Monday, July 22, 2013

Guru Poornima

---------अंधा बहुमत

- मेरे स्वर्गीय पिता सीताशरण शर्मा की रचना (१९८२) स्वर्गवास- गुरु पूर्णिमा २००१   





गरमी से परेशान हंस, आसमान से धरती पर आया,
बडबडाते हुए एक डाल पर आसन जमाया -
बोला "आज तो सूर्य का तेज कराल है,
गरमी से तन मन बेहाल है" 

उसी डाल पर एक उल्लू बैठा था,
हंस की बात सुनकर चकराया-
बोला "गरमी तो है, अन्धकार बढ़ने से ऐसा होता ही है,
इसके लिए सूरज क्या बला ले आया ?"


"भाई, सूरज का प्रकाश जितना तेज होता है, 
धरती पर ताप बढ़ता है" -हंस ने समझाया 

उल्लू जोर से हंसा "शायद अंधे हो,
चाँद और चांदनी की बात करते तो समझ में आती,
सूरज और प्रकाश की बात कर रहे हो, मूर्ख कहीं के !

हंस के बार-बार समझाने पर उल्लू ने उसे 
उल्लुओं के समूह में फैसला कराने को उकसाया 

उल्लुओं के समूह ने भी हंस को  पागल कहकर ठहाका लगाया,
हंस से सूरज और प्रकाश की बात बंद करने को धमकाया 
सत्याग्रही हंस के इनकार करने पर, उसके पंख नोच डाले,


...................................और, उसे बहुमत का न्याय बताया

 

Monday, July 15, 2013

The Equality Chimera

Democracies invariably turn chaotic when economic power is decentralized but political power is not. This situation arose in India in 1991 and we are experiencing its natural aftermaths. In the above scenario, Capital (crony) surreptitiously beds with The State to exponentially increase its power. It is a fact that mere physical power makes one a ‘laborer’ and mere capital makes one a ‘businessman’. It is when the businessman buys labor, he transforms into an ‘industrialist’, and if he goes on to buy Intellect, he attains absolute power. 
Capital + Labor + Intellect = POWER.

Another fact is that in western countries where resource to population ratio favors the former, artificial energy (AE) is labor complimentary. In the Indian context where the converse applies, AE becomes labor substitute. The way out of this quagmire is simple. Either ensure high labor remuneration, or hike AE costs so that labor can more or less become on par with capital. Enforcement of the former policy is well neigh impossible in an India which is unable to even protect its women from a basal crime like rape. So, sane people should set aside their chauvinism and seriously ponder over how best to ensure that the latter solution is worked out. Else, the present sad state would continue wherein capitalists will grow at the velocity of an airplane, intellectuals will grow at the speed of an express train & labor/farmer will grow at a snail’s pace. This skewed pace of development is the genesis of present day chaotic India.

Here’s a simple alternative: Why not provide an ENERGY SUBSIDY of Rs 2100/- per month, per person be given to all those who are being covered under the present “Food Security Ordinance”, ie. about 70% of the population. Meaning Rs 350 per day for a family of five with one earner (govt’s baseline). This amount is arrived at to ensure 2400 calories of energy intake per day per person (UN accepted norm). This massive amount is to be generated by the State by hiking Artificial Energy (AE) costs. In this scenario, the labor/farmer would be reimbursed for the highly priced AE he uses, whereas production costs for capitalists would go up forcing them to hire labor. The counter argument of economists that this would mean ultra high inflation is negated by the fact that it will be but one massive “currency readjustment” exercise in place of the present perpetual inflation. The impact would be a strong Rural Economy, profitable agriculture, rich proletariat, penalizing wealth, and a conserved Ecology (due to costly conveyance & high production costs).

The above very strong and logically sound alternative is a humble challenge by this writer to armchair academics of India who devise policies. Any policy doc needs to be an implementable idea taking the capability quotient into account & not a moral science syllabus book with juvenile writ large in which no consideration is assigned to “capability enhancement prior to picking up newer assignments”.

Prior to 1991, India was on a Nehruvian model & post 1991 it has taken the wrong highway of crony capitalism. Instead of regressing back to turning back the clock and revisiting the same Nehruvian model, shouldn’t just an elimination of ‘crony’ from the present model be solution enough?

