Wednesday, December 19, 2012

Heinous Crime in Delhi


---------फिर एक बार , अपराध से हार 


हाल ही में दिल्ली बलात्कार काण्ड ने फिर भारत को हिला दिया | कायरतापूर्ण इस मनमानी जघन्य हिंसा को भारत कब तक सहता रहेगा यह सवाल आज हर नागरिक पूछ रहा है | विश्वभर में अविकसित राष्ट्रों को छोड़ दें, तो केवल भारत ऐसा देश है जहाँ ऐसे प्रकरणों में लगातार वृद्धि हो रही है | अन्य विकसित या विकासशील देश अपनी धरती पर ऎसी घटनाओं में गुणात्मक कमी कर चुके हैं | 


भारत एक लोकतंत्र है | सवाल उठता है कि पुलिस को कौन नियुक्त करता है ? क्यों नियुक्त करता है ? पुलिस को तंत्र नियुक्त करता है | आदर्श स्थिति वह होती है जब पुलिस, 'तंत्र' के माध्यम से 'लोक' को सुरक्षा दे | पर भारत में आज हर नागरिक यह स्पष्ट अनुभव कर रहा है कि पुलिस 'लोक' नियंत्रण के माध्यम से 'तंत्र' को सुरक्षा दे रही है | तभी तो पुलिस तुच्छ मामलों में नागरिकों को नियंत्रित करने में तो तत्परता दिखाती है, (हाल ही का शाहीन फेसबुक मुद्दा) पर जघन्य अपराध रोकने और नागरिकों को सुरक्षा देते वक्त हर बार पूरी तरह विफल हो जाती है |


इसके मूल में भारतीय पुलिस की स्थापना है | भारतीय पुलिस अधिनियम स्वतन्त्र भारत की देन नहीं है | यह देन है अंग्रेजों की, वर्ष 1861 में | सनद रहे कि इसके चार वर्ष पूर्व ही, 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम प्रारम्भ हुआ था | स्वाभाविक है कि 150 वर्ष पहले अंग्रेजों ने जो पुलिस व्यवस्था स्थापित की थी, वह नागरिक सुरक्षा के लिए तो कतई नहीं थी | वह थी नागरिकों पर नियंत्रण करने के लिए, और तंत्र की सुरक्षा के लिए | तो भारतीय पुलिस आज भी अगर अपना मुख्य कर्तव्य नागरिक सुरक्षा के बदले नागरिक नियंत्रण मान रही तो वह अपनी स्थापना-उद्देश्यों के अनुरूप ही आचरण कर रही है | वर्ष 2006 में भारतीय पुलिस अकादमी के 57 वें दीक्षांत भाषण में तथा देश भर के पुलिस अधीक्षकों के सम्मलेन में स्वयं प्रधानमंत्री भी यही बात कह चुके हैं| http://indiannow.org/?q=node/12 हाँ यह अलग बात है कि पिछले पांच वर्ष में उनकी सरकार ने इसे सुधारने का प्रयास नहीं किया | करें भी क्यों | अपराधी 'तंत्र' (वीआईपी) पर हमला थोड़े ही कर रहे हैं, वे तो 'लोक' पर कर रहे हैं | तंत्र तो पुलिस द्वारा रक्षित है ही| 


भारत में 'हम' निरीह नागरिक तब तक अपराधियों की भेंट चढ़ते रहेंगे जब तक पुलिस, नागरिक नियंत्रण (जैसे हेलमेट, तम्बाकू, बारबाला) विषयों को समाज पर छोड़कर नागरिक सुरक्षा (जैसे चोरी, डकैती, आतंक, बलात्कार) तक अपने आप को सीमित नहीं कर लेती | आज तंत्र को यह समझना होगा की उसकी प्राथमिकता नागरिक सुरक्षा है, नागरिक नियंत्रण समाज स्वयं कर लेगा | दूसरी ओर समाज को यह समझना होगा की उसकी सुरक्षा सरकार ही कर सकती है, इसीलिए समाज नागरिक नियंत्रण के विषयों में सरकार से सहायता मांगना छोड़े | और यह गुणात्मक सुधार तभी आयेगा जब "हम भारत के लोग" यह बात पूरी ताकत के साथ कान में तेल डाल बैठी 'राज्य व्यवस्था' को समझा दें कि लोकतंत्र में पुलिस का काम 'लोक' को सुरक्षा प्रदान करना है 'तंत्र' को नहीं |

Saturday, December 8, 2012

याचना नहीं अब रण होगा


समर शेष है......... 



पूछ रहा है जहां चकित हो, जन-जन देख अकाज
साठ  वर्ष हो गए, राह में अटका कहाँ स्वराज ?

अटका कहाँ स्वराज, बोल ! सत्ता तू क्या कहती है ?
तू रानी बन गयी, वेदना जनता क्यों सहती है ?

सबके भाग्य दबा रखे हैं, किसने अपने कर में ?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता किस घर में ?

समर शेष है यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा 
और नहीं तो तुझपर,  पापिनी ! महावज्र टूटेगा 

समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा 
जिसका है यह न्यास, उसे त्वरित पहुंचाना होगा 

धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं 
गंगा का पथ रोक, इंद्र के गज जो अड़े हुए हैं 

कह दो उनसे, झुके अगर तो, जग में यश पायेंगे 
अड़े रहे तो, ऐरावत, पत्तों से बह जायेंगे 


समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध 
जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध 

Monday, November 19, 2012

Lok Swaraj Manch Bangalore Office open

17th Nov 2012, Prashant Bhushan inaugurating Lok Swaraj Manch office at RamJai, #2, Chanakya Street Akkamma Block Dinnur RT Nagar bangalore 560032

Saturday, November 3, 2012

LOK SWARAJ MANCH yatra nov 2012


2014 में किसका राज ?


......

लोक स्वराज ! लोक स्वराज !!



    

वर्तमान काल की मांग है कि 
राजनीति पर समाज हावी हो 
और 
इसके लिए भारत 
एक नए राजनीतिक दर्शन हेतु तैयार है ।
हम राज्य पर समाज की संप्रभुता 
स्थापित करने की तैयारी में जुटे हैं ।
                                                           

भावी भारत का प्रस्तावित संविधान 
https://docs.google.com/file/d/0B4TuEWmc6yjgUWloenlIMFA5a2c/edit


लोक संसद 
https://docs.google.com/file/d/0B4TuEWmc6yjgS0lkdjhUSmpmOUk/edit 


लोक स्वराज मंच 

द्वारा  संपर्क यात्रा…!

     
     पिछले कुछ महीनों की परिस्थितियों से स्पष्ट है की वर्तमान भारत में "लोक" "तंत्र" पर संप्रभुता स्थापित करने हेतु कटिबद्ध है । राजनीति पर समाज के अंकुश की इच्छा अब उत्तरोत्तर बलवती हो रही है । इस जनजागरण का श्रेय भारतीय समाज को तो जाता ही है, साथ-साथ समूची राजनैतिक व्यवस्था की बंदरबांट वृत्ति के खुलासों ने भी इस जन-जागरण को पुष्ट ही किया है । 

     अब भारत की जनता "सत्ता परिवर्तन" एवं "व्यवस्था परिवर्तन" का भेद जानने लगी है तथा व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में कार्यरत समूहों को शक्ति प्रदान करने लगी है, चाहे वह लोक स्वराज मंच हो, अन्ना हजारे हों, अरविन्द केजरीवाल हों, या अनेकानेक स्थानीय आन्दोलन । 


     परिवर्तन की चाह तथा कार्यान्वयन में अंतर होता है, क्योंकि चाह नीयत-प्रधान होती है एवं कार्यान्वयन नीति-प्रधान । जयप्रकाश आन्दोलन में भी नीयत ठीक रहीं, नीतियाँ गड़बड़ाईं । आज 35 साल बाद फिर ऐसा ही सुनहरा मौक़ा भारत के सामने है, बशर्ते उस समय की नीतिगत त्रुटियों की पुनरावृत्ति से बचा जाय तो सम्पूर्ण क्रान्ति निश्चित तौर पर संभव है । 


     लोक स्वराज मंच 1999 से ही व्यवस्था परिवर्तन कार्यान्वयन के नीतिगत मसलों में स्पष्ट रहा है । भावी भारत का संविधान एवं लोक संसद के विचार इसके प्रमाण हैं । बदलते भारत को इन विचारों से प्रत्यक्ष परिचय करवाने हेतु लोक स्वराज मंच ने व्यापक जन-चेतना यात्रा 22 नवम्बर 2012 से 11 दिसंबर 2012 तक  आयोजित की है। (विस्तृत यात्रा विवरण हेतु यहाँ क्लिक करें) 

    आप भी लोक स्वराज मंच के माध्यम से बदलते भारत के नवनिर्माण में सहयोगी बनें, रमेश कुमार चौबे, फोन 08435023029 से संपर्क करें, एवं इस यात्रा में अपनी क्षमतानुसार सहयोग दें ।

Tuesday, August 7, 2012

Anna & Politics




-------------- अन्ना चले राजनीति की राह 



     अन्ना हजारे ने तीन अगस्त को जंतर मंतर से राजनीतिक पहल की घोषणा कर दी। इस घोषणा पर भले ही राजनीतिक दलों, समर्थकों, आलोचकों और शुभचिंतकों द्वारा मिश्रित प्रतिक्रिया दी जा रही हो लेकिन अन्ना हजारे और उनकी टीम की यह घोषणा राजनीतिक दल बनने की घोषणा भर नहीं है। यह जनता द्वारा सामाजिक आपातकाल की घोषणा है। ऐसा सामाजिक आपातकाल जिसमें जनता अब राजनीतिक शक्तियां अपने हाथ में लेने के लिए आगे बढ़ेगी। मै मानता हुं कि यह सामाजिक आपातकाल सफल हो सकता है और राजनीतिक दलों को सबक भी मिल सकता है बशर्ते टीम अन्ना कुछ सावधानियां बरतते हुए आगे कदम बढ़ाए।



