगी और मुसलिम पर्सनल लॉ के बग़ैर महिलाओं को समान अधिकार भी मिलेंगे। ऐसी कई विसंगतियों के चलते भारतीय समाज में जो अव्यवस्था आई उसे भुनाने हेतु नए राजनीतिक दल का उभरना स्वाभाविक ही था। 

बीजेपी का उदय इसी परिस्थिति में हुआ जब भारतीय समाज अपने ढाई हजार वर्ष प्राचीन वैशाली गणराज्यों की विकेन्द्रित व्यवस्था, जिसमें व्यक्ति, परिवार, गाँव, क्षेत्र, राज्य, राष्ट्र, विश्व आदि की सप्त स्तरीय व्ययस्था, जिसमें हर इकाई को इकाईगत विषयों में निर्णय की पूर्ण स्वतंत्रता थी, उसे तिलांजलि देकर राष्ट्र राज्य व्यक्ति नामक ढाई इकाई की नई व्यवस्था आज़ाद भारत ने अपनाई। बीजेपी की विचारधारा ही क्योंकि एकराष्ट्र-एकरूप पर आधारित है, सत्ता के केन्द्रीकरण की वकालत करती है, तो स्वाभाविक ही था कि बीजेपी के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़े। इसीलिए 90 के दशक के बाद से बीजेपी की लोकप्रियता धीरे-धीरे ही सही, बढ़ती ही रही है, क्योंकि अव्यवस्था से परेशान लोग अनुशासन चाहते हैं भले ही वह छद्म तानाशाही ही क्यों न हो। यह स्थिति केवल भारत की नहीं अपितु आसपास के श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, ईरान, नेपाल, चीन, बर्मा आदि पर भी अक्षरश: सत्य है क्योंकि इन सब देशों में भी पिछले सात दशकों में तानाशाही के साथ प्रयोग हुए हैं।

डर के बिजनेस से बढ़ी लोकप्रियता
एक और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि डर का बिजनेस करना सबसे आसान काम होता है। 2001 में अमरीका में हुए आतंकवादी हमलों के कारण इस्लाम के प्रति वैश्विक जनमानस में शंका उत्पन्न हुई। आम जनता को समझाना दुस्तर दुरूह है कि भारत, इंडोनेशिया आदि का सूफ़ी इस्लाम अरब के वहाबी इस्लाम से सर्वथा भिन्न भी है और सौम्य भी, और संघ को इस्लामोफ़ोबिया के डर को भुनाने के बिजनेस में क़रीब सौ साल का अनुभव भी है। बीजेपी की लोकप्रियता के बढ़ने में डर के बिजनेस का भी बड़ा हाथ है। तो ये तो हुई सामाजिक मनोविज्ञान की बात।  परन्तु दूसरी तरफ़ समाज अर्थात मनुष्यों का समूह होता है, तथा हर मनुष्य की चेतना उत्तरोत्तर अधिकाधिक स्वतंत्रता की उत्कट चाह भी रखती है। अधिकाधिक स्वतंत्रता यानी तानाशाही के विपरीत दिशा। यानी सत्ता के विकेन्द्रीकरण की इच्छा, जो बीजेपी के मौलिक विचारों के विपरीत राह ले जाती है। इस चेतना की अभिव्यक्ति ही क्षेत्रीय दल हैं, जिनका उभार तथा लोकप्रियता भी 1990 के दशक के बाद ही बढ़ी है।

जहाँ बीजेपी अपने सत्ता के केन्द्रीकरण के सिद्धांत को राष्ट्रीयता के रूप में परोस रही है, वहीं क्षेत्रीय दल अपने विकेन्द्रीकरण के सिद्धांत को संघीय व्यवस्था के नारे द्वारा बुलंद कर रहे हैं।

धर्म और जाति को बनाया साधन
अपने-अपने साध्यों को प्राप्त करने के लिए बीजेपी ने धर्म को साधन बनाया तथा क्षेत्रीय दलों ने जाति को। क्योंकि जटिल सिद्धांतों को जनता में ग्राह्य बनाने हेतु उसका सरलीकरण करना दोनों की राजनीतिक मजबूरी भी है, तथा जनता का वोट जीतने हेतु आवश्यक भी। धर्म रक्षा के नाम पर बीजेपी लोगों में पैठ बनाती है तो उसके जवाब में स्वजातीय रक्षा के नाम पर क्षेत्रीय दलों का प्रत्युत्तर स्वाभाविक परिणति है।
 
सारांश यह है कि बीजेपी धार्मिक ध्रुवीकरण की फिराक में है तो विपक्ष जातीय समीकरण बिठाने की। दोनों ही क़वायदों से संख्यासुर ही पैदा होगा।
बेशक 23 तारीख़ को बीजेपी या विपक्ष 272 से अधिक सीट जीत जाएँगे, मगर वह भारत की कुल 130 करोड़ आबादी के चौथाई से भी कम जनता की अभिव्यक्ति होगी, सर्वमान्य नहीं होगी, सर्वसम्मत नहीं होगी, समन्वयक नहीं होगी, केवल सबसे बड़े संख्यासुर के वरदहस्त की परिचायक होगी, भविष्य में कटुता तथा वैमनस्य को बढ़ाने वाली होगी।

23 मई को पैदा होने वाला यह अनोखा संख्यासुर कैसा होगा, इसका कुतूहल हम सबको है। यदि भारत की जनता ने मनोविज्ञान के वशीभूत होकर वोट दिया है तो वह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कारण होगा, डर के बिजनेस के सफलतापूर्ण बिकने के कारण होगा, सत्ता केन्द्रीकरण अर्थात तानाशाही की तरफ झुका होगा। लेकिन यदि भारत की जनता ने मानव सुलभ चेतना से वोट दिया होगा तो वह जातीय समीकरण के आधार पर होगा, डर से भिन्न होगा, सत्ता के विकेन्द्रीकरण अर्थात स्वराज्य की तरफ़ स्पष्ट रुख होगा।

बीजेपी की सीटों की संख्या उसे 2014 के अनुपात में मिले वोट प्रतिशत पर निर्भर करेगी। यदि उसे पूर्ववत 31% वोट मिले तो इस बार साझा विपक्ष के चलते 225 सीटें, वोट प्रतिशत में 5% वृद्धि हो तो 275 सीटें और यदि 10% वृद्धि हुई तो 300 से अधिक सीटें आएँगी। लेकिन अगर वोट प्रतिशत 31% से घटकर अगर 29% हुआ तो उसे 180 सीटें,  27% हुआ तो 150 सीटें तथा 25% वोट हुआ तो 135 सीटें मिल सकती हैं। बीजेपी की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस को 2014 में 20% वोट तथा 44 सीटें आयी थीं। कांग्रेस को यदि बीजेपी के खोये हुए वोटों में से 5% वोट मिल भी गए तो उसकी अधिकतम 135सीटें आएँगी। पिछली बार की तरह 20% वोट ही आये तब भी उसे इस बार 90 सीटें आएँगी। 

वोट यदि धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर पड़े हों तो बीजेपी को 40% से अधिक मत तथा 300 से अधिक सीटें आएँगी। परन्तु यदि वोट जातीय समीकरण पर पड़े हों तो एक तरफ़ जहाँ बीजेपी को न्यूनतम 135 सीटें अथवा अधिकतम 180 सीटें आएँगी, वहीं कांग्रेस को न्यूनतम 90 या अधिकतम 135 सीटें आएँगी। दोनों ही स्थिति में क्षेत्रीय दलों का वोट प्रतिशत 45% से अधिक होगा तथा क्षेत्रीय दलों को 250 से अधिक सीटें आएँगी। ऐसी स्थिति में भले ही राष्ट्रपति जिसे भी सरकार बनाने का पहला न्योता दें, अंततोगत्वा भारत में संघीय सरकार बनेगी जिसमें सभी ग़ैर बीजेपी दल या तो उसमें सहभागी होंगे, या उसके समर्थक।

Hindi Compulsory ?