For academics, decentralization means that the Union government ‘generates’ revenues & then disburses it in downwards - whereas worldwide accepted definition of decentralization is -power should rest with the ‘basic’ unit and only those tasks which the basic unit ‘voluntarily’ abdicates automatically goes to the jurisdiction of the next level unit and so on till the Union government. In short the right perspective sees decentralization as “unitary autonomy to all units” whereas if activists are to be believed it would mean an upper unit unilaterally trespassing onto a basic unit’s jurisdiction.

As proposed by Late Prof Thakur Das Bang, Why don't the intelligentia of this nation simply declare that they will help to carry out the following constitution amendments: Under Art 246, delete “Concurrent List” and insert “Local Bodies List” which will vest constitutional rights & tasks to gram/nagar sabhas? Why don't they state that they will strive to delete the word “not” from Article 37 which would make Directive Principles of State Policy “enforceable” by the judiciary –which isn’t the case presently. (www.lokswarajmanch.blogspot.com)

Any model that creates a monolithic government is inimical to self-rule or Swaraj concept propounded by Gandhiji. Swaraj limits the State’s role to “Guaranteeing ALL its citizens Security & Justice”. Evolved democracies worldwide believe that people are competent enough to frame policy for themselves at their local level. (Issues transcending localities like Defense, Telecom etc, automatically go up to the next logical upper unit) If from 1947 to 1991, a massive Indian public sector could not deliver to a smaller population, it is naive to suggest an identical public sector will deliver it in the 21st century.

Lastly, equality is a chimera; no two entities are equal or can be made equal. Only a policy of “equal opportunity warranty” can be adopted. The academia of this nation suffer from this massive lacuna as they launch their equality theory with a premise that ‘equality’ is achievable. They should instead work towards a more sensible “Security & Justice for All” its place.

Wednesday, July 10, 2013

भारत :: लोकतांत्रिक अव्यवस्था का दौर


लोकतंत्र की एक विशेष पहचान होती है कि जिन क्षेत्रों में वह जीवन पद्धति में आता है वहॉं सुव्यवस्था संभव है और जहां जहां सिर्फ शासन पद्धति तक आकर ही रूक जाता है वहॉं अव्यवस्था निश्चित है। दक्षिण एशिया के देश भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, इराक, इरान, अफगानिस्तान आदि में जीवन पद्धति में लोकतंत्र न आकर सिर्फ शासन व्यवस्था तक ही सीमित रहा। इन सभी देशों में मौलिक लोकतंत्र की सोच कभी नहीं बनी। इन सबमें आयातित लोकतंत्र ही रहा। परिणाम है अव्यवस्था। लोकतंत्र का परिणाम होता है अव्यवस्था तथा अव्यवस्था का परिणाम होता है तानाशाही। तानाशाही लोकतंत्र का वह अन्तिम पड़ाव मानी जाती है जहॉं जाकर लोकतंत्र भी समाप्त हो जाता है और अव्यवस्था भी समाप्त हो जाती है। भारत आज वैसी ही लोकतांत्रिक अव्यवस्था के दौर से गुजर रहा है। 

अव्यवस्था की एक विशेष पहचान होती है कि वहॉ असंगठित समाज पर संगठित गिरोह हावी हो जाता है। सैद्धान्तिक सत्य है कि दो संगठित व्यक्तियों का समूह बीस असंगठित व्यक्तियों पर भारी पड़ता है। यदि ये संगठित व्यक्ति संख्या में दस हो जावें तो ये कई सौ लोगों पर भारी पड़ सकते हैं और इनकी संख्या सिर्फ एक सौ हो जावे तो ये चार पांच हजार तक की असंगठित आबादी पर भारी पड़ेंगे। आज सम्पूर्ण भारत में संगठन बनाने की होड़ मची हुई है। हर व्यक्ति किसी न किसी संगठन की छतरी के नीचे रहने को प्रयत्नशील है क्योंकि वह जानता है कि संगठन उसे सुरक्षा तो देता ही है, साथ में दूसरों को दबाकर आगे बढ़ने में सहायक भी होता है जबकि असंगठित व्यक्ति योग्यता के बाद भी पीछे रहने का मजबूर हो जाता है। संगठनों की यह छीना झपटी ही अव्यवस्था का निर्माण करती है।