     जब टीम अन्ना भ्रष्टाचार नियंत्रण को लक्ष्य मानकर लोकपाल की लडाई लड रही थी तब भी हम स्पष्ट कर रहे थे की भ्रष्टाचार भारत की प्रमुख समस्याओ का कारण नहीं है बल्कि वह तो सत्ता केन्द्रित शासन व्यवस्था का परिणाम मात्र है। संघर्ष कारणों के समाधान पर होना चाहिये, परिणामो के समाधान के लिये नहीं। टीम अन्ना इस संघर्ष देश को प्याज की परत परत निकालने जैसे दिखाना चाहती थी कि सरकार मे बैठे लोग जैसे दिखते है उससे भी कई गुना ज्यादा घाघ है। उन्होने अगस्त मे उठे लोकपाल तूफान को ठंडा होने दिया और अपने सभी वचनो से मुकर गई। उसे पता था कि अब वैसा तूफान उठ नही सकता और टीम अन्ना का खतरा सदा के लिये समाप्त है।



     सम्पूर्ण भारत मे सत्ता परिवर्तन और व्यवस्था परिवर्तन का अंतर आम तौर पर नही समझा जाता। इस अंतर को गांधी लोहिया जय प्रकाश आदि तो समझते थे जो अब जीवित नही है। अनेक राजनीतिज्ञ समझते हुए भी समझना हानिकर मानते हैं। रामदेव जी से तो ऐसी उम्मीद करना भी व्यर्थ है। हाल ही में विसर्जित टीम अन्ना के भी कुछ ही लोग यह अंतर आंशिक रूप से समझते है। यही कारण है कि टीम ने व्यवस्था परिवर्तन के लिये घोषित तीन मुद्दे ‘‘1. राइट टू रिकाल राइट टू रिजेक्ट 2. ग्राम सभाओ को विधायी अधिकार 3. लोकपाल‘‘ में से लोकपाल तीसरे क्रम मे रखा है। सच बात भी यही है कि लोकपाल ऐसा ही मुद्दा था।



     अरविन्द केजरीवाल हों या फिर जनरल वीके सिंह. जंतर मंतर पर जब जब इन लोगों ने कहा कि सिंहासन खाली करो कि जनता आती है, तब जनता ने जोश में उनके इस आह्वान को अपना समर्थन दिया | जंतर मंतर पर जो लोग आये थे वे बुलाये गये लोग नहीं थे. वे आये हुए लोग थे.|अपने से आये हुए लोगों की यह प्रतिक्रिया भविष्य के उस राजनीतिक परिवर्तन का खास संकेत कर रही है, जिसकी ओर हमारे राजनीतिक दल या बुद्धिजीवी जानबूझकर देखना नहीं चाहते | हमारा हमेशा से यह मानना रहा है कि “यदि कोई शासन व्यवस्था अपराध नियंत्रण मे अक्षम हो तो पहले उसे उचित मार्ग दर्शन देना चाहिये। यदि उससे कोई अच्छा परिणाम न निकले तो दूसरे कदम के रूप मे सत्ता परिवर्तन का मार्ग पकडना चाहिये। यदि सत्ता परिवर्तन के बाद भी स्थिति ठीक न हो तो समाज को चाहिये कि वह राजनैतिक आपात काल घोषित करके सम्पूर्ण शासन व्यवस्था अपने हाथ मे लेकर तब तक रखनी चाहिये जब तक नई राजनैतिक व्यवस्था न बने।” 

      भारत में तो पंद्रह वर्ष पूर्व ही आपातकाल की स्थितियां थी, भारत की जनता भी व्यवस्था परिवर्तन के हमेशा तैयार रही, किन्तु कोई स्पष्ट अवसर नही मिला। इस बीच सत्ता अदलती बदलती रही किन्तु कोई व्यवस्था परिवर्तन के लक्षण नही दिखे। अन्ना जी का लोकपाल आंदोलन भी कभी व्यवस्था परिवर्तन का आंदोलन नही था किन्तु निराश और भूखी जनता इसी आंदोलन के पीछे दौड पडीं। अब भारत की जनता को आभास हुआ है कि भारत की जनता व्यवस्था परिवर्तन चाहती है सत्ता परिवर्तन नहीं।



     व्यवस्था परिवर्तन क्या है, यह बात पूरी तरह तो भारत में सिर्फ लोक स्वराज्य मंच के तहत समझने की कोशिश की गई है। टीम अन्ना के अनेक साथी भी आंशिक रूप से व्यवस्था परिवर्तन को समझते हैं। व्यवस्था परिवर्तन का स्पष्ट लक्ष्य है सुराज्य प्रणाली को स्वराज्य प्रणाली मे बदलना। सुराज्य प्रणाली साठ पैसठ वर्षों से सक्रिय है जिसकी लाभ हानि हम देख चुके है। अब हम सुराज्य प्रणाली को बदलकर स्वराज्य प्रणाली लायेंगे जिसका चरम है अकेन्द्रीयकरण और प्रचलित शब्द है विकेन्द्रीकरण। भारतीय जनता पार्टी वामपंथी दल, समाजवादी दल तो घोषित रूप से केन्द्रीयकरण के पक्षधर है ओर कांग्रेस पार्टी व्यावहारिक धरातल पर केन्द्रीयकरण पर अमल करती रही है। सुराज्य व्यवस्था वर्तमान राजनेताओ के व्यक्तिगत व्यवसाय मे भी बहुत कमाई का माध्यम है। इस तरह वर्तमान समय मे सभी राजनैतिक दल सुराज्य के पक्षधर है। ऐसे समय मे टीम अन्ना ने स्वराज्य का नारा दिया है जो निश्चय ही व्यवस्था परिवर्तन की दिशा है।



     व्यवस्था परिवर्तन का सीधा सा अर्थ है, सत्ता का अधिकांश भाग केन्द्र सरकर के हाथो से निकलकर नीचे वाली इकाइयों के पास हो। नीचे की इकाइयो के विभाग भी ग्राम सभा के पास अधिक तथा उपर की इकाइयो के पास कम हों। संविधान संशोधन मे वर्तमान प्रणाली के साथ साथ किसी अन्य इकाई का भी अंकुश हो जिसके पास कानून बनाने तथा पालन करवाने का अधिकार न हो। निर्वाचित जन प्रतिनिधियों पर किसी अन्य स्वतंत्र इकाई का अंकुश हो। टीम अन्ना व्यवस्था परिवर्तन को आंशिक रूप से तो समझ रही है किन्तु बीच बीच मे किसानो की समस्या, मजदूरों की समस्या पर भी कुछ न कुछ बोल देते है जो इनकी नासमझी है। जब आप नीचे की ईकाइयों को अधिकार बांट देंगे तो आप यह क्यो कहेंगे कि हम किसानो के लिये अच्छी व्यवस्था देंगे। ऐसी बातों से तो आभास होता है कि टीम के कुछ लोगों के मन मे सुराज्य की प्रबल इच्छा है, अन्यथा आप नीचे की इकाइयों को अधिकार देने तक ही अपनी घोषणाओं को सीमित क्यो नही रखते? आप यदि कहें कि आप शराब बंद करेंगे तो प्रश्न उठता है कि शराबबंदी का निर्णय ग्रामसभा लेगी या सरकार? यदि सरकार लेगी तो आप सुराज्य और स्वराज्य का अंतर नही समझते।



     इसी तरह टीम के कई सदस्य भ्रमवश चरित्र की बार बार चर्चा करके भ्रम पैदा कर रहे हैं। चरित्र की भूमिका सुशासन मे होती है, स्वशासन में नहीं। कल्पना करिये कि एक महिला का अपहरण करके कोई ले जा रहा है। यदि कोई भ्रष्ट आतंकवादी या डकैत भी उस महिला को छुडाने तक सीमित हो तो वह महिला क्या करे? जब तक छुडाने वाला अपराधी उक्त महिला को अपने साथ ले जाने तक संदेहास्पद न हो तब तक उसके चरित्र से उक्त महिला को कोई दिक्कत नहीं होगी। चरित्रवान बूढों, खासकर गांधीवादियो मे यह खास बीमारी होती है कि वे हर मामले मे चरित्र घुसा देते है । सच बात तो यह है कि ये चरित्रवान लोग तानाशाह प्रवृत्ति के होते है। ये समाज को अपने समान चरित्रवान बनाना चाहते है। इन्हे यह मोटी मोटी बात समझनी चाहिये कि चरित्र का व्यवस्था पर विशेष प्रभाव नही पडता। व्यवस्था का चरित्र पर विशेष प्रभाव पडता है। आप बिगडी हुई व्यवस्था के साथ चरित्र की चर्चा जोडकर भूल कर रहे है। ऐसा लगता है जैसे उनके अलावा बाकी सब चरित्रहीन हो। किसी व्यवस्था को लागू करने मे चरित्र की आवश्यकता होती है न कि व्यवस्था परिवर्तन में।



     भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए अन्ना के अनशन को जिस तरह से जनता ने अपना समर्थन दिया वह इस बात का संकेत था कि जनता इस भ्रष्ट व्यवस्था से निजात पाना चाहती है। अब उसी समर्थन के बूते अन्ना हजारे ने राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तन की ओर कूच कर दिया है | हम कह सकते हैं कि अन्ना और उनकी टीम ने एक जुआ खेला है लेकिन जुए के इस खेल में अन्ना हजारे और उनकी टीम के जीत की संभावनाएं ज्यादा हैं | बस अब सावधानी यह रखनी होगी कि टीम वर्तमान संसद में खुद पहुंचने की बजाय लोक संसद की मांग के साथ जनता के बीच जाए | जनता उन्हें वह सब कुछ देगी जिसकी आज वे उम्मीद भी नहीं कर सकते।



     टीम अन्ना को कभी यह दावा नही करना चाहिये कि हम एक अच्छा प्रशासन देंगे। इन्हे यह कहना चाहिये कि सरकार का समाज के सामाजिक मामलों मे जितना ही हस्तक्षेप घटेगा उतना ही प्रशासन स्वतः ठीक होता जायगा। यदि इस प्रकार थोडी सी सतर्कता रखी गई तो टीम अन्ना इस पूरी लडाई को व्यवस्था परिवर्तन की दिशा देने मे सफल हो जायगी। आज की स्थिति मे सभी राजनैतिक दल अपना विश्वास खो चुके हैं। ये दल कभी एक हो नही सकतें। कम से कम दो ग्रुप तो रहेंगे ही। जनता का धैर्य टूटा हुआ है। अन्ना जी की छवि सभी राजनैतिक दलो के अच्छे से अच्छें लोगो से भी अच्छी है, कमजोर नहीं । व्यवस्था परिवर्तन शब्द और उसके पीछे छिपा हुआ भाव अन्य सबकी अपेक्षा ज्यादा पवित्र है।