क्या डंडे के ज़ोर से हिंदी की गौरवगाथा गाई जाएगी?
सिद्धार्थ शर्मा
Jan, 2019



ख़बर है कि केंद्र सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय की 'नई शिक्षा नीति' पर बनी कस्तूरीरंगन समिति ने देश भर में कक्षा आठ तक हिंदी भाषा को अनिवार्य रूप से पढ़ाने की सिफ़ारिश की है। इस पहल को जानने के लिए इस विषय का लंबा इतिहास भी जानना ठीक होगा। भारत का प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन जब 1857 में घटित हुआ तब ब्रिटिश हुकूमत ने उस समय दक्कन के राजाओं से सेना मंगवाकर क्रांतिकारियों को हराया था। सोचने वाली बात है कि अपने ही देश के एक क्षेत्र के सिपाही ने देश के दूसरे क्षेत्र के सिपाहियों से युद्ध क्यों किया होगा?

स्वतंत्रता पूर्व अखंड भारत में हज़ार से अधिक बोलियाँ थीं। 1857 में यह स्वाभाविक ही था कि दक्षिण की 'भारतीय' सेना ने उत्तर की 'भारतीय' सेना को उस अपनत्व के नज़रिये से नहीं देखा और अंग्रेज़ों ने इसका लाभ उठा कर 90 साल से अधिक समय तक राज किया।
इस सांस्कृतिक विरोधाभास को सबसे पहले गाँधी ने आँका जब उन्होंने 1915 में अफ़्रीका से लौटकर भारत का सम्पूर्ण भ्रमण किया। उन्होंने पाया कि दक्षिण भारत में विदेशी हुकूमत से स्वतन्त्र होने की वह व्यापक सामाजिक आंदोलनात्मक उत्कंठा नहीं है, जितनी उत्तर भारत में है। हालाँकि अपने-अपने राज्य को विदेशी आक्रमण से बचाने के लिए कई रजवाड़ों ने विदेशी हुकूमतों के ख़िलाफ़ विद्रोह भी किया, जैसे गोवा के दीपाजी राणे, कर्नाटक की कित्तूर चेन्नम्मा, मैसूर के टीपू सुलतान आदि। गाँधी ने इस विसंगति को दूर करने की दृष्टि से 1918 में ही न सिर्फ़ दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना मद्रास शहर में की और अपने बेटे देवदास गाँधी को जीवनभर दक्षिण भारत में रहने का निर्देश भी दे दिया, बल्कि कांग्रेस तक की सदस्यता त्यागने वाले गाँधी अपनी अंतिम साँस तक इस संस्था के अध्यक्ष बने रहे।

यह गाँधी की न सिर्फ़ भाषाई एकरसता का प्रयास था, बल्कि सांस्कृतिक एकात्मता भी लाने की दिशा में एक पहल थी। प्रचार सभा के कार्यक्रमों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए हज़ारों प्रचारक बनाये और यह नियम भी बनाया कि प्रचारक तमिल, कन्नड़, मलयालम तथा तेलुगु भाषा के माध्यम से ही हिंदी का प्रचार करेंगे। साथ ही सभा की विभिन्न हिंदी परीक्षाओं में स्थानीय भाषा का पर्चा भी अनिवार्य किया। इन्हीं प्रचारकों की फ़ौज से आगे चलकर गाँधी को पट्टाभि सीतारामय्या जैसे हज़ारों स्वतंत्रता सैनिक भी मिले जिसके चलते 1942 भारत छोड़ो आंदोलन में दक्षिण भारत की भूमिका महत्वपूर्ण रही। गाँधी ने 24 साल के अंदर वह कारनामा कर दिखाया जिसकी कमी 1857 में महसूस हुई थी।

गाँधी की तरह संविधान सभा ने भी भारत की सांस्कृतिक विविधता को ध्यान में रखकर ही संविधान की सर्वप्रथम धारा में ही भारत को राज्यों का संघ घोषित किया, न कि एक राष्ट्र। अर्थात एक ऐसी संघीय व्यवस्था, जिसमें राज्यों का स्वतन्त्र अस्तित्व भी हो, और स्वतन्त्र अधिकार भी।
कई महत्वपूर्ण विषय, जैसे नागरिक सुरक्षा, प्रशासन, शिक्षा, राजस्व, नागरिक सुविधाएँ आदि राज्य के अधीन रखा। उल्लेखनीय है कि सरकार राष्ट्रीय सरकार न होकर केंद्रीय सरकार मानी गई है। कार्य विभाजन भी संघ सूची, राज्य सूची, समवर्ती सूची के अंतर्गत आते हैं, किसी राष्ट्रीय सूची के अंतर्गत नहीं। 

लेकिन आरएसएस की विचारधारा विविधता के सिद्धांत को नहीं मानती और एकरूपता की वकालत करती है। आरएसएस के पास इस तथ्य का कोई उत्तर नहीं है कि समूचा अरब एक धर्म, एक भाषा होते हुए भी अलग देश क्यों है? समूचा यूरोप एक धर्म होते हुए भी एक देश क्यों नहीं है? दक्षिण अमेरिका में 14 देश क्यों है, जहाँ सबके धर्म और भाषा लगभग एक समान हैं? 13 विभिन्न भाषाएँ होते हुए भी चीन एक राष्ट्र कैसे है?  और अंत में जब पाकिस्तान बांग्लादेश, दोनों ही एक ही धर्म मानते हैं तो अलग राष्ट्र क्यों हैं?

इसी संघीय व्यवस्था की माँग के अंतर्गत तेलुगु भाषी भू-भाग के स्वतन्त्र राज्य की माँग को लेकर पोट्टी श्रीरामुलु शहीद हुए थे। जिसके कारण 1953 में फ़ज़ल समिति की सिफ़ारिश को मानते हुए भाषायी आधार पर 14 राज्यों की स्थापना हुई। इसी मातृभाषा की प्राथमिकता के लिए 1940 में पेरियार रामस्वामी ने मद्रास प्रेसिडेंसी से हिंदी थोपने के विरोध में भाषाई आंदोलन किया। इस आंदोलन ने द्रमुक पार्टियों को जन्म दिया। 1980 के दशक में कर्नाटक ने भी गोकाक आंदोलन देखा जो कन्नड़ को पुनः प्राथमिकता दिलाने का प्रयास था। 

हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा
भारत की इस भाषाई अर्थात सांस्कृतिक विविधता के चलते ही 1962 में कोठारी कमीशन की सिफ़ारिश आई कि भारतीय शिक्षा नीति त्रिभाषा आधारित होनी चाहिये। इस के तहत हर बच्चा एक विश्व-भाषा (अंग्रेजी) एक मातृभाषा (स्थानीय या हिंदी ) तथा एक कोई अन्य राज्य की भाषा (हिंदी या अन्य क्षेत्रीय) पढ़े। आज भी हर दक्षिण भारतीय छात्र स्कूलों में तीन भाषाएँ पढ़ता है। जबकि उत्तर भारतीय छात्र दो ही भाषा पढ़ते हैं। सनद रहे कि भारत के संविधान की किसी धारा में कोई राष्ट्रभाषा का उल्लेख नहीं है। हिंदी भाषा को केवल राजभाषा के रूप में माना गया। धारा 351 हिंदी को परिभाषित करते हुए यह स्पष्ट कहती है कि वह भारत की समस्त सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम बनने हेतु भारत की अन्य भाषाओं को आत्मसात करेगी। ऐसे में 'नई शिक्षा' के बहाने उत्तर भारत मात्र में प्रयोग में लाई जानेवाली हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में थोपने की कवायद देश भर में मधुमक्खी के अनगिनत छत्तों पर एक साथ पत्थर मारने की मूर्खता है जो भारत की संघीय व्यवस्था के मूल तानेबाने को तार-तार कर देगी। इसका मुखर विरोध राज्य पहले भी कर चुके हैं।

भाषा एक संस्कृति
बीजेपी को यह समझना होगा कि भाषा कोई लिपि या बोली न होकर एक संस्कृति होती है। दक्षिण या पूर्वोत्तर भारत की अपनी विशिष्ट गौरवशाली संस्कृति एवं भाषाओं का इतिहास प्राग्वैदिक काल से ही चला आ रहा है। तमिल के पास अगर हिंदी से कई गुना प्राचीन 2500 वर्षों का इतिहास रहा है तो कन्नड़ इतनी समृद्ध भाषा है जिसमें वस्तुओं के लिए नपुंसक लिंग तक का प्रयोग होता है। हिंदी में तो एक पत्थर गिरता है पुल्लिंग में तो उसी पत्थर की दीवार गिरते-गिरते स्त्रीलिंग हो जाती है। ऐसे में बीजेपी की नई शिक्षा नीति के बहाने हिंदी को स्कूली पाठ्यक्रम में अनिवार्य करना उसकी भारतीय संस्कृति की प्राचीन विविधता पर जबरन एकरूपता थोपने का ख़तरनाक प्रयास है। जिसका मूल उद्देश्य है संघीय व्यवस्था को तोड़कर तानाशाही एकरूपता लाना।

बीजेपी यदि सांस्कृतिक गौरव के बारे में ईमानदार है तो उसे गाँधी के हिंदी एवं देशप्रेम से सीखना चाहिए की कैसे भारत हिंदी प्रचार सभा आज 2019 में भी सम्पूर्ण दक्षिण भारत में सालाना पाँच लाख से अधिक विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाती है। लेकिन डंडे के ज़ोर से नहीं। भाषा नोट जैसी कोई मूर्त वस्तु नहीं है कि रातोंरात नोटबंदी कर दी जाए, भाषा हर समाज की गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत होती है जिसे किसी भी तरीक़े से क़ानून के माध्यम से नहीं थोपा जा सकता।

Why RSS fears Gandhi

आरएसएस आज भी महात्मा गाँधी से थर्राता क्यों है?
सिद्धार्थ शर्मा
31 Jan, 2019


https://www.satyahindi.com/opinion/mahatma-gandhi-ideology-haunts-rss-101218.html

चेतना वाले हर जीव, और ख़ासकर मानव का सहज स्वभाव लगातार ज़्यादा से ज़्यादा आज़ादी पाने का होता है। बौद्धिक जमात इसे प्राप्त करने के लिए अहिंसक विधायी उपाय का सहारा लेती है तो भावना प्रधान जमात इसे हासिल करने के लिए हिंसक, बेढब प्रयास करती है।

गाँधी के सपनों का आदर्श समाज न्याय प्रधान था और समाज निर्माण के उनके प्रयास बौद्धिक, अहिंसक और विधायी रहे। दूसरी तरफ़ संघ के सपनों का आदर्श समाज अपनत्व प्रधान था तथा उसके साधन भावनात्मक, उग्र तथा सांगठनिक रहे।

आरएसएस एक सांप्रदायिक संगठन है- सांप्रदायिक यानी किसी ख़ास उपासना पद्धति पर जोर, संगठन यानी सत्ता प्राप्त करने का इच्छुक समूह। गाँधी सामाजिक संत थे- समाज यानी ख़ुद से निर्मित दीर्घकालिक नियमों से प्रतिबद्ध व्यक्तियों का समूह, संत यानी नैतिक बल के बूते लोगों को मनवाने वाला। गाँधी भारत की प्राचीन ऋषि परंपरा के नवीनतम आइकन रहे तो संघ आधुनिक पाश्चात्य राज्यसत्ता का भारतीय संस्करण।

सामाजिक संत की प्राथमिकता होती है कि तात्कालिक समाज की ज्वलंत समस्याओं का निराकरण करने के बाद उसे आदर्श की ओर ले जाने का प्रयास करना। गाँधी ने इसीलिए पहले स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रयास किया तथा स्वतंत्र भारत के लिए स्वराज का आदर्श रखा। सांप्रदायिक संगठनों की प्राथमिकता उपासना पद्धति होती है और उसे लागू करने का माध्यम सत्ता। संघ ने इसीलिए आज़ादी के आंदोलन के समय बड़े स्तर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया तथा आज़ादी के बाद सुराज्य की स्थापना के लिए सत्ता प्राप्ति का प्रयास।

गाँधी की नैतिक आभा
स्वाभाविक है कि आज़ादी की लड़ाई जैसे सामाजिक आपातकाल के दौरान गाँधी सरीखे सामाजिक संतों का प्रभाव अधिक रहा बनिस्बत आपदा के वक्त पूजा-पाठ को प्रोत्साहन देने वाले आरएसएस का। स्वतंत्रता के तुरंत बाद भी स्वतंत्रता सैनिक के नाते गाँधी की नैतिक आभा संघ की छवि से कई गुना अधिक रही होगी। ऊपर से स्वतंत्र भारत का जनमानस अब गाँधी के सपनों के आदर्श, स्वराज की ओर अग्रसर होने को तैयार था। वैसी स्थिति में सत्ता के माध्यम से अपनी उपासना पद्धति लागू करने का संघ का आदर्श वंध्यापुत्र बन के रह जाता। जो भी हो, किसी फ़िरकापरस्त, संघ के फ़ैन व्यक्ति ने गाँधी हत्या को अंजाम दिया।

बाद में संघ ने सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक संगठनों के माध्यम से भारत में ख़ास उपासना पद्धति और उसके प्रतीकों का काफ़ी प्रचार जारी रखा। विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, ठाकुरदास बंग जैसे ग़ैर-राजनीतिक अपवादों को छोड़ दें तो आज़ाद भारत के शुरुआती दिनों की शासन-व्यवस्था ने भी जाने-अनजाने गाँधी के स्वराज के स्थान पर सुराज्य का मार्ग अपनाकर संघ के आदर्श को और हवा दे दी। इसी कारण संघी राजनीति धीरे-धीरे सत्ता पर भी काबिज होती गई।

संघ की चूक
लेकिन एक चीज़ में संघ चूक कर गया। गाँधी और गाँधी विचार के बीच भेद करने में। गाँधी एक मर्त्य व्यक्ति नहीं था, बल्कि नैसर्गिक विकास सिद्धांत का प्रतीक, एक विचार था। जैसे ईसा, बुद्ध आदि ने शाश्वत सत्य की मानव सुलभ परिभाषा करके एक नयी कालजयी व्यवस्था को जन्म दिया, वैसे ही गाँधी ने एक सभ्य समाज-व्यवस्था का मॉडल दिया, जो सफल भी था, लोकप्रिय भी, सर्वमान्य भी, प्राचीन भारतीय संस्कृति के वसुधैव कुटुंबकम् का जीवंत प्रतीक भी।