पिछले दिनों जन्तर मन्तर पर ऐसी ही छीना झपटी का नजारा देखने का अवसर मिला जब बलात्कार की एक आपराधिक घटना को बहाना बनाकर भारत की मुट्ठीभर आधुनिक महिलाओं ने सम्पूर्ण समाज को उनकी आवाज सुनने को मजबूर कर दिया। सारा देश जानता है कि ये महिलाएं सिर्फ दो प्रतिशत आधुनिक महिलाओं का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। शेष अठान्नबे प्रतिशत परंपरागत महिलाएं इनसे नफरत ही अधिक करती हैं, प्रेम कम। सारा देश जानता है कि इन दो प्रतिशत आधुनिक महिलाओं ने ही बलात्कार की समस्या को विकराल बनाया अन्यथा परंपरागत समाज व्यवस्था में तो बलात्कार बहुत कम थे। इन आधुनिक महिलाओं ने ही आंदोलन चला चला कर एक ओर तो महिला और पुरूष के बीच की परंपरागत दूरी को बढ़ाते जाने की मुहिम चलाई तो दूसरी ओर विवाह की उम्र बढ़ाकर अथवा वेश्यालय आदि पर रोक लगवाकर स्त्री पुरुष के बीच आवश्यकता और पूर्ति के बीच का अन्तर को भी बढ़वा दिया। इन्हीं महिलाओं ने सारे समाज को ब्लैकमेल करके पारिवारिक अनुशासन को भी अधिक से अधिक कमजोर किया। इतना कमजोर कि परिवार अपनी बालिग लड़की को न प्रेम विवाह से दूर रहने की सलाह दे सकता है न ही मोबाइल रखने से ही रोक सकता है। न पारिवारिक अनुशासन और न ही सामाजिक अनुशासन। ऊपर से लगातार सम्पूर्ण पुरूष समूह को अत्याचारी अपराधी घोषित करने की मुहिम। इन मुट्ठीभर आधुनिक महिलाओं की संगठित शक्ति का ही प्रभाव है कि सभी राजनैतिक दल इनके समक्ष झुककर इनकी बात मानने को तैयार हैं। इनके कथन में न कोई तर्क है न ही चरित्र। इनके पास सिर्फ एक ही शक्ति है कि ये दो प्रतिशत आधुनिक महिलाएं एकजुट हैं, संगठित हैं जबकि अन्य महिलाएं किसी भी रूप में संगठित नहीं। 

संगठनों के ब्लैकमेल का दूसरा दृष्य हमें आरक्षण के नाम पर हो रहे ब्लैकमेल में देखने को मिला। हजारों वर्षों से बुद्धिजीवियों ने जन्म के आधार पर स्वयं को सवर्ण घोषित करके सभी अच्छे सम्मान शक्ति या धन के अवसर अपने लिये आरक्षित कर लिये तथा श्रम प्रधान कार्य जन्म के आधार पर एक जाति के लिये आरक्षित कर दिया जिन्हे शूद्र या अवर्ण कहा गया। इन सवर्णों ने इस असामाजिक आरक्षण व्यवस्था को सदा सदा के लिये अपनी आगे आने वाली पीढियों के लिये भी सुरक्षित कर लिया। स्वतंत्रता संघर्ष के समय एक ऐसे ही सवर्ण पुत्र ने मुट्ठीभर अवर्ण बुद्धिजीवियो को संगठित करके स्वयं को सम्पूर्ण शुद्र अवर्ण समूह का प्रतिनिधि बना दिया और अठान्नवे प्रतिशत श्रमजीवियों के नाम पर स्वयं को आरक्षण के लाभ में हिस्सेदार बना लिया। दुनिया जानती है कि स्वतंत्रता के पूर्व आरक्षण के कारण जो परिवार दबे रह गये थे उनका नब्बे बान्नवे प्रतिशत आज तक उन्ही श्रम प्रधान कार्यों तक सीमित है तथा यदि ऐसा ही रहा तो हजारों वर्षो के बाद भी उनकी स्थिति नहीं सुधरेगी, जबकि समझौता करके सवर्णों से लाभ ले रहे सात आठ प्रतिशत बुद्धिजीवी अवर्णों के जीवन स्तर मे भारी बदलाव आ चुका है। किन्तु अब भी ये तथाकथित आरक्षित बुद्धिजीवी अपने लाभ का कोई भाग कटौती करने को तैयार नहीं। यहां तक कि इन लोगों ने अपनी भारी कमाई का कोई भाग शेष श्रमजीवियों के कल्याण के लिये भी छोड़ना ठीक नहीं समझा। अत्याचार तो इन लोगों ने अपने आदिवासी भाइयों के साथ यहां तक किया कि इनके संगठित दबाव और प्रभाव से ये अपने गरीब पिछड़े आदिवासी भाइयों की जमीन जायदाद कौडियों के मोल खरीदने का अधिकार रखते है। जिस जमीन  जायदाद का बाजार मूल्य इनसे पचास गुना तक ज्यादा हो सकता है किन्तु कानून के द्वारा इन्होने अधिकार प्राप्त कर रखा है कि कोई आदिवासी अपनी जमीन जायदाद इन लोगो से अलग किसी अन्य को नही दे सकता, ऐसे लोगो ने बहुत कम संख्या मे होते हुए भी ऐसा संगठन बना रखा है कि सम्पूर्ण समाज इनकी व्लैक मेलिंग के समक्ष झुकने को तैयार रहता  है। इन लोगों ने भी अपनी आगे आने वाली पीढियो के लिये आरक्षण के लाभ की व्यवस्था बना ली है।