     ऐसा कोई संदेह का आधार नही कि टीम अन्ना का नया प्रशासन पिछले किसी भी प्रशासन की अपेक्षा ज्यादा खराब ही होगा। ऐसे हालत में लगता है कि भारत की जनता व्यवस्था परिवर्तन के इस राजनैतिक विकल्प के प्रयत्न को उतना अधिक समर्थन दे सकती है जितने की कल्पना टीम अन्ना ने भी नहीं की है। भारत की जनता जब ताकत देती है तो छप्पर फाड कर देती है। यदि विश्वासघात करेंगे तो जनता लेते समय भी कंजूसी नही करती। मुझे तो स्पष्ट दिख रहा है कि भारत के वर्तमान राजनैतिक दलों ने भारतीय जनमानस के समक्ष राजनीति का जो नंगा नाच किया है उसे वापस करने में जनता कोई कंजूसी नही करेगी। इंदिरा जी के पतन और उत्थान का इतिहास गवाह है।



     हमें पंद्रह वर्ष पूर्व से प्रतीक्षा थी कि अब जनता को चाहिये कि वह सामाजिक आपातकाल घोषित करके सारी राजनैतिक शक्ति अल्पकाल के लिये अपने पास समेट ले। जनता पंद्रह वर्ष से आपातकाल तो मान रही है किन्तु समेटने का विकल्प नही मिल रहा था। अब अन्ना जी ने वह कमी पूरी कर दी है। जल्दी ही राजनैतिक दलों को आटे दाल का भाव पता चल जायगा। मै तो उस दिन की प्रतीक्षा मे हूँ जब मुझे यह सुनने को मिलेगा कि अगले चुनाव परिणाम मे भारत के सभी राजनैतिक दल पूरी तरह निपट गये है।

Friday, July 27, 2012

SOLUTION



--भारत समेत वैश्विक  समस्याओं का समाधान
     व्यक्ति और समाज एक दूसरे के पूरक भी होते है और निंयत्रक भी। व्यक्तियो से ही समाज का अस्तित्व होता है। बिना व्यक्तियो के जुडे समाज बनता ही नही। समाज के बिना भी व्यक्ति का जीना कठिन हो जाता है क्योकि सुचारू जीवन के लिये जिस व्यवस्था की आवश्यकता होती है वह समाज ही दे सकता है, कोई और नही।
व्यक्ति दो प्रकार के होते है 1. वे जो स्वतः ठीक ठीक आचरण करते है और दूसरो को ठीक ठीक आचरण करने मे सहायता करते है। ऐसे व्यक्तियो को ही सामाजिक कहा जाता है 2. दूसरे वे होते है जो लगातार दूसरों  का शोषण भी करते रहते है और अत्याचार भी। ऐसे व्यक्तियो को ही समाज विरोधी कहा जाता है। कुछ लोग इन दोनो ही श्रेणियों  मे नही होते। ये न तो स्वयं अपराध करने के अभ्यस्त होते है न ही समाज की मदद करते है। कभी कभार कोई साधारण सा अपराध कर लेने या दूसरो की सहायता कर देने वाले व्यक्तियों को असामाजिक  माना जाता है। इन्हे अच्छा व्यक्ति न मानते हुये भी समाज विरोधी न होने के कारण समाज का ही अंग माना जाता है। यदि हम भारत स्थित समाज का आकलन  करें तो यहां की कुल आबादी मे एक दो प्रतिशत ही समाज विरोधी तत्व मिलते है। शेष समाज मे कुछ  लोग सामाजिक  प्रकृति के होते हैं तो अधिकांश असामाजिक प्रकृति के । किन्तु होते हैं ये दोनो ही समाज के अंग । विश्व के अन्य देशो मे परिस्थिति अनुसार यह प्रतिशत बदलता रहता है।
समाज विरोधी व्यक्तियो से सामाजिक  व्यक्तियो की सुरक्षा की चिन्ता समाज ही करता है। समाज द्वारा सुरक्षा और न्याय के लिये एक विशेष सेल बनाया जाता है जिसे सरकार कहते है। सरकार का यही दायित्व होता है कि वह  ऐसी सुरक्षा और  न्याय की गांरटी प्रदान करे। यदि हम भारत मे सामाजिक व्यक्ति की स्थिति  का आकलन  करें  तो उसकी भौतिक सुख सुविधाओ मे काफी वृद्धि हुई है । सडक, पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि मे पर्याप्त सुधार हुआ  है किंतु सुरक्षा और न्याय के मामले मे  सामाजिक व्यक्ति बेहद  कमजोर हुआ है।  इन मामलो मे भारतीय शासन व्यवस्था पूरी तरह असफल हो गई है। भारत मे समाजविरोधी  तत्व मजबूत और सामाजिक व्यक्ति संकट ग्रस्त हैं |   यदि हम पूरे विश्व का आलकन करें  तो  पूरी दुनिया मे भौतिक उन्नति तो हो रही है किन्तु सुरक्षा और न्याय कमजोर हो रहे है ।  आम लोगो का चरित्र गिर रहा है, आतंकवाद बढ रहा  है, सामाजिक व्यक्तियो का मनोबल टूट रहा है और समाज विरोधियो का बढ रहा है। राज्य व्यवस्था असफल होती जा रही है । ऐसी स्थिति किसी क्षेत्र विशेष की होती तो कोई  बात नही होती किन्तु यदि पूरे विश्व मे ऐसा है तो संकट राज्य का न होकर समाज का मानने की आवश्यकता है। स्पष्ट है कि यह सामाजिक सोच का विषय है। समाज के समक्ष संकट कितना गहरा है उसके लक्षण क्या है तथा उसकी पहचान क्या है यह गंभीर शोध का विषय है । ये लक्षण नौ माने जाते है।

1. जब निष्कर्ष निकालने मे विचार मंथन की जगह प्रचार अधिक प्रभावकारी होने लगें-
निष्कर्ष निकालने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है विचार और विचारो को ठीक दिशा देने का आधार है विचार मंथन। बहुत प्राचीन काल मे सामाजिक विषयो पर भी निष्कर्ष निकालने मे विचार मंथन की अग्रणी भूमिका रही है । नितान्त पारिवारिक या व्यक्तिगत मामलो मे भी यह प्रक्रिया जारी रही है । आज भी इस प्रणाली की उपयोगिता अमरीकी  राष्टपति  चुनाव  मे देखी जा सकती है । किन्तु सम्पूर्ण विश्व मे निष्कर्ष निकालने  मे विचार मंथन की प्रकिया समाप्त हो रही है और विचारो का स्थान भावनाएं ले रही है । विचार  निष्कर्ष निकालता है मंथन के माध्यम से और भावनाएं निष्कर्ष निकालती है प्रचार से प्रभावित होकर।  पूरे विश्व मे तेजी  से विचार मंथन का स्थान विचार प्रचार ने ग्रहण कर लिया है । पिछले दो तीन हजार सालो से यह बीमारी शुरू हुई और अब तो इसने महामारी का रूप धारण कर लिया है । मृत महापुरुषों  के विचार बिना स्वयं मंथन किये ही यथावत समाज तक पहुचाने की घातक पंरपरा निंरतर फल फूल रही है । नित नये नये  संगठन बन रहे है। आधुनिक भारतीय महापुरुषों  के रूप मे जिन  स्वामी दयानन्द, महात्मा गाधी या पं० श्री रामशर्मा ने अपना सम्पूर्ण निष्कर्ष विचार मंथन प्रकिया से निकाला था उन्ही के शिष्यो ने विचार मंथन की प्रकिया को त्याग कर सिर्फ विचार प्रचार को ही अपना उद्देश्य  मान लिया है। ये लोग नही सोचते कि निष्कर्ष निकालने और उन्हे क्रियान्वित करने मे देश काल परिस्थिति की भी भूमिका हुआ करती है। यदि वे महापुरूष जीवित रहते तो देश काल परिस्थिति अनुसार अपने निष्कर्ष की समीक्षा भी करते और संशोधन भी किन्तु उनके जाते ही हम विचार मंथन को रोककर सिर्फ प्रचार में लग जाते है। विदेश-आधारित संगठनो मे इस्लाम ने सदा के लिये इस पंरपरा पर रोक ही लगा दी है, ईसाइयत मे भी यह पंरपरा आंशिक ही है। एकमात्र माकर्सवादी ही ऐसे है जो इस पंरपरा को जीवित रखे है यद्यपि उनमे भी यह पंरपरा आन्तरिक संगठन तक ही सीमित है, सामाजिक विषयो पर नही।
इस घातक पंरपरा का बहुत अधिक नुकसान समाज व्यवस्था को भुगतना पड रहा है । नये नये गंभीर विचार सामने नही आ पा रहे। प्रचार माध्यम से समाज को प्रभावित करने के लाभ से सब लोग आकर्षित है। प्रचार के नये नये तरीके खोजे जा रहे है। असत्य भी प्रचार के माध्यम से सत्य के समान स्थापित होने लगे है। नये नये संगठन बनने की होड मची हुई है। प्रचार दौड मे चरित्र की कोई आवश्यकता ही नही समझी जा रही है । अंधी दौड मे अधिक से अधिक लोगो को आंख पर पट्टी  बांधने हेतु प्रेरित करने की होड मची है जबकि उन्ही महापुरूषो ने अपने जीवन काल मे समाज को लगातार पट्टी  न बांधने की शिक्षा दी थी।