संघ का समाज मॉडल सर्वमान्य नहीं है, भारतीय संस्कृति के एक संत् विप्रा बहुधाः वदन्ति के विपरीत है, आधुनिक मध्यपूर्वी इसलाम के एकविध उपासना पद्धति से अधिक प्रभावित है। तो मृत्यु के सात दशक बाद भी गाँधी से दहशत खाना संघ के लिए स्वाभाविक ही है।

गाँधी ऐसे हुए अमर
ध्यान देने की बात यह है कि अपने मौलिक विचारों, उन विचारों को आचरण में लाने, समाज के तात्कालिक दर्द का निवारण करने, और सबसे महत्वपूर्ण, सत्ताबल के स्थान पर नैतिकबल के सहारे एक आदर्श न्यायसंगत व्यावहारिक व्यवस्था की वकालत करने के चलते गाँधी अमर हो गए। जिस दिन भारत की राजनीति उनके सुझाए स्वराज्य के मॉडल पर चल देगी, उस दिन सत्ता के माध्यम से उपासना पद्धति लागू करने के पैरोकारों के पैरों तले ज़मीन खिसक जाएगी। लेकिन तब तक, संघ की लोकप्रियता बढ़ती रहेगी क्योंकि सामान्य जनमानस में सांस्कृतिक विषयों पर अपार श्रद्धा है, और सांस्कृतिक प्रोपगेंडा में संघ आज़ादी से पहले भी अव्वल था, आज तो अथाह संसाधन के साथ अजेय भी है।

LS 2019 : BJP banks on Nationalism

बीजेपी को विकास नहीं राष्ट्रवाद का सहारा
सिद्धार्थ शर्मा
12 Mar, 2019


https://www.satyahindi.com/lok-sabha-election-2019/bjp-loksabha-election-2019-will-fight-on-nationalism-101711.html

उघरहिं अंत न होई निबाहू, श्री रामचरितमानस में लिखी इस पंक्ति के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि ठग को साधु के वेश में देखकर, वेश के प्रताप से जग कुछ समय तक तो पूजता है, पर अंत में ठग की कलई खुल ही जाती है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भारत की जनता के सामने सभी राजनीतिक दल अपने आप को साधु और अन्य दलों को ठग के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। ऐसे में जनता ठग और साधु में भेद कैसे करेगी, लोकसभा चुनाव के नतीजे यही बताने वाले हैं।
एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी+26 दलों का एनडीए गठबंधन है, तो दूसरी तरफ़ क्षेत्रीय दलों का यूपीए गठबंधन जिसमें कांग्रेस भी शामिल है। कुछ राज्यों में अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है कि सीधे-सीधे एनडीए बनाम यूपीए की टक्कर होगी या एनडीए के खिलाफ़ प्रतिपक्ष बिख़रा रहेगा।

पुलवामा हमले से मिली संजीवनी
पुलवामा प्रकरण से पहले मोदी मैज़िक निश्चित रूप से ढलान पर था क्योंकि विमर्श बेरोज़गारी, रफ़ाल सौदे में गड़बड़ी, नोटबंदी, जीएसटी, किसानों की बदहाली, दलितों पर अत्याचार, राम मंदिर न बनने आदि पर केंद्रित था, जिन पर मोदी सरकार वास्तव में नाकाम रही है। लेकिन फ़रवरी में पुलवामा में हमला हो गया और इससे मोदी सरकार को लगा कि उसे संजीवनी मिली है।

हालाँकि पुलवामा के मास्टरमाइंड मौलाना मसूद अज़हर को बीजेपी सरकार ने ही भारत की जेल से रिहा करके अफगानिस्तान पहुँचाया था, पर पुलवामा के वीभत्स्कारी हमले के बाद प्रधानमंत्री मोदी को अपना 56 इंची सीना भांजने का मौक़ा मिल गया।

पुलवामा हमले के 13 दिन बाद भारतीय वायुसेना ने बालाकोट में जैश-ए-मुहम्मद के आतंकवादी ठिकानों को ध्वस्त कर दिया। विश्वभर की सभी पेशेवर सेनाएँ दुश्मन के एसेट्स तथा कमांड एंड कंट्रोल की क्षमता को हानि पहुँचाने को ही सफलता का मापदंड मानती हैं और भारतीय वायुसेना ने भी वही पेशेवर काम किया।

मीडिया और सरकार की जुगलबंदी
लोकप्रियता के पायदान पर फिसलती हुई बीजेपी को वायुसेना की कार्रवाई में चुनावी लाभ की सुगंध आई और सरकार ने बालाकोट में मारे गए आतंकवादियों की संख्या को प्रमुखता देने की लाइन ले ली। देखा-देखी टीवी एंकरों ने भी मारे गए आतंकवादियों की संख्या का प्रचार शुरू किया और अधिकाँश प्रिंट मीडिया भी उसी भेड़चाल में मिल गया।

2014 के अधिकाँश मोदी-बीजेपी समर्थक, चाहे वे प्रत्यक्ष हों या प्रछन्न, उनकी राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ चुनावों में बीजेपी की हार के बाद की महीनों से चली आ रही रक्षात्मकता रातों-रात आक्रामकता में बदल गई। अगले कुछ ही घंटों में बदला लेने की मोदी की क्षमता पर कसीदे बनने लगे और बीजेपी एवं बीजेपी समर्थकों के तेवर भी तेज़ी से बदल गए।

वायुसेना की कार्रवाई के बाद रातों-रात देश भर में युद्धोन्माद का जैसा परचम लहरा दिया गया। लेकिन सब यह भूल गए कि पाकिस्तान परमाणु शस्त्र संपन्न देश है और उसकी प्रतिक्रिया अप्रत्याशित भी हो सकती है। राजनीति में कोई भी स्थिति स्थाई नहीं होती और दो दिन के भीतर ही भारतीय पायलट अभिनन्दन को पाकिस्तान में बंदी बनाए जाने की ख़बरों ने बीजेपी के तेवर में कंधार सरीखी थर्राहट ला दी। कंधार हाईजैक के समय भी भारत में बीजेपी की सरकार थी और आक्रामक छद्म राष्ट्रीयता बनाम आक्रामक वास्तविक आतंकवाद के सामने सरकार के घुटने टेकने का सा पिद्दीपन अभिनन्दन मामले में भी दिखने लगा।

इजराइल को अपना आदर्श मानने वाले यह भूल गए कि इजराइल दुश्मनों से कब्जे से जबरन अपने नागरिक छुड़ाता है, जैसे 1976 का ऑपरेशन एंटेब्बे। अभिनन्दन मामले में बीजेपी सरकार जिनीवा कन्वेंशन के हवाले से पाकिस्तान से अभिनन्दन की वापसी की गुहार लगाती प्रतीत हुई।
जिस बीजेपी के अनुसार उसने 400 आतंकवादियों को पाकिस्तान में घुसकर मार गिराया था, दो दिन बाद वही बीजेपी अपने एक सैनिक को अपने बलबूते पाकिस्तान से रिहा करने में नाकाम रही जिसका पूरा फायदा पाकिस्तान ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठाते हुए मीडिया की चकाचौंध के बीच भारत को अभिनन्दन लौटा दिया।