सब जानते है कि नब्बे प्रतिशत अवर्ण तथा आदिवासी श्रमजीवी है तथा उनके श्रमिक जीवन मे श्रम की मांग और मूल्य बढने से ही बदलाव  आ सकता है किन्तु कृत्रिम उर्जा का मूल्य न बढे ऐसे श्रम विरोधी प्रयत्नों में भारत के सवर्णो के साथ साथ ये अवर्ण बुद्धिजीवी भी शामिल हैं। आज मायावती और रामविलास पासवान सरीखे लोग भी एक ओर तो अपनी बुद्धिजीवी संतानों के लिये आरक्षण के नये नये मार्ग खुलवाने में आंदोलनरत है तो दूसरी ओर यही लोग डीजल बिजली पेट्रोल गैस मूल्य वृद्धि के खिलाफ भी लगातार आवाज उठाते रहते है जिसने श्रम की मांग और मूल्य को लगातार बढने से रोक रखा है। अभी अभी जयपुर साहित्य सम्मेलन मे आशीष नंदी का बयान सही था या गलत यह अलग विषय है, किन्तु जिस तरह इन संगठित गिरोहों ने आशीष नंदी के खिलाफ वातावरण बनाया वह अवश्य ही निन्दनीय है। इन मुट्ठीभर लोगों ने जिस तरह ब्लैकमेल करके राज्यसभा में राजनैतिक दलों को बिल के पक्ष मे मजबूर कर दिया तथा लोकसभा मे भी सफल होने के प्रयत्न जारी है वे इस बात के स्पष्ट प्रमाण है कि मुट्ठीभर संगठित समूह अपने से दस बीस गुना बड़ी असंगठित आबादी को ब्लैकमेल कर सकती है। 