2. संचालक और संचालित के बीच बढती दूरी- 
समाज की ठीक ठीक व्यवस्था के लिये प्रत्येक व्यक्ति मे भावना और बुद्धि का समन्वय आवश्यक होता है। यदि बुद्धि की मात्रा अधिक हो जाए  तो वह धूर्तता का मार्ग पकड लेती है और यदि भावना बहुत हो जाए  तो मूर्खता मे बदल जाती है। इन दोनो के समन्वय  का अभाव हो गया है। यही कारण है कि समाज मे संचालक और संचालित के बीच की दूरी लगातार बढती जा रही है। इन्हे अंग्रजी मे कंट्रोलर और कंट्रोल्ड के रूप मे भी कहा जाता है। यह दूरी लगातार राजनैतिक क्षेत्र मे भी बढ रही है और धार्मिक क्षेत्र मे भी। हर संचालक पूरा पूरा प्रयत्न कर रहा है कि उस पर विश्वास कर रहा  संचालित लगातार भावना प्रधान बना रहे क्योकि बुद्धि या विवेक का विस्तार इस दूरी को कम कर सकता है जिसका दुष्परिणाम होगा संचालक की स्वार्थ पूर्ति मे कमी। सभी तरम के संचालक  संचालित को कर्तव्यों की प्रेरणा देते है और स्वयं अधिकारो की चिन्ता करते रहते है। राजनेताओ मे तो यह स्वभाव ही बन गया है । प्रत्येक राजनेता सम्पूर्ण समाज को सिर्फ कर्तव्य की ही प्रेरणा देता रहता है किन्तु स्वयं हर क्षण अपने अधिकारो के लिये संघर्ष करता रहता है । इसी तरह प्रत्येक संचालक अपने अधीन संचालित को हर  पल दान और त्याग की प्रेरणा देता है किन्तु संचालक स्वय हर पल संग्रह मे लगा रहता है। दान और संग्रह का यह खेल धार्मिक क्षेत्र मे भी लगातार चलता रहता है और राजनैतिक क्षेत्र मे भी । संचालित के अंदर दान प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने के लिये आजकल नये नये तरीके भी निकाले  जा रहे है । राजनेताओ ने जन कल्याण के नाम पर नागरिक के अधिकतम  धन और अधिकारो को अपने पास समेट लिया है । दूसरी ओर धार्मिक गुरूओ ने भी ट्रस्ट, अनेक संस्था और ईश्वर के नाम पर अपनी आर्थिक शक्ति बहुत मजबूत कर ली है । संचालक और संचालित के बीच एक संबंध और बन रहा है कि हर संचालक संचालित को ज्ञान तो दे नही रहा। या तो सुविधाएं दे रहा है या शिक्षा। ज्ञान व्यक्ति को आत्म निर्भर बनाता है और सुविधा बनाती है आश्रित । वर्तमान शिक्षा तो केवल मनुष्य  में निहित क्षमता के विस्तार मात्र का दूसरा नाम भर है |  राजनेता नागरिक को स्वावलम्बी बनने मे सहायक न होकर उसे ऐसी सुविधाएं दे रहा है ताकि वह हमेशा राज्य का मुखापेक्षी बना रहे । धर्म गुरु  भी  अपने शिष्यो को  कर्मकान्ड तथा रूढ़िवादिता तक ही सीमित रखना चाहते है। यही कारण है कि हर गुरू या राजनेता समाज मे विचार मंथन को निरूत्साहित करके विचार प्रचार को बढावा देता है  तथा विवेक जागरण के स्थान पर लगातार भावनाओ के विस्तार के प्रयत्न भी करता रहता है क्योकि वह भली भांति समझ चुका है कि मंथन रहित प्रचार ही उसके स्वयं के विस्तार का टानिक है।

3. राजनीति और समाज सेवा का व्यवसायीकरण – 
दुनिया मे कही भी और कभी भी न राजनीति को व्यवसाय माना गया न समाज सेवा को । भारत मे भी ऐसा कभी नही हुआ । प्राचीन समय मे व्यवसायी यदि चाहता था तो अपना अतिरिक्त धन  धर्मशाला, कुंआ, मुफ्त भोजन या दानपुण्य के रूप मे समाज  सेवा मे निस्वार्थ खर्च किया करता था। राजा भी यदि न्याय और सुरक्षा के बाद कुछ करना चाहता था तो वह समाज सेवा मे अपना निस्वार्थ योगदान किया करता था। तीनो का बिल्कुल पृथक पृथक कार्य क्षेत्र था। कोई किसी के कार्य मे हस्तक्षेप नही करता था। समाज सेवा पूरी तरह निस्वार्थ होने से उसे राजनीति या व्यवसाय की अपेक्षा अधिक सम्मान प्राप्त था । जब अंग्रेजो ने भारतीय व्यवस्था मे प्रवेश किया तो उन्होने व्यवसाय के माध्यम से राज्य पर कब्जा किया। इसलिये राज्य व्यवस्था और व्यापार को एक साथ जोडकर पुंजीवाद शुरू हुआ। पूँजीवाद मे राज्य व्यवस्था व्यवसाय के अन्तर्गत हो गई। कुछ समय पश्चात  कुछ देशो मे साम्यवाद आया तो उसने तानाशाही शासन की स्थापना की। अर्थात सम्पूर्ण व्यवसाय ही  राज्य व्यवस्था के अधीन हो गया। चूंकि व्यवसाय और राज्य व्यवस्था एक साथ जुड गये थे इसलिये समाज सेवा का भी राजनीतिकरण हुआ। फिर भी समाज सेवा का व्यसायीकरण नही हुआ था। पिछले कुछ वर्षो से समाज सेवा का भी व्यवसायीकरण शुरू हो गया । चाहे एन. जी. ओ. के नाम से हो या किसी और नाम से किन्तु अनेक समाज सेवी संस्थाएं समाज सेवा को व्यापार समझ भी रही है और कर भी रही है । अब तो पता ही नही चलता कि कौन सामाजिक कार्यकर्ता गुप्त रूप से कहां से और कितनी मात्रा मे समाज सेवा के नाम पर धन प्राप्त कर रहा है। वह उस धन  से  समाज सेवक भी बनकर धूम रहा है । कई सन्यासी का रूप धरकर इस व्यवसाय मे लिप्त है। समाज सेवा का व्यवसायीकरण भी एक गंभीर चिन्ता का विषय है।

4. भौतिक पहचान का संकट- 
व्यवस्था को ठीक से चलने मे कुछ निश्चित समूहो की भौतिक पहचान की भी व्यवस्था रही है। सम्पूर्ण विश्व मे कई रूपो मे यह व्यवस्था है जो भारत मे भी रही है। पुलिस या वकील की ड्रेस  उसका एक उदाहरण है। प्राचीन समय मे गुण कर्म स्वभाव अनुसार वर्ण व्यवस्था बनाकर यज्ञोपवीत के विभिन्न रूपो मे यह पहचान बनाई गई थी । सन्यासियो के लिये भी एक विशेष वेषभूसा का प्रावधान था । विवाहित अविवाहित महिलाओ के लिये कुछ भिन्न पहचान थी। यहां तक कि समाज बहिष्कृत  लोगो की भी अलग पहचान बनी हुई थी।
कुछ स्वार्थी तत्वो ने जन्मजा वर्ण जाति व्यवस्था को जन्म किया। यहीं  से व्यवस्था छिन्न भिन्न होनी  शुरू हुई । इस परिवर्तन का दुष्प्रभाव स्वाभाविक था । कुछ सन्तो ने इसे ठीक करने का प्रयास शुरू किया किन्तु कुछ राजनीतिक स्वार्थ वालो ने इस दूषित  व्यवस्था का लाभ उठाने के उदेश्य से इस सुधार के प्रयत्न को विफल कर दिया। टूटती हुई जातीय पहचान जहां और टूटनी चाहिये थी वहा तो मजबूत होने लगी और जहा मजबूत होनी चाहिए थी वहां  टूटनी शुरू हो गई । सम्पूर्ण  भारत मे पुलिस विभाग की एक निश्चित पहचान बनी हुई है। खाखी वर्दी पर एक निश्चित प्रकार का बेल्ट और कंधें पर निश्चित पहचान चिन्ह। सम्पूर्ण समाज मे सन्यासी की एक अलग पहचान है । उनके वस्त्रों का रंग, उनके बाल या अन्य रहन सहन दूर से ही उनकी भौतिक पहचान करा देती है । दस बीस वर्षो पूर्व तक राजनैतिक प्रतिष्ठा की प्रतीक खादी बनी हुई  थी । आज भी कुछ मात्रा मे खादी का सम्मान बचा हुआ है । कल्पना करिये कि नक्सलवादी भी गुप्त रूप से पुलिस के समान ही ड्रेस और पहचान चिन्ह का उपयोग करने लगे या रावण भी सीताहरण के लिये साधू वेश  का उपयोग करके अपना उदेश्य पूरा कर ले तब व्यवस्था का क्या स्वरूप होगा? हम आज की स्थिति की समीक्षा करें तो आंतकवादी खुले आम पुलिस ड्रेस का उपयोग करने लगे है । न्यायालय मे एक विशेष प्रकार की पहचान ड्रेस  पहन कर ही वकील आंतकवादियो की कानूनी  सहायता कर सकते है किन्तु आज तो ऐसे आंतकवादियो की सहायता करने वालो को काला कोट भी नही पहनना पडता। उनके लिये किसी मानवाधिकार युनिट का बोर्ड ही ऐसे आंतकवादियो की सामाजिक से लेकर कानूनी मदद के लिये पर्याप्त है । यदि ऐसा बोर्ड अंग्रेजी मे हो तो उन्हे विदेशो से आर्थिक सहायता मिलने मे आसानी होती है और समाज मे रोब जमाने मे भी सुविधा होती है । सन्यासी की पहचान भी कठिनाई पैदा कर रही है । बडे बडे नामी सन्यासी खुले आम चुनाव लडने लगे है । कुछ सन्यासी या साध्वियां  तो अपनी भौतिक या राजनैतिक इच्छाओ की पूर्ति के लिये सन्यासी की पोशाक को सर्वाधिक उपयुक्त मानने लगे है । खादी का हाल तो आप देख ही रहे है । उसकी तो विश्वसनीयता अब समाप्त ही हो गई है। जैन समाज मे तो सन्यास विरुद्ध  आचरण पर कुछ रोक है भी अन्यथा अन्य सभी सामाजिक राजनैतिक पदो पर भौतिक  पहचान लगातार खतरे मे पड रही है । कोइ पहचान समाप्त होना बडा खतरा नही होता । बडा खतरा यह है कि स्थापित पहचान मे नकली धूर्त प्रवेश करके लाभ उठा ले और कोई  कानून या सामाजिक व्यवस्था उसे रोकने मे सफल न हो पावे । खादी तो अपनी पहचान खो देने के कारण कोइ प्रभाव नही डाल रही किन्तु गेरूआ वस्त्र, मानवधिकार संगठनो के बोर्ड, या पुलिस ड्रेस तो समाज को धोखा देने मे आज भी भूमिका अदा कर ही रहे हैं। पहचान का यह संकट सम्पूर्ण विश्व मे लगातार बढ रहा है और खतरनाक बिन्दु तक पहुंच रहा है।