जले पर नमक अंतर्राष्ट्रीय और कुछेक भारतीय मीडिया ने तब छिड़का जब बालाकोट में किसी भी आतंकवादी के हताहत न होने की ख़बरें भी सामने आईं। बालाकोट से लेकर अभिनन्दन प्रकरण ने दो-चार दिनों में ही बीजेपी तथा उसके समर्थकों की सेना की बहादुरी को भुनाने की परजीवी मानसिकता का उदाहरण प्रस्तुत कर दिया।

राष्ट्रीयता ही चुनावी नारा बचा
बावजूद इसके, 2019 में बीजेपी+मोदी+गोदी मीडिया+समर्थकों के लिए राष्ट्रीयता ही एकमात्र चुनावी नारा रहेगा क्योंकि मंदिर, कालाधन, अच्छे दिन, किसान, पंद्रह लाख, गाय-गोबर, धारा 370, अखण्ड भारत आदि में विफलता के चलते जनता का इन विषयों से मोहभंग हो चुका है। ऐसे में राष्ट्रीयता की भावना को भुनाने के अलावा बीजेपी के पास कोई दूसरा चारा नहीं बचा दिख रहा है।

प्रश्न यह उठता है कि चुनावों के मौसम में भारतीय जनता का बहुमत राष्ट्रवाद के भावुक नारे में कितना बहेगा और कितना नहीं। इसका पहला उदाहरण 3 मार्च की पटना रैली में दिखा जहाँ नीतीश प्रशासन के पुरजोर प्रचार के बावजूद प्रधानमंत्री की रैली फ़्लॉप रही। उसके बाद हो रही चुनावी रैलियों में मोदीजी के भाषणों में आक्रामकता बढ़ती नज़र आ रही है तथा वह एक प्रधानमंत्री की नपी-तुली भाषा कम और फ़िल्मी हीरो जैसी दंगली भाषा का उपयोग अधिक कर रहे हैं, क्योंकि राष्ट्रीयता की भावुकता ही 2019 में बीजेपी का अंतिम अस्त्र है।

बीजेपी नेता येदियुरप्पा का फूहड़ बयान कि पुलवामा प्रकरण के बाद के हालात से बीजेपी को चुनावी लाभ होगा, इससे जनता में यह भी सन्देश गया कि बीजेपी अब अपने बूते चुनाव जीतने का माद्दा नहीं रखती, उसे दूसरों के पराक्रम और तीसरे की हानि में ही गिद्धभोज का लाभ होने का इन्तजार रहता है। मनसे सुप्रीमो राज ठाकरे ने यहाँ तक कह दिया है कि लोकसभा चुनाव में जीत के लिए पुलवामा की तरह एक और घटना घट सकती है। मनसे की ओर से ऐसा बयान आना यह बताता है कि बीजेपी इन चुनावों में काफ़ी भयभीत है।

संगठित हो रहा है ग़ैर बीजेपी वोट
बीजेपी का पाला गणित से पड़ा है।  2014 में ग़ैर बीजेपी दलों को मिला जो 69 प्रतिशत वोट विघटित था, वह इस बार कई राज्यों में संगठित हो रहा है। किसान, युवा, दलित, महिला, अल्पसंख्यक, बौद्धिक वर्ग के कई वोटर, जिन्होंने 2014 में मोदी में विकास पुरुष की छवि देखी थी, उनका पिछले पांच वर्षों का अनुभव खट्टा रहा है क्योंकि वादे के अच्छे दिन किसी के भी नहीं आए।

बीजेपी के कोर वोटर भी व्यक्तिगत वार्तालापों में यह खुलकर मानने लगे हैं कि पिछले पांच वर्षों में केवल यह सुकून मिला कि सत्ता उनके पास है, बाक़ी देश को कोई गुणात्मक फायदा नहीं हुआ।

औसत भारतीय की असुरक्षा बढ़ी
भारत का औसत व्यक्ति शांतिप्रिय होता है तथा अव्यवस्था एवं खलबली से घबराता है। 2014 में बीजेपी को वोट अव्यवस्था से व्यवस्था पर लाने और अशांति से शांति स्थापित करने की मोदी के व्यक्तित्व की क्षमता वाली बनाई गई छवि के चलते मिले थे। परन्तु भारत पिछले पांच वर्षों में अधिक बेचैन हुआ है। हिंसा, खेती, व्यापार, रोज़गार, आमदनी, आदि सब मानदंडों पर औसत भारतीय की असुरक्षा बढ़ी है।

मोदी अपनी छवि के अनुरूप खरे नहीं उतरे यह हर कोई मानता है चाहे बीजेपी हो, ग़ैर बीजेपी हो, या तटस्थ। अंतर केवल इतना है कि बीजेपी इस विफलता के लिए नेहरू से लेकर आम आदमी को ज़िम्मेदार मानती है, ग़ैर बीजेपी दल मोदी के इरादों को दोष देते हैं तो तटस्थ विश्लेषक इसका कारण मोदी की तानाशाही प्रवृत्ति के फलस्वरूप बनी अलोकतांत्रिक नीतियों को मानते हैं।

क्या रहेगा वोटर का रुख
बावजूद इसके, यह मानने का पूरा आधार है कि चुनावों के द्विकोणीय ध्रुवीकरण की स्थिति में वोटर जबरन एक या दूसरे के पाले में जाने हेतु मजबूर होगा क्योंकि उसके सामने विकल्प दो ही होंगे, बीजेपी या ग़ैर बीजेपी। ऐसी स्थिति में यह संभव है कि ऐसे वोटर जिनका बीजेपी से मोहभंग हो चुका है, ग़ैर बीजेपी कैम्प की और झुक जाएँ, तो वहीं यह भी संभव है कि ग़ैर बीजेपी वोटर राष्ट्रवाद की भावना में बहकर बीजेपी की ओर रुख कर दें।

इन दोनों संभावनाओं के मद्देनजर, बहरहाल बड़े राज्यों का ताज़ा परिदृश्य यह उभरता दिख रहा है कि बीजेपी को देश में औसत 35% वोट तथा उप्र, महाराष्ट्र, बिहार, मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात जैसे उसके पारम्परिक गढ़ में 40%+ तक वोट हासिल हो सकते हैं।

विपक्षी एकता सूचकांक तथा चुनाव पूर्व गठबंधनों के वर्तमान परिदृश्य में, जहाँ तक सीटों का सवाल है, बीजेपी के इन गढ़ों में एनडीए को उप्र में 25, महाराष्ट्र में 30, बिहार में 25, मप्र में 20, राजस्थान में 15, छत्तीसगढ़ में 5, गुजरात में 20, कर्नाटक में 15, आदि को मिलाकर देशभर में 250 सीटें जीतने की संभावना प्रबल दिखती है, जो कि 2014 में मिली 336 सीटों से 86 सीटें कम है। दूसरी ओर विपक्ष को 290 सीटें मिल सकती हैं जिनमें मुख्यतः उप्र 55, बंगाल 35, तमिलनाडु 35, पूर्वोत्तर 15, केरल 15 और अन्य राज्यों से आने की संभावना है।

जहाँ तक अगली लोकसभा में सरकार के गठन का मामला है, इसमें क्षेत्रीय दलों की भूमिका प्रमुख रहेगी इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए।
लब्बोलुआब में, 2014 और 2019 में महत्वपूर्ण अंतर यह है कि 2014 में बीजेपी के औसत 20% चरमपंथी हिंदू वोटबैंक में 15% अतिरिक्त वोट मोदी के विकास पुरुष की छवि के चलते जुड़े। विकास पुरुष नायक होता है, विष्णु जैसा समन्वयकारी होता है। लेकिन विकास तो आया नहीं कि उल्टे अभिनंदन भी बमुश्किल रिहा हुआ।