इसी तरह पिछले दिनो भारत के गृहमंत्री श्री सुशील शिन्दे ने एक भाषण के अन्तर्गत यह कह दिया कि संघ परिवार हिन्दू आतंकवाद की ट्रेनिंग देता है। बात किसी भी रूप से असत्य नहीं थी। संघ आतंकवाद का समर्थक नही है और न ही आतंकवाद में शामिल है किन्तु संघ परिवार संगठित रूप मे उग्रवाद का समर्थक भी है और सक्रिय भी। उग्रवाद समर्थक कार्यकर्ता यदि अपनी सीमाएं तोडकर आतंकवादी हो जावे तो क्या संघ पर इसके छींटे नही पडेंगे? आम तौर पर सिख और मुसलमान और कम्युनिस्ट स्वभाव से ही उग्रवादी माने जाते हैं। उग्रवाद का आतंकवाद की दिशा मे बढना ज्यादा संभव होता है। हिन्दू चूंकि शान्तिप्रिय माना जाता है इसलिये कोई हिन्दू तब तक  आतंकवादी नही हो पाता जब तक वह संघ, विश्व हिन्दू परिषद, शिवसेना जैसे उग्रवादी संगठनो के साथ जुडकर हिन्दुत्व की मूल अवधारणा से दूर न चला गया हो। संघ परिवार और भाजपा को गृहमंत्री के बयान पर आपत्ति क्यों है? यदि किसी व्यक्ति के विरूद्ध पुलिस कोई आरोप लगाती है तो उसके पक्ष में आवाज उठाने के तीन कारण मान्य है (1) आप आरोपी के वकील हों, (2) आपका आरोपी से पारिवारिक या मित्रवत संबंध हो, (3) आपको जानकारी हो कि आरोपी निर्दोष है और उसे गलत फंसाया गया है। यदि पहले और दूसरे स्तर के लोग आरोपी का पक्ष ले तो मान्य है किन्तु यदि तीसरे आधार पर किसी आरोपी का समर्थन व सहयोग किया जाय तो आरोपी के दोषी सिद्ध होने पर आपके विरूद्ध भी प्रश्न उठेगे ही। प्रज्ञा पुरोहित असीमानन्द के पक्ष मे किसी हिन्दू ने कोई आवाज नही उठाई। फिर संघ भाजपा शिवसेना उसके समर्थन मे क्यो आगे आये? क्या इन्हे जानकारी है कि वे निर्दोषहै? यदि नही है ते चुप क्यो नही रहे जैसे अन्य हिन्दू चुप रहे। अब लगभग विश्वास हो चला है कि ये लोग पूरी तरह निर्दोष नही है तो आम भारतीय को कहने का अधिकार है कि संघ भाजपा का मार्ग गलत है। यदि समाज खुलकर इस्लामिक नक्सलवादी आतंकवाद के प्रति नरम रूख के लिये कांग्रेस की आलोचना कर सकता है तो हिन्दू  आतंकवाद के विरूद्ध आलोचना से डर कैसा?

इसी तरह यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित है कि सम्पूर्ण भारत की अर्थव्यवस्था मध्य वर्ग उच्च वर्ग के नियंत्रण मे है। गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी, छोटे किसानों को छोडकर शेष सम्पूर्ण बुद्धिजीवी, शहरी, सम्पन्न, बड़े किसान मिलकर संगठित रूप से आर्थिक मामलों में गरीब ग्रामीण श्रमजीवी छोटे किसान के विरूद्ध षडयंत्र करते रहते हैं। जब भी कृत्रिम उर्जा की मूल्य वृद्धि हुई, ये सारे लोग सड़कों पर उछल उछल कर मूल्य वृद्धि का विरोध करते दिखते है। सब जानते है कि कृत्रिम उर्जा श्रम की प्रतिस्पर्धी है। सब यह भी जानते है कि कृत्रिम उर्जा बुद्धिजीवी पूंजीपति की सहायक है। सब जानते समझते हुए भी ये सब लोग पूरी ताकत लगाकर इनकी मूल्य वृद्धि का विरोध करते है। हद तो तब हो जाती है जब ये बुद्धिजीवी पूंजीपतियों के पोषक वार्षिक मु्द्रास्फीति की तुलना में भी कृत्रिम उर्जा के मूल्यो के पुनर्निर्धारण तक में चिल्लाना शुरू कर देते हैं। दस वर्षो में रेल किराया मुद्रा स्फीति की तुलना में सवा दो गुना हो जाना चाहिये था। अभी थोड़ा सा किराया बढा तो पेशेवर नेताओ ने चिल्लाना शुरू कर दिया। ममता बनर्जी तो अनावश्यक चिल्लाने का लिये जगत प्रसिद्ध है ही किन्तु माया मुलायम ने भी रेल किराया वृद्धि का यह समझ कर विरोध किया कि कहीं चुप रहने से मध्य वर्ग नाराज न हो जाय। 