5. समाज का टूटकर वर्ग मे बदलना- 
समाज की अनेक परिभाषाए प्रचलित है उनमे से एक उपयुक्त परिभाषा यह है:- "स्वयं विकसित दीर्घ कालिक नियम पालन से प्रतिबद्ध व्यक्तियों का समूह"। इस परिभाषा अनुसार समाज विरोधी व्यक्ति समाज का अंग नहीं माना जा सकता। समाज की मूल इकाई है व्यक्ति और व्यवस्था की पहली इकाई परिवार, दूसरी गांव या वार्ड, तीसरी देश, चौथी विश्व हो सकती है । गांव और देश के बीच की इकाइयो को मान भी सकते है और नही भी क्योकि ये सर्वदा चलायमान होती है । समाज स्वयं मे अमूर्त इकाई है। परिवार से लेकर विश्व तक की प्रत्येक इकाई अपने से उपर की इकाई की पूरक तथा नीचे वाली इकाई की संरक्षक होती है। इसका अर्थ हुआ कि हर इकाई अपने से ऊपर की इकाई को शक्ति देती है और नीचे की इकाई को देती है सुरक्षा की गारंटी।
अपनी इकाईयो को निश्चित सुरक्षा और न्याय के लिये समाज का एक विशेष सेल होता है जिसे राज्य कहते हैं। अब तक सम्पूर्ण विश्व की कोई एक राज्य व्यवस्था नही बनी है इसलिये पूरा विश्व कई सौ स्वतंत्र राज्य व्यवस्थाओ मे बटा हुआ है। इन सब राज्यो की व्यवस्थाओ मे कुछ भिन्नता तो स्वाभाविक रूप से होती ही  है किन्तु ऐसे सभी राज्यो की व्यवस्थाओ मे एक समानता पाई जाती है कि राज्य सामाजिक एकता को अपनी उच्चशृंखलता   के लिये बाधक समझ कर लगातार ऐसी एकता के विरूद्ध प्रयत्नशील रहता है। साम्यवादी, तानाशाह या इस्लामिक देशो मे ऐसा खतरा न के बराबर होता है क्योकि ऐसे देशो मे व्यक्ति को समाज का अंग नही माना जाता ओर व्यक्ति को सिर्फ नागरिक अधिकार ही दिये जाते है मौलिक या प्राकृतिक नही। किन्तु लोकतंत्र  मे व्यक्ति को मानव समाज का अअंग मानकर उसे नागरिक अधिकार के साथ कुछ मौलिक या प्राकृतिक अधिकार भी देने की प्रथा है। इसलिये लोकतांत्रिक देशो की राज्य व्यवस्थाए सामाजिक एकता के विरुद्ध ज्यादा चौकन्नी  और सतर्क रहती है। भारत भी ऐसा ही लोकतात्रिक देश है।
समाज की  एकजुटता के खतरे से बचाव के लिये राज्य दो तरीके से सक्रिय रहता है- १. समाज की प्राथमिक इकाई परिवार और ग्राम या वार्ड को हमेशा कमजोर करते जाना २. समाज को किसी एक या एक से अधिक आधारो पर वर्ग निर्माण, वर्ग विद्वेष तथा वर्ग संघर्ष की दिशा मे लगातार प्रोत्साहित करना। पूरा विश्व लगातार दोनो दिशाओ मे सक्रिय रहता है किन्तु भारत इस दिशा मे बहुत अधिक सकिय है। दुनिया के किसी भी अन्य देश से अधिक । यहां समाज व्यवस्था की प्राथमिक इकाई परिवार और गांव को व्यवस्था मे शामिल ही नही किया गया।
भारतीय संविधान मे न कहीं  परिवार व्यवस्था का उल्लेख किया गया है न ही ग्राम व्यवस्था का। ये दोनो शब्द ही संविधान मे शामिल नही है। इसके विपरीत समाज को तोडने के उदेश्य से हर बात राज्य व्यवस्था मे शामिल रहती है। पूरी दुनियां मे चार प्रकार की शासन व्यवस्थाए पाई जाती है
1.   पश्चिम का लोकतंत्र  जिसमे व्यक्ति  महत्वपूर्ण होता है तथा राज्य, धर्म और  समाज गौण |
2.   साम्यवाद जिसमे राज्य सर्वाधिक शक्ति सम्पन्न होता है तथा व्यक्ति, धर्म तथा  समाज गौण |
3.   इस्लाम का धर्म तंत्र जिसमे धर्म सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है तथा व्यक्ति, राज्य, समाज गौण |
4.    वैदिक काल की समाज व्यवस्था जिसमे समाज सर्वशक्तिमान था तथा राज्य, व्यक्ति, धर्म गौण।
गुलामी काल के बाद भारत का जो संविधान बना उसमे धर्म राज्य तथा व्यक्ति को तो भिन्न भिन्न स्वरूपो मे शामिल किया गया किन्तु समाज के प्रमुख अंग परिवार व्यवस्था, गांव व्यवस्था को बिल्कुल दूर कर दिया गया। भारतीय संविधान ने समाज को तोडकर रखने के आठ आधारो को इस प्रकार संविधान का भाग बना दिया कि ये आठो आधार वर्ग निर्माण वर्ग विद्वेष और वर्ग संघर्ष की पृष्ठ भूमि तैयार करते रहे । ये आठ आधार हैं:-
1 धर्म: 2 जाति: 3 भाषा: 4 क्षेत्रीयता: 5 लिंग: 6 उम्र: 7 गरीब/अमीर: 8 उत्पादक/उपभोक्ता:। भारत का प्रत्येक राजनैतिक दल इन आठों  आधारो पर वर्ग संघर्ष का ताना बाना बुनते रहता है। भारत की तो आज यह स्थिति हो गई है कि यहा अनेक वर्ग ही स्वयं को  समाज घोषित करने लगे है । वर्ग सघर्ष ही इनकी सामाजिक एकता मान ली जाती है । ऐसी वर्ग विभाजन की स्थिति भारत मे निरंतर बढती जा रही है।

6     निष्प्रभावी राज्य व्यवस्था-
समाज विरोधी तत्वो से समाज की सुरक्षा के लिये जो व्यवस्था बनाई जाती है उसे राज्य कहते है। राज्य का दायित्व होता है कि वह समाज को उसकी स्वतंत्रता की सुरक्षा की गारंटी दे। राज्य यदि ऐसा न कर सके तो यह उसकी विफलता मानी जाती है। राज्य का कर्तव्य है कि वह अपना नियंत्रण समाज विरोधी तत्वो तक ही सीमित करे और समाज की स्वतंत्रता पर कोई भारी अंकुश न लगावे । यदि राज्य अनिवार्य स्थिति के न होते हुए भी समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता पर कोई अंकुश लगाता है तो यह राज्य की उच्चशृंखलता मानी जाती है । इसका अर्थ यह हुआ कि समाजविरोधी तत्वो पर राज्य का और राज्य पर समाज का नियंत्रण होना चाहिये । हम भारत मे समाज राज्य तथा समाज विरोघी तत्वो के वास्तविक संतुलन की समीक्षा करे। भारत मे सम्पूर्ण समाज अपने को असुरक्षित महसूस  कर रहा है। सभी प्रकार के अपराध बढते ही जा रहे है। वैसे तो सम्पूर्ण विश्व मे ही ऐसी स्थिति हो गई है किन्तु भारत मे तो हिंसा, आतंक, मिलावट,  बलात्कार आम बात बन गये है। समाज विरोधी तत्वो  का मनोबल लगातार बढ रहा है । इसके ठीक विपरीत राज्य पर समाज का अंकुश रहा ही नही। वोट देने का अधिकार छोडकर शेष सारे अधिकार राज्य ने अपने पास समेट लिये हैं। रोज नये नये कानून बन रहे है। समाज लगभग गुलाम हो गया है। जिस राज्य को समाज के नियंत्रण मे रहना चाहिये था उस पर समाज का कोई नियंत्रण नही है। इसके विपरीत जिन समाज विरोघी तत्वो पर राज्य का नियंत्रण होना चाहीये था ऐसे समाज विरोधी तत्वो का ही राज्य व्यवस्था पर नियंत्रण स्थापित हो गया है।

7  मानव स्वभाव ताप वृद्धि-
सम्पूर्ण विश्व के मानव स्वभाव मे हिंसा के प्रति समर्थन बढता ही जा रहा है । यह मानव स्वभाव ताप वृद्धि लगभग सम्पूर्ण  विश्व  मे एक समान ही बढ रही है | हमारे सभी महापुरूष शान्ति का उपदेश देते रहे हैं। बुद्ध और महावीर ने तो अहिंसा को सिद्धान्त ही घोषित कर रखा था। वर्तमान काल मे गांधी जी ने भी अहिंसा   के प्रचार मे पूरी शक्ति लगाई । आज बुद्ध  महावीर और गांधी के भारत मे अशान्ति और हिंसा का वातावरण देखते ही बनता है। गांधी  की जन्म भूमि गुजरात और कर्मभूमि महाराष्ट में अहिंसा लगातार कमजोर हो रही है । प्रत्येक व्यक्ति के मन मे हिंसा के प्रति विश्वास बढा है। आमतौर पर एक कहावत सुनने  में आती  है कि पहले आक्रमण विजय की सफल कुंजी होती है।
हिंसा क्यो बढ रही है? मानव स्वभाव क्यो बदल रहा है? इन बातो पर हम अलग से विचार मंथन करेगे किन्तु यह बात निर्विवाद है कि मानव स्वभाव हिंसा की दिशा मे बदल रहा है । अभी दुनिया भर के समाजशास्त्री पर्यावरणीय ताप वृद्धि की चिन्ता के  लिये दोहा मे बैठे थे और लम्बा विचार मंथन किये । पर्यावरणीय ताप वृद्धि का दुष्परिणाम आने मे जितना समय लगेगा उसकी अपेक्षा बहुत कम समय मे ही मानव स्वभाव ताप वृद्धि के दुष्परिणामों  का खतरा मंडरा रहा है किन्तु आश्चर्य है  कि इस समस्या पर गंभीर विचार मंथन के लिये कोई सम्मेलन नही हो रहा । इस स्वभाव परिवर्तन के परिणाम स्वरूप तो भाई भाई के बीच भी आक्रोश और हिंसा का वातावरण बढता जा रहा है किन्तु अहिंसा और शान्ति के असफल नारों के अतिरिक्त इस दिशा मे चिन्तन या प्रयत्न लगभग शून्य ही है। इसके विपरीत समाज को दो विपरीत दिशाओ मे संगठित करने का प्रयत्न लगातार जारी है जिसमे से एक है अहिंसा के नाम पर कायरता का प्रचार । दुर्भाग्य से यह प्रचार राज्य व्यवस्था को भी न्यूनतम हिंसा का पाठ पढाकर उसे कमजोर कर रहा है और ऐसे कायर या नासमझ लोग अपनी अहिंसा के समर्थन मे गांधी तक के नाम का उपयोग करते हैं। दूसरी ओर है संघर्ष के नाम पर सामाजिक टकराव को प्रोत्साहन।  दुर्भाग्य से यह प्रचार राज्य व्यवस्था के विरूद्ध भी समाज को हिंसा का पाठ पढाकर अपनी ही ताकत को कमजोर कर रहा है। ऐसी  हिंसा के समर्थक लोग स्वार्थवश या नासमझी मे सुभाष और भगतसिह तक के नाम का उपयोग करते रहते है। बिल्कुल साफ दिखता है कि राज्य को न्यूनतम बलप्रयोग के स्थान पर संतुलित बल प्रयोग का मार्ग अपनाना चाहिये तथा लोंकतत्र मे सामाजिक हिंसा या  बल प्रयोग का कोई स्थान होता ही नही। दुख है कि दो विपरीत विचार समाज मे हिंसा को प्रोत्साहित करते जा रहे हैं।