समन्वयक नहीं विध्वंसक साबित हुए!
पाँच साल तक मोदी जी की नीतियाँ भी उनके 20% हिंदू वोटर के अनुरूप ही गाय, गोबर, मंदिर, छप्पन इंच, भाषण, उपदेश से ओतप्रोत रहीं। दलित, पिछड़ा, अल्पसंख्यक, बौद्धिक, व्यापारी आदि के प्रतिकूल रहीं जिसके चलते 2014 के 15% अतिरिक्त वोटर को अब उस छवि में विष्णु जैसा समन्वयक नायक कम और शिव जैसा विध्वंसक दंडनायक अधिक प्रतीत होने लगा है।

और शिव जैसे उग्र भगवान को भक्त अपने घर पर सत्यनारायण पूजा में आह्वान करने के बदले दूर कैलास जाकर ख़ुद परिक्रमा करना अधिक श्रेयस्कर मानते हैं।

2019 LS Elections : Karnataka

कर्नाटक में राष्ट्रवाद बनाम संघीय व्यवस्था के बीच का चुनाव
सिद्धार्थ शर्मा
12 Apr, 2019


https://www.satyahindi.com/karnataka/karnataka-loksabha-election-strategy-bjp-congress-jds-102096.html

कर्नाटक में 2019 के लोकसभा चुनाव दो विचारधाराओं के बीच होगा। एक तरफ़ बीजेपी राष्ट्रवाद के नाम पर धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर वोट की राजनीति करेगी तो दूसरी तरफ़ संघीय व्यवस्था के नाम पर विपक्ष एकजुट होकर अपनी राजनीति जनता के सामने परोसेगा। एक तरफ़ मोदी जी के नेतृत्व में बीजेपी कह रही है कि भारत की सबसे बड़ी वर्तमान समस्या पाकिस्तान, मुसलमान आदि हैं, जिसे सशक्त राष्ट्रवाद के ज़रिए ही निपटा जा सकता है -तो दूसरी तरफ़ कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन कह रहा है कि राज्यों पर सबसे बड़ा ख़तरा तानाशाही केंद्र का है, अतः राज्यों की स्वायत्तता बचाना सबसे बड़ी चुनौती है। विपक्ष संविधान की दुहाई दे रहा है जिसमें ‘भारत राज्यों का संघ है’ लिखा हुआ है, तो बीजेपी ‘भारत एक राष्ट्र’ की लहर पर तैरने की फ़िराक़ में है। आने वाले कुछ दिनों में जनता का जो फ़ैसला आएगा, वह इस बात पर निर्भर करेगा कि इन विचारों का उद्गम क्या है, तथा कर्नाटक के राजनीतिक इतिहास में इन विचारों का महत्व कितना रहा है।

सांप्रदायिक संगठनों का यह चरित्र ही होता है कि वे एक ख़ास उपासना पद्धति अपनाने का आग्रह रखते हैं, तथा उस आग्रह को लागू करने के लिए, सत्ता प्राप्ति के लिए भी प्रयत्नशील रहते हैं।
आरएसएस भी ऐसा ही एक सांप्रदायिक संगठन है जो पिछले 90 वर्षों से अपनी उपासना पद्धति को भारत भर में लागू करने के लिए अलग-अलग समय पर सत्ता प्राप्त करने के अलग-अलग हथकंडे अपनाता आ रहा है।

अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संघ, जनसंघ से लेकर बीजेपी जैसे राजनीतिक दल भी खड़ा करता है, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक संस्थान भी चलाता है, 1977, 1999 की तरह दूसरे दलों के साथ गठबंधन भी करता है, वाजपेयी से लेकर योगी जैसे चेहरों को आगे भी करता है। उसकी हर कृति देश, काल, परिस्थिति में लाभांश प्राप्त करने की होती है।

कर्नाटक संघ के लिए अनुकूल?
पारम्परिक रूप से संघ की ध्रुवीकरण की विचारधारा को सबसे उर्वरा भूमि मिली कर्नाटक के दक्षिणी करावली यानी समुद्र तटीय क्षेत्र में जो मंगलूरु के आसपास पड़ते हैं। 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद अधिक मात्रा में विदेशी मुद्रा करावली के उद्यमशील प्रवासी अल्पसंख्यकों के पास आई, उनका जीवन स्तर बढ़ा जिससे समाज के बहुसंख्यकों के मन में हीन भावना जागृत हुई और इसका पुरज़ोर लाभ संघ ने बजरंग दल, श्रीराम सेना आदि के ज़रिये उठाया।

कर्नाटक बहुत बड़ा राज्य है, जिसमें कम से कम 5 भिन्न संस्कृतियाँ प्रचलित हैं, जिनके खानपान, वेशभूषा, रीति-रिवाज, बोलियाँ, आदि एक-दूसरे से पूरी तरह अलग हैं। तो ऐसी विविधता में एकरूपता लाने की दक्षिणपंथ की जबरन कोशिश को उतनी उर्वरा भूमि सब जगह नहीं मिली जितनी करावली में विशेष परिस्थितियों के कारण मिली।

करावली के अलावा बीजेपी की विचारधारा केवल मुम्बई, कर्नाटक में असरदार हुई क्योंकि वह क्षेत्र भौगोलिक रूप से महाराष्ट्र से सटा हुआ भी है। बेंगलूरु महानगर में भी इसका ख़ासा प्रभाव है क्योंकि इस महानगर में बड़ी मात्रा में प्रवासी जनसंख्या है।

हिंदू वोट बैंक पर निर्भरता
इसीलिए आज भी करावली, मुम्बई-कर्नाटक क्षेत्र तथा बेंगलूरु शहर के अलावा शेष कर्नाटक में बीजेपी की लोकप्रियता उतनी अधिक नहीं बन पाई है। कर्नाटक में एक ओर जेडीएस जैसी पार्टियाँ भी सशक्त हैं, जो क्षेत्रीय अस्मिता की वकालत करती हैं, तो दूसरी ओर बीजेपी के ही येदियुरप्पा श्रीरामुलू के अलग दल बनाने से बीजेपी को 2013 में भारी चुनावी घाटा होने के ठोस साक्ष्य उपलब्ध हैं। मगर बीजेपी ने 2014 आते-आते अपने परंपरागत शहरी हिंदू वोट बैंक में विकास के नारे के माध्यम से ग्रामीण, श्रमजीवी, युवाओं का वोट मिलाने का सफल प्रयास भी कर लिया था।

अब यह स्पष्ट है कि 2019 के चुनाव पूरे भारत में बीजेपी धार्मिक ध्रुवीकरण के मंच पर लड़ रही है, वहीं विपक्षी क्षेत्रीय दल चाहे वो तृणमूल कांग्रेस हो या द्रमुक, बसपा, सपा, राजद, जेडीएस, नायडू, आप हो, वे संघीय ढाँचे को अपना मंच बनाये हुए हैं।
दोनों ही आइडेंटिटी पॉलिटिक्स यानी पहचान की राजनीति कर रहे हैं। पहचान की राजनीति ऐसी समूहों की वकालत करती है जो जाति, धर्म, लिंग, राष्ट्रीयता, संस्कृति, भाषा, क्षेत्र आदि लक्षणों पर आधारित हो। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि यदि बीजेपी राष्ट्रीयता या धर्म की आइडेंटिटी आगे लाएगी तो विपक्ष भी क्षेत्रीयता या जाति के नाम पर जवाबी आइडेंटिटी का समूह बनाएगा। दोनों ही सफल होंगी क्योंकि वोटर इस या उस विचारधारा से अपने आप को निकट पायेगा। औसत नागरिक हिंदू-हिन्दुस्तानी होने के साथ-साथ किसी क्षेत्र-जाति-समूह का भी तो सदस्य होता है। कौन किस हद तक सफल होगा यह तो चुनाव परिणाम ही बताएँगे।