यदि पूरे भारत के राजनैतिक परिदृष्य का अध्ययन करे तो आप पायेंगे  कि इन संगठित समूहो से सभी राजनैतिक दल भयभीत रहते है चाहे वे सत्ता मे हो या विपक्ष मे। आधुनिक महिलाओं के संगठित हो हल्ला से सभी दल इस सीमा तक भयभीत  दिखे कि सबमे उनका समर्थन प्राप्त करने की हेाड लग गई। विपक्ष समाज मे हो हल्ले मे शामिल दिखा तो सरकार भी जस्टिस वर्मा आयोग बनाकर इस मांग के औचित्य पर सहमत हो गई । जातिवाद के प्रोत्साहन पर भी विपक्ष और सरकार की सोच एक समान ही दिखी। साम्प्रदायिकता के मामले मे भी दोनो का रूख स्पष्ट है। कांग्रेस संगठित साम्प्रदायिक मुसलामानों को अपने साथ जोडकर रखना चाहती हंक तो भाजपा संगठित हिन्दू संगठनो को। आर्थिक मामलों मे भी सत्ता या विपक्ष न मंहगाई के विषय मे अलग अलग है न ही कृत्रिम उर्जा मूल्य वृद्धि के। सरकार बार बार कहती है कि कृत्रिम उर्जा वृद्धि उचित नही है किन्तु उसकी मजबूरी है। यदि इन दोनो गुटो का कोई सदस्य यदि गल्ती से भी कोई सच बात मुंह से निकाल दे तो सब मिलकर उसे चुप करा देते है।

मंहगाई के मामले मे वेणी प्रसाद वर्मा  या वित मंत्री चिदम्बरम को जिस तरह डांट खानी पडी, संघ के मामले मे गृहमंत्री को डांटकर चुप कराया गया, आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा भी अपने लोगो को डाट डपट कर चुप रख रही है, उससे स्पष्ट है कि भारतीय लोकतंत्र पूरी तरह अव्यवस्था का शिकार है जिसमें मनमोहन सिंह को छोडकर अन्य सभी दल सभी नेता अपनी अपनी राजनैतिक रोटी सेकने का प्रयास कर रहे है। सभी राजनेताओ की यह विशेषता होती है कि वे समाज को वर्गो मे बांटकर वर्ग विद्वेष, वर्ग संघर्ष को बढाते रहते है और खुद विचौलिये बनकर उनके टकराव का लाभ उठाते है। कोई महिला भले ही अपने प्रेमी से मिलकर अपने पति के कई टुकड़े कर दे अथवा कोई साम्प्रदायिक हिन्दू किसी शरीफ मुसलमान को भले ही गाली दे दे, अथवा कोई आदिवासी हरिजन नेता भले ही किसी गरीब सवर्ण को कितना भी अपमानित कर दे, तो कोई बात नही। सामान्यतया न कोई महिला कुछ बोलती है न कोई हिन्दू या मुसलमान न कोई हरिजन आदिवासी। वास्तव मे तो ये संगठित गिरोह ही तिल का ताड़ बनाते है।

सभी राजनेताओ की यह भी विशेषता होती है कि वे समस्याओ का कुछ ऐसा समाधान करते है कि जिससे किसी नई समस्या का विस्तार हो। दुनियां जानती है कि यदि स्त्री और पुरूष के बीच की दूरी घटेगी तो छेड़छाड़ और बलात्कार बढेंगे, यदि समाज मे उग्रवाद बढेगा तो आतंवकाद का विस्तार उसका स्वाभाविक परिणाम है, यदि किसी जाति विषेष को विषेष अधिकार देंगे तो जातीय संघर्ष उसका परिणाम होगा तथा यदि मुद्रा स्फीति बढेंगी तो वस्तुएं मंहगी होगी ही तथा यदि कृत्रिम उर्जा के मूल्य कम बढे तो श्रम शोषण होगा ही। आज तक दुनियां मे कोई ऐसा तरीका नही निकला जिसमे विवाह की उम्र बढाई जाय और बलात्कार घटे, घाटे का बजट बने और मूल्य वृद्धि न हो, समाज मे हिंसा के प्रति प्रोत्साहन हो और आतंकवाद घटे या मशीनों का प्रयोग बढे और श्रम प्रभावित न हो। यदि कोई तरीका हो तो  बताने की कृपा करें। एक तरफ तो समस्याएं पैदा करना और दूसरी तरफ अपने दलालों से जंतर मंतर पर हल्ला कराकर समाधान के लिये अलग अलग आयोग बनाना एक सोची समझी रणनीति का ही हिस्सा है।



Karpuri Thakur

  भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर  का कर्नाटक कनेक्शन (Click here for Kannada Book Details)        कर्पूरी ठाकुर कम से कम दो बार बैंगलोर आये। एक बार...