8.  मानव स्वभाव स्वार्थ वृद्धि- 
     जिस तरह मानव स्वभाव मे आक्रोश  और हिंसा का विस्तार हो रहा है उसी तरह मानव स्वभाव मे स्वार्थ की मात्रा भी बढती ही जा रही है । सभी महापुरूषो के त्याग के उपदेश और प्रवचन निष्प्रभावी हो रहे है  और मानव स्वभाव स्वार्थ प्रधान होता जा रहा है। मानव स्वभाव मे स्वार्थ क्यो बढ रहा है और उसका समाधान क्या है यह समाज के सोचने का पृथक विषय  है किन्तु स्वार्थ बढ रहा है यह निर्विवाद सत्य है। स्वार्थ वृद्धि ने सारे पारिवारिक समीकरण भी बिगाड दिये है और सामाजिक समीकरण भी । पति-पत्नी ,पिता-पुत्र, भाई-भाई मित्र-मित्र के रिश्ते कलंकित हो रहे है । आपसी अविश्वास बढ रहा है । हर मामले मे स्वार्थ प्रधान व्यक्ति आगे बढ रहा है और निस्वार्थ पीछे जा रहा है। सम्पूर्ण मानव समाज के स्वभाव मे औसत स्वार्थ वृद्धि का प्रतिशत उसी तरह लगातार बढ रहा है जिस तरह हिंसा की मनोवृत्ति बढ रही है।

9. धर्म और विज्ञान के बीच बढती दूरी-
धर्म और विज्ञान एक दूसरे के पूरक है। ‘‘विज्ञान का आधार होता है तर्क और अनुसंधान जबकि धर्म का आधार होता है श्रद्धा और विश्वास।‘‘ विज्ञान निष्कर्ष  निकालता है और घर्म समाज तक पहुचाता है। ‘‘विज्ञान बुद्धि प्रधान कार्य है और धर्म भावना प्रधान आचरण।‘‘ विज्ञान लंगडा है और धर्म अंधा। इसीलिये दोनो को एक दूसरे का पूरक तथा सहयोगी माना जाता है।
वर्तमान समय मे धर्म और विज्ञान के बीच दूरी बढने लगी । विज्ञान आवश्यकता से अधिक भौतिकवाद की दिशा मे जाता दिख रहा है और धर्म आवश्यकता से अधिक रूढिवादी अंधविश्वास की राह पर। धार्मिक संगठन  तर्क को अनावश्यक सिद्ध करने मे जी-जान से जुटे है और वैज्ञानिक धार्मिक आस्थाओ पर चोट करने मे शक्ति लगा रहे है ।  कुछ असत्य धारणाए यदि घातक नही है तो उसके पीछे पडने की जरूरत ही क्या है। किन्तु विज्ञान का नाम लेकर ऐसी अनावश्यक असत्य धारणाओ को असत्य प्रमाणित करने मे बहुत अधिक शक्ति लगाई जा रही है।
धर्म और विज्ञान के बीच बढती दूरी सम्पूर्ण समाज मे भ्रम पैदा कर रही है । ऐसा भ्रम बहुत नुकसान कर रहा है । प्रकृति के अनसुलझे रहस्यो को असत्य सिध्द करना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं । किन्तु विज्ञान ऐसा कर रहा है। दूसरी ओर आस्था पर टिकी जो अवैज्ञानिक धारणाये असत्य या अनावश्यक प्रमाणित हो चुकी है उन्हे जबरदस्ती भावनात्मक प्रचार द्वारा सत्य सिद्ध करना घातक ही है। धर्म लगातार ऐसा कर रहा है।

उपरोक्त नौ आधारो पर हम कहने की स्थिति मे है कि समाज संकट मे है । यदि उपरोक्त नौ मे से कोई एक भी लक्षण दिखने लगे तो वह सम्पूर्ण समाज को अव्यवस्थित तथा बीमार करने के लिये पर्याप्त है। ऐसा लक्षण किसी गंभीर बीमारी का लक्षण मात्र ही न होकर बीमारी के विस्तार मे भी सहायक हो रहा है। किन्तु यदि हम ठीक से आकलन करे तो वर्तमान समय मे तो सभी नौ के नौ  लक्षण समाज मे उपस्थित भी है और बढ  भी रहे है। इसीलिये वर्तमान समय को आपात्काल सरीखा मान कर विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता है।
संकट विश्वव्यापी है। समाधान कठिन है। यदि गंभीरता से विचार करे तो समस्याएं जितनी व्यापक और प्रभाव वाली है उनके समक्ष हमारी शक्ति  बहुत कम है किन्तु दूसरी ओर यह बात भी सच है कि समाधान करना ही होगा और इस समाधान मे जितना विलम्ब होगा समस्या उतनी ही बढती जायगी । इसलिये हमे इस समस्या का कोई ऐसा प्रतीकात्मक समाधान करना होगा जिसमे संगठन बनाने की  आवश्यकता न हो, प्रचार की भी आवश्यकता न हो, किसी व्यक्ति विशेष की विशेष पहचान भी न बनानी पडे और लोगो के बीच किसी प्रकार की विशेष सकियता की भी आवश्यकता न हो । धर्म समाज सेवा या राजनीति का चोला पहने कौन व्यक्ति हमारे बीच गुमराह कर रहा है ऐसी कोई पहचान जब तक नही होती तब तक उस दिशा मे बढने की आवश्यकता ही नही है। 
इसलिये "स्वतंत्र विचार मंथन" ही इस समस्या का एकमात्र समाधान है। इस के तीन शब्द हैं 1 स्वतंत्र 2 विचार 3 मंथन। इन तीनो शब्दो को जोडकर स्वतंत्र विचार मंथन शब्द बना है।  इस विधि मे स्वतन्त्र  शब्द का आशय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति एक इकाई होगा। वह स्वयं स्वतंत्रता पूर्वक निष्कर्ष निकालेगा। किसी भी रूप मे सामूहिक निर्णय या निष्कर्ष नही निकलेगा । क्योकि यदि सामूहिक निष्कर्ष निकालने की पंरपरा रही तो अन्तिम निष्कर्ष वही निकलेगा जो नेता, पूंजीपति, धूर्त, या बडे अपराधी चाहेंगे। इसलिये विचार मंथन मे निष्कर्ष व्यक्तिगत ही निकलना चाहिये। ऐसे निष्कर्ष निकालने के बाद कोई कार्यक्रम करना हो तब योजना सामूहिक बन सकती है। दूसरा शब्द है विचार। विचार शब्द का अर्थ है कि इस विचार मंथन के बाद या पूर्व में किसी निष्कर्ष के आधार पर तत्काल कोई कार्य नही होगा। इसमे सिर्फ विचार ही होगा। चूंकि इसमे कोई सामूहिक  निष्कर्ष नही निकालना है और न ही कोई सामूहिक योजना बननी है इसलिये क्रिया तो वैसे भी इसमे शामिल नही फिर भी योजना या कार्यक्रम को विचार से दूर रखने के लिये विशेष सतर्कता रखनी होगी। तीसरा शब्द है मथंन। इस शब्द का अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है कि निष्कर्ष  निकालने के लिये प्रवचन, भाषण, शिक्षा, उपदेश या अन्य किसी विधि का उपयोग नही होगा । सिर्फ विचारो का मंथन ही पर्याप्त है। इस तरह इस विधि मे अकेले या अन्य लोगो के साथ बैठकर किसी असम्बद्ध विषय पर स्वतंत्र विचार मंथन करना है। यदि मंथन करने वाले एक से अधिक हो तो भी कोई निष्कर्ष या प्रस्ताव पारित नही करना है।
यह एक अत्यंत ही साधारण दिखने वाली प्रकिया है । यह प्रयोग मासिक भी हो सकता है और साप्ताहिक भी या दैनिक भी । इस प्रयोग का परिणाम अप्रत्यक्ष और अदृश्य होता है किन्तु इससे प्रचार का प्रभाव तो अपने आप ही कम होने लगता है क्योकि विचार मंथन और विचार प्रचार एक जगह पर रह ही नही सकते। विचार मंथन गुरू शिष्य या संचालक संचालित के भेद को भी कम करता है क्योकि सब लोग समान स्तर पर बैठकर चर्चा करेगे। इससे समाज सेवा का व्यवसायीकरण भी रूकेगा ही । क्योकि प्रचार से भी यह क्रिया प्रक्रिया बिल्कुल दूर है और  योजना से भी । भौतिक पहचान का इसमे कोई संकट नही है । नकली लोग ऐसे मंथन से या तो दूर रहेगे  या आकर फंस जायेगे। नकली लोग अन्त मे निष्कर्ष भी निकालेगे और प्रस्ताव भी पारित करेगे क्योकि यही सकियता उन्हे समाज मे सम्मान जनक स्थान स्थापना मे सहायक होती है। दोनो काम इसमे हैं नही। निष्कर्ष  निकालना नहीं है। उनकी स्थापना होनी नही है । समाज को कोई धोखा देने का  अवसर ही नही है तो वे ऐसा बेकार का भूसा  क्यो कूटे जिसमे से कोई दाना निकलने की गुंजाइश ही नही। 
इस स्वतंत्र विचार मंथन से सर्वाधिक लाभ होता है वर्ग निर्माण, वर्ग, विद्वेष और वर्ग संधर्ष के विरूद्ध। जब समाज के सब प्रकार के लोग बिना भेद भाव के निरूद्देश्य एक साथ बैठकर विचार मंथन करते है तो जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्रीयता के टकरावपूर्ण बंधन अपने आप ढीले होने लगते है। इससे राज्य और समाज के बीच की दूरी धटती है। राज्य की सार्वभौमिक शक्ति को मौन चुनौती होती है। कई मामलो मे यह शक्ति राज्य के अच्छे कार्यो मे सहायक भी हो सकती है और कई गलत कार्या मे भयोत्पादक भी। इस विचार मंथन प्रकिया से हिंसा तथा स्वार्थ की प्रवृत्ति का भी अपने  आप शमन होता है। साथ ही यह योजना धर्म और विज्ञान के बीच की बढती दूरी भी कम कर सकती है । यह योजना ऐसी  सभी समस्याओ का यह एकमात्र अच्छा समाधान है क्योकि यह विध्वंसक परिणामो पर नियंत्रण के साथ साथ सार्थक परिणाम भी देती है । इससे प्रत्येक व्यक्ति का विवेक जागृत होता है तथा आत्मस्वाभिमान भी मजबूत होता है और इन दोनो का जागरण व्यक्ति के चरित्र पर व्यापक प्रभाव डाल सकता है।
पाठकों को समस्याओ की विकरालता को देखते हुए इस समाधान की सार्थकता पर विश्वास नही होगा । सच भी है कि क्या विशालकाय हाथी और चींटी के बीच कोई तुलना संभव है। ऐसे तर्क मे तब तक दम है जब तक हम इन विशालकाय समस्याओ से प्रत्यक्ष टकराव की योजना बनाते हों। हम कही भी टकराने की तो पहल कर ही नही रहे। हम तो सिर्फ निरूद्देश्य स्वतंत्र विचार मंथन कर रहे है जिसमे कोइ टकराव शून्य है और परिणाम प्रभावकारी है।   इस विचार मंथन के माध्यम से हम आपको मानसिक व्यायाम की सलाह दे रहे हैं |  आज तक दुनिया मे शारीरिक व्यायाम के मार्ग बताये गये है । बाबा रामदेव जी ने तो इस दिशा मे का्न्ति ही की है। इसका लाभ भी हुआ ही है । किन्तु अब तक मानसिक व्यायाम की कोई सरल विधि विकसित नही हो पाई है। बिना मानसिक व्यायाम के शान्ति संभव नही है क्योकि दूसरो द्वारा दिये गये प्रवचन उपदेश समाधान  कम और विकृति ज्यादा पैदा कर रहे है। इसलिये वर्तमान परिस्थितियो मे यही मार्ग दिखता है।
इस व्यायाम का  सबसे बडा लाभ यह है कि आपके व्यावहारिक जीवन मे कोई अन्य आपको आसानी से न धोखा दे पायेगा न ही ठग पायेगा। आपके स्वयं  मे नीरक्षीर विवेक की शक्ति विकसित होगी । दूसरी बात यह है कि आपका स्वयं  का आत्मस्वाभिमान भी जागेगा ओर स्वावलम्बन भी । और ये दोनो आपको मानसिक संतोष और शान्ति देगे।
इस व्यायाम की सबसे बडी समस्या यह है कि इससे होने वाले लाभ का अनुभव स्वयं को या तो कभी नही होता या बहुत बाद मे होता है किन्तु यह बिल्कुल निश्चित है कि आपके पडोसी, मित्र, या परिवार वाले आपके व्यवहार तथा मानसिक विकास मे गुणात्मक परिवर्तन अनुभव करेंगे । आपका मन ऐसे व्यायाम की ओर आकर्षित भले ही नही होगा किन्तु इस मानसिक व्यायाम से बहुत लाभ होना है । इसलिये आपको यह व्यायाम करना ही चाहिये।
चरित्र निमार्ण की अन्य सारी प्रकियाएं या शिक्षाये अंततः या तो असफल होगी या घातक  क्योकि जब तक चरित्र निर्माण का उपदेश देने वाले का स्वयं  का चरित्र ही ठीक नही है तब तक सब बेकार है और ऐसा चरित्र कितना ढोंगी है,  पेशेवर है, या यथार्थ यही पता नही। इसलिये अब सामाजिक आपात्काल समझ कर स्वावलम्बी प्रकिया की आवश्यकता है। आशा है कि ऐसे प्रयोग का निश्चित लाभ हमे होगा और यदि इसका लाभ सम्पूर्ण समाज को न भी मिले तो स्वयं को व्यक्तिगत स्तर पर तो होना निश्चित ही है ।