बीजेपी की स्थिति
कर्नाटक का चुनावी नब्ज़ इसी परिप्रेक्ष्य से टटोला जाना चाहिए।  बीजेपी नेतृत्व को यह पता है कि लोकसभा चुनावों में उत्तर भारत में उसे 2014 में ही अधिकतम सीटें मिल चुकी हैं और अब यह 2019 में बढ़ेंगी नहीं। 2014 लोकसभा में बीजेपी को कर्नाटक की 28 में से जो 17 सीटें मिली थीं, उसमें से 12 सीटों पर उसे 50% से अधिक मत प्राप्त हुए थे। बीजेपी की ये सीटें मुम्बई-कर्नाटक क्षेत्र में 4, करावली में 4, बेंगलूरु में 3 तथा बेल्लारी में 1 सीट मिलीं। 2018 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को इन्हीं सीटों पर कुछ घाटा भी हुआ। मुम्बई-कर्नाटक क्षेत्र में औसत 5%, करावली में 7%, बेंगलूरु में 13% का उसे नुक़सान हुआ। बाक़ी की 16 सीटों पर कांग्रेस+जेडीएस को 2014 में भी 50% से अधिक मत मिले थे, और 2018 के विधानसभा चुनावों में भी।

तो ताज़ा गठबंधन के समीकरण में बीजेपी 2014 में 50% से अधिक मत प्राप्त कर चुकी उन 12 सीटों पर अपना बेहतरीन दाँव चलेगी, उसमें भी ख़ासकर उनमें, जिनपर उसे 2018 में बड़ा नुक़सान उठाना पड़ा था। जैसे बेंगलूरु दक्षिण, जहाँ 2014 में कर्नाटक के सर्वोच्च 57%  से वह 2018 में 48% पर फिसल गई। उसने फ़िलहाल युवा तेजतर्रार मुँहफट प्रत्याशी तेजस्वी सूर्या को उतारा है ताकि और ज़्यादा ध्रुवीकरण किया जा सके जिससे कि 2018 में खोये मत पुनः हासिल हो जाएँ।

जेडीएस से वोट छिटकेगा
राष्ट्रीय चुनावों में जेडीएस के भी कुछ वोट पारम्परिक रूप से बीजेपी के पक्ष में खिसकते हैं, जो इस बार कुछ अधिक खिसकेंगे क्योंकि जेडीएस का टिकट बँटवारा परिवारवाद की काली छाया में हुआ है। जेडीएस के प्रभाव में आने वाले क्षेत्रों में चूँकि उसका प्रमुख सामना कांग्रेस से है, अतः परिवारवाद से नाराज़ जेडीएस वोटर का एक बड़ा समूह यदि गठबंधन के बावजूद कांग्रेस के बदले बीजेपी को वोट दे दे तो कोई ख़ास आश्चर्य नहीं होना चाहिये।

ध्रुवीकरण की नीति कितनी कारगर?
अब यह चुनाव ही बताएगा कि कर्नाटक की जनता में बीजेपी की साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की नीति क्या उतनी पैठ बना पाई है जितनी उत्तर प्रदेश में, क्योंकि दक्षिण भारत की द्रविड़ संस्कृति अपने आप में पूर्ण है, इसलिए उसे हिंदू ख़तरे में नहीं दिखता। परम्परागत रूप से ही, दक्षिण भारतीय राज्यों की सरकारें, चाहे वे किसी भी दल की हों, नागरिकों की सुरक्षा एवं न्याय पर अधिक जोर देती आईं हैं जिससे कि प्रशासन अपेक्षाकृत कुशल बना रहता है और अपराध कम होते हैं। यही कारण है कि शिक्षा, रोज़गार, महिला सुरक्षा, अर्थव्यवस्था आदि अधिक सुदृढ़ होने के चलते समाज में परेशानियों के मुक़ाबले अधिक ख़ुशहाली रहती है। इससे सांप्रदायिकता जैसे भावनात्मक मुद्दों को हवा भी कम मिलती रही है।

गठबंधन की स्थिति
तो लब्बोलुआब यह दिखता है कि उन 12 सीटों पर जहाँ 2014 में बीजेपी को 50% से अधिक मत मिले थे, वहाँ बीजेपी का परचम फिर लहरा सकता है। क़रीब 6 से 8 अन्य सीटों पर उसे जेडीएस के नाराज़ वोटर से लाभ मिलने की संभावना भी बलवती है। बाक़ी की 8 से 10 सीटों पर क्योंकि 2014 तथा 2018 दोनों के गणित, विपक्षी गठबंधन के हिस्से में  50% से अधिक मतों का रहा है, तो वहाँ गठबंधन के जीत दर्ज करने की स्थिति अधिक अनुकूल प्रतीत हो रही है।

गाँधी-150 : Article

स्वराज का मंत्र देने वाले ऋषि महात्मा गाँधी
सिद्धार्थ शर्मा
02 Oct, 2019

 
गाँधी, जो एक आम व्यक्ति की ही तरह पैदा हुए और महात्मा बनकर हमारे बीच से गए। अपने जीवनकाल में उन्होंने अपने व्यक्तित्व का इस कदर विकास किया, अपने विचारों का प्रभाव इस कदर छोड़ा कि उन्हें विश्वव्यापी महापुरुष माना गया। आख़िर क्या था उस शख़्सियत में ऐसा?

गाँधी प्राचीन भारतीय ऋषि परम्परा के अभी तक के संभवतः अंतिम अवतार थे। ऋषि अर्थात मंत्रदृष्टा, जो अपने आसपास के समाज की स्थिति की कमियों का सम्यक आकलन कर विधायी और व्यावहारिक सुधार सुझाता हो। गाँधी ने भी अपनी जन्मस्थली गुजरात, अपनी व्यावसायिक भूमि ब्रिटेन तथा अपनी प्रयोगशाला दक्षिण अफ़्रीका के तत्कालीन समाज की समस्याओं का ठीक-ठीक आकलन कर अपनी मातृभूमि को ग़ुलामी की तत्कालीन समस्या से निजात पाने का सर्वाधिक कारगर उपाय भी बताया, ख़ुद भी उस उपाय पर चले और इन दोनों के कारण उत्पन्न नैतिक बल के चलते अन्य समानधर्मी महापुरुषों से अधिक लोकप्रिय भी हुए और अधिक सफल भी।  


तो वह कौन सा मंत्र था जो गाँधी ने भारत को दिया? अपने दक्षिण अफ़्रीकी प्रवास में गाँधी ने ट्रांसवाल में जो टॉल्सटॉय फ़ॉर्म खोला उसमें उन्होंने सामूहिक जीवन के प्रयोग में पाया कि छोटी-छोटी  स्वशासित सहभागी इकाइयां स्वयमेव उच्चतर नैतिक आभा को प्राप्त हो जाती हैं, उनमें अदम्य साहस आ जाता है तथा वे कठिन से कठिन कार्यों को साधने में भी सक्षम बन जाती हैं। 

