Revolution


------------------- क्रान्ति के पुरोधा

यह भ्रान्ति है कि क्रांतियाँ भौतिक होती हैं | क्रांतियाँ असल में मनुष्य के दिमाग में होती हैं, भले ही उसकी निष्पत्ति व्यापक रूप से भौतिक दृष्टिगोचर हो | जो क्रांतियों को गहराई से नहीं समझते  वे क्रान्ति के बाद की परिस्थिति देखकर उस क्रान्ति का आकलन करते हैं | अगर क्रान्ति के बाद का समाज पहले से बेहतर प्रतीत होता है तो क्रान्ति की शान में कसीदे पढ़े जाते हैं | इसके  विपरीत अगर क्रान्ति के बाद का समाज पहले से बदतर प्रतीत होता है तो क्रान्ति को टायं-टायं फिस्स मान लिया जाता है | बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में रूस में भी साम्यवाद-क्रान्ति हुई और जार शासन ख़त्म हुआ | बीसवीं सदी के मध्य  में उस क्रान्ति को मानव इतिहास की सफलतम क्रांतियों में गिना जाता था | और इक्कीसवीं सदी के  आते आते वही क्रान्ति पूर्णतः असफल सिद्ध हुई | गांधी की अहिंसक क्रान्ति भी बीसवीं सदी के मध्य में सफल मानी जाती थी | आज इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के आते-आते देश की स्थिति देखकर अधिकाँश लोग स्वतन्त्र भारत की दशा से परेशान हैं | आचार्य विनोबा भावे की भूदान क्रान्ति का भी यही हाल हुआ, जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रान्ति का भी | शुरुआत में सफल, उत्तरोत्तर उसकी उपादेयता निरर्थक दिखने लगी |

इस विरोधाभास को  समझने के लिए क्रान्ति के अग्रदूत की मानसिकता को समझना उचित रहेगा | क्रांतिकारी दो तरह के होते हैं, एक वे, जो भ्रमित समाज की सोच बदलने को तत्पर रहते हैं, और दूसरे वे जो दयनीय स्थिति में पड़े  समाज को बेहतर  स्थिति में ले जाने की लालसा रखते हैं | पहले प्रकार के क्रांतिकारी यह समझते हैं कि व्यक्ति  की बौद्धिक क्षमता भले असीमित हो, पर उसकी भौतिक क्षमता नैसर्गिक रूप से ही सीमित है | इसीलिए वे अपने-आप को परिवर्तन की प्रक्रिया का प्रारम्भ या अंग भले मानें, उसकी निष्पत्ति की सम्पूर्ण जिम्मेदारी अपनी न मानकर, समाज की साझेदारी मानते हैं | ऐसे लोग क्रान्ति के पुरोधा तो होते हैं, परन्तु क्रान्ति के बाद की व्यवस्था वे सामूहिक इच्छाशक्ति पर छोड़ते हैं | क्योंकि सैद्धांतिक रूप से वे यह मानते हैं कि क्रान्ति केवल अव्यवस्था से व्यवस्था की ओर का प्रयाण है |

दूसरे तरह के क्रान्ति के पुरोधा यह मानते हैं कि क्योंकि क्रान्ति अव्यवस्था से सुव्यवस्था की ओर का प्रयाण है, अतः क्रान्ति के बाद की व्यवस्था का भी स्वयं नेतृत्व करते हैं, क्योंकि क्रान्ति की सफलता की सारी जिम्मेदारी उनकी है | पहले प्रकार के क्रांतिकारियों में महावीर, ईसा, गांधी, मार्टिन लूथर, विनोबा, जे.पी आदि हैं, तो दूसरी में बुद्ध, हजरत मुहम्मद, लेनिन, मंडेला आदि |

वैचारिक क्रान्ति के पुरोधा क्योंकि क्रान्ति के बाद की व्यवस्था का नेतृत्व स्वयं नहीं करते, इसीलिए नई व्यवस्था में भले कमोबेश अल्पकालिक त्रुटियाँ रह जाती हों, पर विचार दीर्घकालिक अक्षुण  रह जाता है | भौतिक क्रान्ति के पुरोधा क्योंकि क्रान्ति के बाद की व्यवस्था का स्वयं नेतृत्व करते हैं, इसीलिए नई व्यवस्था को अल्पकालिक सुव्यवस्था में तो उन्होंने बदल दिया पर प्रकारांतर से प्रच्छन्न तानाशाही की भी नींव पड़ जाती है | इसीलिए उन पुरोधाओं के अवसान के बाद उक्त सुव्यवस्था पुनः अव्यवस्था में तब्दील हो जाती है | पहले में विचार प्रमुख होकर व्यक्ति गौण हो जाता है, तो दूसरे  में व्यक्ति प्रमुख हो विचार गौण हो जाता है |

भारत आज अन्ना हजारे प्रणीत भ्रष्टाचार विरोधी क्रान्ति के दौर से गुजर रहा है | यह उपरोक्त दो दिशाओं में से किधर जाएगी यह देखना रोचक होगा | क्या यह अव्यवस्था से जूझ रहे भारत को व्यवस्था कि ओर ले जाएगी, या सुव्यवस्था की मृगमरीचिका दिखलाएगी | पहली स्थिति में भौतिक क्रान्ति भले असफल हो, पर विचार बच जाएगा और अनुकूल परिस्थितियों में भविष्य में फिर कोंपलें खिलाएगा | इसका प्रमाण गांधी जनित अहिंसक क्रान्ति में ही विनोबा के भूदान का, विनोबा के ग्रामदान में ही जयप्रकाश के सम्पूर्ण क्रान्ति का, और जे.पी. के सहभागी लोकतंत्र की निष्पत्ति ही अन्ना हजारे की मांग के अनुसार ड्राफ्ट कमेटी में सिविल सोसाईटी को शामिल किया जाना है |  दूसरी स्थिति में भौतिक क्रान्ति भले सफल हो, पर सुव्यवस्था के नाम पर आनेवाला शक्ति का केन्द्रीकरण भविष्य में फिर अव्यवस्था के बीज बो देगा | क्योंकि चोर से तो हमें पुलिस बचा लेगी, पर पुलिस से हमें कौन बचाएगा ?  



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