Tuesday, June 12, 2012

Thursday, June 7, 2012

Nuclear Weapons free world ??


Towards a nuclear weapons free world


-: In absentia, 
this paper presented in 
National Seminar organized by 
India Development Foundation
3rd June 2012 Gandhi Bhavan Bangalore
moderated by former CJI Justice MN Venkatachalaiah

Some Facts: 

(1) No two functioning democracies have gone to war against each other post advent of NW (Nuclear Weapons).
(2) Among the seven declared NW states, no democracy has acquired weapons in the perceived threat of another democracy. Either totalitarian states have acquired it or democracies have been forced to acquire it because of a clear and present threat from totalitarian states.


History of NW usage:

There have been only two (ghastly enough) instances of NW usage till date. Hiroshima and Nagasaki occurred as a riposte to sustained attack on a democratic society by a totalitarian state and an absence of a forum where the victim democracy could register its grievance. Worse, a non-existent mechanism to punish the offender (for Pearl Harbor) forced it to act the way it did.


Genesis of NW:

The faith of any unit is shaken when it sees that the perpetrators of violence are going unpunished. It then is forced to retaliate with a value-neutral approach.


Substantiation:

Totalitarian states like USSR (1949), China (1964), and Pakistan (1998) went nuclear as a matter of prestige, though they were never attacked. Democracies like USA (July 1945), UK (1952), France (1960), India (1974/98) went nuclear because of proven record of imminent threat by totalitarian states.


States like Ukraine and former Russian federation nations back-stepped from being nuclear to becoming non-nuclear because they are democracies. Undeclared but NW capable states like Australia, South Korea, Israel, South Africa, and Brazil have deliberately chosen a NW free path because they are functioning democracies and are fairly well protected by other democracies in the event of any NW threat. Conversely, the totalitarianism of clandestine NW states like North Korea and Iran is obvious. The proliferation record of totalitarian regimes juxtaposed to democracies is as clear as chalk and cheese.


Conclusion:

NW acquisition and democracy are inseparable factors in the equation to a NW free world. Call for a NW free world and promoting democracy worldwide are two shears of a scissors. Both shears have to pincer in tandem to be effective. On the hypothetical day that the world is freed of all nuclear weapons, one would invariably find that it is rid of totalitarian states and democracies flourishing. A NW free world is but a natural offshoot of thriving democracies. 

The writer is of the firm view that all activists (individuals, institutions, nations, UN, et al) advocating a NW free world should equally support and promote democracies worldwide with the same vigor and fervor as they raise the issue of a world free of NW.







Friday, May 11, 2012

INVITATION: Public Consultation on Lokswaraj -Draft




LOK SWARAJ





People’s Manifesto
For
A New Polity



        The entire constitutional structure of India, by omission or commission is a fusion of exploitative conspiracy against the Polite, the Poor, the Proletariat, and the Common citizen hatched by Criminals, Capitalists, Intellectuals and Politicians. We too are either overt or covert facilitators in fortifying this status-quo. A cerebral deliberation is essential to break this status-quo.

        ‘Society’ is supreme, ‘nation’ its organ, ‘state’ an aid and ‘religion’ its guide. The root of all contemporary problems is the intense competition by The Nation, The State and Religion to assert themselves and marginalize The Society. A Systemic overhaul is called for to bring The Society into this mainstream.


Preamble
        We, citizens of India and the voters of the Parliamentary/Assembly constituency of …………………………………………………………. in the State of ……………………………………………. Herewith express our deep concern and anguish at the critical situation through which the country is passing and resolve to do our utmost to rectify it.

        The dawn of freedom had naturally raised hopes among the people that there would be an early end to their poverty and exploitation, and that the country would march towards progress. More than six decades have passed by, waiting for the good days.

        It is not that nothing has happened during this period. Many development plans have been undertaken, and some results were achieved. But, obviously, the direction and the priorities of our plans and policies were wrong and that is why rich-poor chasm is widening, unemployment is rampant, corruption has broken all records and exploitation continues to thrive. In the last 60 years of multiple party governments, a common factor is that the morale of anti-social elements is incessantly expanding and the morale of The Society is continuously deflating. Those who break the law are ceaselessly going up the success ladder and the law abiders are perennially unsuccessful. Decent people are not allowed to coagulate. At the first sign of their coagulation, professional politicians fragment them in the name of religion, caste, gender, age, economic status, consumer-producer, employee-employer, language, region etc,.

        The thousands of crores of rupees spent on development have mostly benefitted only a small top section of the people. While they have secured for themselves all sorts of amenities and privileges, large sections of the common people have remained deprived of even basic necessities as drinking water and proper sanitation. There has been a gross misuse of resources on pomp and pageantry, and in providing a luxurious living for bureaucrats, parliamentarians, ministers and the elite. Our present plans and policies are against the mutual co-operation and sacrifice which were established through the ages of striving and which have helped to sustain our society during the many ups and downs through which it has passed. Hence the plans and policies have led to moral degeneration. Our social structure has been rendered hollow and fragile because of rampant corruption in public life. Growing mutual suspicion, violence, hooliganism has become the order of the day and made our lives insecure and miserable.

        While the agricultural producer, physical labourer and artisan were denied a fair return for their produce and labor, the manufacturer and middlemen were assured their profits and left free to manipulate the former. The whole organized sector which includes the government, public sector, corporates, financial institutions, as well as labor under trade unions gets maximum advantage at the cost of unorganized sector, the unemployed, underemployed and villagers. They are hence left to fend for themselves and end up marginalized. This has led to increased disparity between the rural and urban economies. The system of control is constitutionally vested in either union or state governments which has strangled the initiative of the people. They have been left with the choice of either obeying the government dictats and suffering hardships at every step or taking the easy path of corruption. In fact, it is the government policies which are responsible for the increase in corruption.