इसी सामूहिक शक्ति को गाँधी ने सत्याग्रह का रूप दिया क्योंकि युद्ध में विजय उसी की होती है जो अंत तक टिका रहे। अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज में गाँधीजी ने उस मंत्र का नाम दिया ‘एन इंडिया ऑफ़ 7 लाख विलेज रिपब्लिक्स।’ व्यक्ति, परिवार, गाँव/मोहल्ला, क्षेत्र, राज्य, राष्ट्र, विश्व-सप्त सोपान, जिसमें हर इकाई को अपने व्याप्ति में निर्णय लेने की सम्पूर्ण इकाईगत स्वतंत्रता रहे। संक्षिप्त में स्वराज ही ऋषि गाँधी का दिया हुआ मंत्र है।

संयोगवश, दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद गोडसे नामक मूर्ख व्यक्ति ने गाँधी नामक व्यक्ति के शरीर की हत्या कर दी। अवसरवादी राजनेताओं ने अपने फायदे के लिए गाँधी की एक अपूर्ण छवि समाज में फैला दी कि गाँधी के कारण ही देश अंग्रेजों की ग़ुलामी से आज़ाद हुआ। जबकि सत्य यह है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वैश्विक स्थिति उपनिवेशवाद के अनुकूल नहीं रही। पड़ोसी श्रीलंका, इंडोनेशिया, चीन, अफ़ग़ानिस्तान आदि में कोई गाँधी नहीं हुआ, फिर भी ये देश 1940 के दशक में आज़ाद हो गए। 


 
दूसरी ध्यान देने लायक बात यह है कि 1857 से 1947 तक 13500 शहीदों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपनी कुर्बानी दी, इनके अलावा लाखों लोगों ने अलग-अलग तरीक़ों से संग्राम किया, जिनका स्वतंत्रता प्राप्ति की दिशा में अप्रतिम योगदान रहा। अर्थात केवल गाँधी को देश को आजादी दिलाने वाला महापुरुष वाला लेबल भ्रामक तो है ही तत्कालीन राजनेताओं की अपनी ब्रांड वैल्यू बढ़ाने की सोची-समझी लाभांश प्रदायिनी रणनीति भी।

गाँधी के बारे में दूसरी भ्रान्ति अनजाने में उन लोगों ने फैलाई जो स्वतंत्रता के बाद भारत में राजनेता तो नहीं बने पर सामाजिक कार्यकर्ता बने रहे। इस समूह ने जनमानस में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बनाये रखने हेतु गाँधी को शांतिदूत, अहिंसा के प्रणेता, सादगी की प्रतिमूर्ति के रूप में प्रस्तुत किया। 

पहली बात यह कि गाँधी से बहुत पहले अहिंसा और सादगी पर सर्वप्रथम मौलिक विचार तथा तदनुरूप आचार 2500 वर्ष पूर्व भगवान महावीर दे चुके हैं। दूसरा यह कि अहिंसा की राह पर चलकर ईसा मसीह 2000 वर्ष पूर्व प्राण त्याग चुके हैं तथा सबसे मुख्य बात यह कि गाँधी की अहिंसा महावीर या ईसा की तरह विधायी न होकर एक आततायी शासन व्यवस्था से लड़ने का प्रासंगिक अचूक अस्त्र मात्र थी।

गाँधीजी ने बहुत पहले यह समझ लिया था कि लोकतंत्र के भी दो प्रकार होते हैं - सहभागी तथा प्रतिनिधि। पाश्चात्य देशों ने औद्योगिक क्रान्ति तथा रेनेसाँ के फलस्वरूप हुए मानव विस्थापन तथा आर्थिक ख़ुशहाली को पचाने हेतु लोकतांत्रिक जीवन शैली अपनायी। इन लोकतांत्रिक जीवन पद्धति वाले देशों में सहभागी लोकतंत्र स्थापित हुआ, जहां नागरिक दैनिक शासन में भागीदार बनता है, सत्ता विकेन्द्रित होती है, तानाशाही नहीं होती, न ही शासन के ओवरलोड के चलते अव्यवस्था। 

गाँधीजी का विकेन्द्रीकृत मॉडल
गाँधीजी ने ऐसा ही विकेन्द्रीकृत मॉडल सुझाया था, पर भारत समेत अधिकाँश पड़ोसी देश चूंकि गुलामी के चलते रेनेसाँ और औद्योगिक क्रान्ति से वंचित रहे, तो 20वीं सदी के उत्तरार्ध में यहां लोकतांत्रिक जीवन पद्धति के स्थान पर लोकतांत्रिक शासन पद्धति स्थापित हुई। इन देशों में प्रतिनिधि लोकतंत्र आया, जहां नागरिक केवल अपने अधिकारों को हस्तांतरित करता है, सत्ता केंद्रीकृत होती है, तानाशाही को खुला निमंत्रण रहता है, शासन के ओवरलोडिंग के चलते अराजकता अधिक होती है।  
 
यह भारत का दुर्भाग्य है कि गाँधीजी की मौलिक देन, जिसे उन्होंने लम्बे सफल प्रयोग के बाद तैयार किया, जो स्वतंत्र भारत का ब्लूप्रिंट उन्होंने दिया, उसको गाँधीजी के समकालीनों ने पूर्णतः ओझल कर दिया।
स्वराज कहिये या विकेन्द्रित व्यवस्था मानिये, ये गाँधीजी की आज़ाद भारत को वह देन थी, सहभागी लोकतंत्र की एक ऐसी व्यवस्था थी, जिसपर चलकर आज कई यूरोपीय देश विश्व के सबसे खुशहाल देश बन गए हैं। स्विट्जरलैंड के छोटे-छोटे कैंटोन राष्ट्रीय सरकार से अधिक शक्तिशाली हैं। स्केंडिनेविया के कई देशों में सहभागी लोकतंत्र इस कदर घर कर चुका है कि ये सब देश हर पैमानों पर विश्व के समृद्धतम मुल्कों में शुमार हैं।

संक्षिप्त में, गाँधी न तो केवल स्वतंत्रता सेनानी थे, न महज अहिंसा और सादगी की प्रतिमूर्ति। गाँधीजी अर्वाचीन भारत के उच्च कोटि के एक ऐसे ऋषि थे जिन्होंने सम्पूर्ण समाज को एक नायाब व्यवस्था का मॉडल दिया, जिसमें हर व्यक्ति ताक़त और मजबूती में फर्क जान ले, कि ताक़त से शोषण पैदा होता है और मजबूती से स्वराज। 

आज 150 वर्ष बाद यदि भारत उस खोये हुए गाँधी को प्राप्त कर लेता है, सहभागी लोकतंत्र व्यवस्था की ओर मुड़ने का प्रयास करता है, तो स्वयं भारत का ही नहीं, अपितु विश्व का भी भला होगा, भारत स्वयमेव विश्वगुरु भी कहलायेगा। बाक़ी हम श्रद्धांजलि दें या न दें, गाँधीजी जैसे ऋषि तो अपनी  मौलिक कृति के चलते अपने जीवनकाल में ही मुक्ति प्राप्त कर चुके हैं।

(लेखक सिद्धार्थ शर्मा सम्प्रति गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के सदस्य हैं तथा पूर्व में संस्था के सचिव भी रह चुके हैं।)

Karpuri Thakur

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