Government And The People

        Power and  authority have become the instruments for exploiting and oppressing the people instead of removing their hardships, the laws, rules, procedures and methods adopted by an alien and immoral power for its own ends are not only being continued, but even further strengthened in free and democratic India. The exploitation of the masses in collaboration with national and multi-national vested interests is growing by the day.

        Those who have got into the seats of power are trying to restrict and furthermore end whatever initiative or freedom is available to the people in the pretext of framing ever newer personal laws. The press and the judiciary too are threatened of their independence. Normal democratic processes are being short-circuited blatantly. The legislatures are becoming arenas for testing political strength or have been turned into market places. Elections have become, without exceptions, degenerated into games of money, caste, brute force and empty slogans. With the democratic process having thus been vitiated, political parties and elections are fast losing the respect of the people.

        Freedom should have meant a growth in the power and initiative of the people. Instead, there has been rapid erosion in these matters. ‘People’ are becoming progressively weaker while the ‘State’ is becoming all powerful. Even our day to day affairs has come under the clutches of the government. The people, who are supposed to be masters in a democracy, have actually been reduced to the level of slaves.


LOK SWARAJ

          Our freedom fighters, particularly Gandhiji had sensed this and advocated an India of village republics having full power. Prior to foreign invasions, such a system was well entrenched in India. Even today, almost all advanced democracies all over the world have adopted this same system. Hitherto, we have been kept under the impression that after the attainment of if independence, the people could rely on the government to work for their welfare. After all, it is the people who elect the government. Unfortunately their hopes have been belied. It is now clear that we can no more depend on the government to set matters right. Power has developed its own vested interest in the status quo. It is the people themselves who should now take the initiative to build the new order in which they shall have full control over their own lives and destiny. Fortunately for us we have had a long tradition in our country of people managing their own day-to-day affairs. This is what is meant by Lok Swaraj.


The Program

1.   THE PRIMARY UNITS

We believe that the villages, the mohallas in the cities and other places where people live and work face-to-face, should be the basic units of our polity. Life in these communities ought to be organized and conducted on the basis of mutual co-operation and good-for-all, priority being given to the uplift of the lowest and the last. All the people in these communities should be able to participate fully and directly in the management of their affairs. Only thus will it be possible to build an unshakeable foundation for democracy.




(i)                The Gramsabha/ Mohallasabha

The gramsabha/mohallasabha consisting of all adults of the village/urban locality shall have full powers to run its affairs as detailed hereunder.

(a)        To manage village/locality lands, forests, water and all natural resources and commons.
(b)        To plan its agriculture and industries in such a manner as to provide full employment to all able bodied persons, achieve self-reliance in basic necessities.
(c)         To protect and develop its cattle wealth
(d)        To encourage and promote community initiatives
(e)        To run its schools for its children
(f)          To run healthcare units open for all
(g)        To take care of sanitation and waste recycling
(h)        To maintain peace and harmony and supervise its security
(i)          To provide cheap and quick arbitration, settlement and justice in that order to disputes within its area.
(j)          To set up a village fund (gramkosh/mohallakosh) in order to provide a capital base for development of the village and to serve as its bank
(k)        To organize the marketing of the community’s product, run co-operative stores, home/cottage industries, procure and sell necessary commodities from outside and store its surplus products.
(l)          To act as a channel of distribution for essential and rationed commodities.
(m)      To secure a just and fair price for agricultural produce, products of local arts and crafts and of the processing industries in cooperation with neighboring communities
(n)        To settle with appropriate authorities, the quantity of food grains to be supplied for the procurement program of the government, if any
(o)        To maintain local roads
(p)        To levy and collect taxes on agricultural income, professions, local fairs, vehicles etc,. for raising revenue
(q)        To exercise supervision and control over the government officials working in the area.  



(ii)              Block And Districts Bodies    

    The representative bodies at the block and district levels respectively should also have appropriate powers in respect of such subjects as law and order, small and medium scale industries, pollution control, higher education institutions, specialty health care, transport, thoroughfare roads etc.,

(iii)            Statutory Recognition

     The rights and duties of the local bodies should be embodied in the constitution. There should be an additional list specifying subjects within the domain of the Gramsabha/Mohallasabha in addition to the existing list of ‘union’, ‘state’ and ‘concurrent’ subjects. Residuary powers should vest with the primary units.

    Local bodies should have ‘real autonomy’ and should be free from interference from the unit ‘above’ them. Their decisions pertaining to their own domain shall not be dependent on any kind of approval from the bureaucracy, State, or the Central governments. The government shall also not have power to supersede these bodies at will indefinitely. Periodicity of elections to these bodies should be statutorily fixed and elections should be conducted under the jurisdiction of the Election Commission.

    We pledge ourselves to strive to weld our villages into united, self-reliant and peaceful communities by rising above caste, religious and linguistic considerations, by giving equal status to women and weaker sections of the society in whatever form, by resolving conflicts through non-violent means with welfare for all as motto.

    We will set up Garmsabhas/Mohallasabhas and start working towards the goal of Lok Swaraj in the manner set forth in this manifesto.
   


2.   THE HIGHER BODIES

        We realize our responsibility to the nation and to the world. We will work for the unity and well-being of our nation and all the people of the world. We will keep ourselves apprised of the needs and problems of our country and the world, and look at own interests and needs in the larger perspective.

        We will participate in the policy making at the national, state and other levels, and exercise control over the administration at these levels through our representatives. We shall organize ourselves constituency-wise into ‘voter councils’ and select our own candidates for election to these bodies called as ‘Lok Sansad’. The Lok Sansad may recall an erring legislature through rules prescribed.


a.   Centre-State Relations

    The present tendency on part of the central government to usurp all powers and resources and reduce the States to total dependency of the Centre will have to be reversed. The States should have more autonomy, particularly in the fields of planning and resource mobilization. However, the issue is more fundamental than Centre-State relations and distribution of powers. As indicated earlier, the Gramsabhas/Mohallasabhas and intermediate bodies should be the real instruments of exercise of People’s power for the management of their own day-to-day affairs. Therefore, both the centre and the states will have to part with many of their powers in favor of the Gramsabhas/Mohallasabhas and intermediate local bodies.


b.   Dismantling The Centralized System

    Today, the government has built up highly centralized arrangements for such things that can be more easily handled by Gramsabhas/Mohallasabhas. Such centralization leads to widespread corruption and inefficiency besides making the nation weaker and vulnerable in matters of security of its citizens. We are progressively witnessing an increase in crimes because government is putting its resources on the chimera of development and in the process naturally leaving the flanks on the security front exposed. The system of education, health, food is examples which can easily be transferred to the local bodies. Such cumbersome arrangements have to be dismantled and decentralized.

    With Gramsabhas/Mohallasabhas entrusted with most of the tasks of development and providing amenities, the government will be better able to assign its resources towards security of the citizens which will decrease the prevalent crime rate. There will be no need for the present top-heavy, cumbersome and expensive administrative apparatus. The cost of administration will thus be drastically reduced. All wasteful expenditure on ostensation and luxury will automatically dramatically reducing the fiscal expenditure.


c.   Democratic Freedoms

    The fundamental rights of the people will have to be preserved and their interpretation progressively broadened. Draconian laws curtailing personal liberty will have to be repealed or amended suitably. Preventive detentions need to cease. Freedom of press will be guaranteed.

    Mass media like All India Radio and Doordarshan need to be put under autonomous bodies answerable directly to the parliament. Except for sensitive national security and foreign policy issues, all official documents will be accessible to all via the RTI route.


d.   Electoral Reforms

    A ‘Right to no vote’ will be given as an option to the voter on the ballot. Defections will cease if elections are made partyless affairs as voters may vote for candidates rather than parties to the Lok Sabha/Vidhan Sabhas. The Lok Sabha may well become a house of 543 members and not a house of parties. Alternatively, political parties should be obliged to have their audited accounts published annually.


e.   The Judiciary

    Justice in its very nature needs to be effectively and cheaply dispensed. The local bodies should be empowered to set up their own courts in conformity with national guidelines to deal with cases arising within their areas. Emphasis will be on arbitration and settlement.

    Courts, now centered at district and sub-division levels should be dispensed to the local-bodies level. Appointment of judicial officials at all levels should be entrusted to an independent body like Lok Pal to be beyond the influence of political interference.


f.    Police and Internal Security

    The local bodies should be given statutory powers to supervise the law and order situation in their areas. The investigative wing of the Police force should be independent. Only the prevention and investigation part of international crimes should be under the purview of the central government.

g.   Resources

    The present system drains all the resources from the people and gives back only a fraction of it to them in the form of development programs. In the new decentralized system, the Gramsabhas/Mohallasabhas, and other progressive units will have much larger resources their disposal and the State and Central Governments will need comparatively less resources to discharge their reduced responsibilities.

    A substantial share of centrally collected direct and indirect taxes should be given back to the Gramsabhas/Mohallasabhas and other local bodies on a pro rata basis.

    Presently, there is tendency of fixing low prices for agricultural products and relatively much higher for industrial products. It is a false notion that if higher price is paid to producer, the consumer will have to pay further higher prices. In fact, it is the middlemen who are responsible for jacked up pricings. Empowering local bodies will get rid of this malaise as the local bodies themselves will directly deal in their produce.


h.   Industrial Policy

    Industry will be free to set up environmentally approved industry anywhere provided they are permitted to set it up in their local areas by the local bodies. Corporates shall procure land at market prices from the land owners and give them proportional shares in the functioning industry.




OUR RESOLVE


    We are convinced that the programs outlined above will help us move towards Lok Swaraj or ‘real’ Swaraj of the people. A society in which every individual will enjoy the freedom and opportunities to flower into a full human being without fear or favor.

    We the people of India, give a mandate to our representatives in the Lok Sabha, Rajya Sabha and the Vidhan Sabhas to bring in constitutional amendments and legislate to realize this manifesto.  



Introductory edition:
Swarajya Sangam
Gopuri, Wardha 442114


PRESENT VERSION by:
Lok Swarajya Manch @ www.kaashindia.com
May 2012


Please Comment on:


Disclosure:
This is the first draft and citizens are welcome to share, circulate, discuss, suggest corrections, critically analyze it and provide constructive inputs.
 

Karpuri Thakur

  भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर  का कर्नाटक कनेक्शन (Click here for Kannada Book Details)        कर्पूरी ठाकुर कम से कम दो बार बैंगलोर आये। एक बार...