Monday, June 3, 2013

Naxalism..martyr Mahendra Karma

___शहीद महेन्द्र कर्मा
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छत्तीसगढी माटी के सपूत आदिवासी महेन्द्र कर्मा शहीद हो गये। बहुत वर्षो के बाद हमें किसी को शहीद कहने का अवसर प्राप्त हुआ है। वैसे तो अनेकों को शहीद कह दिया जाता है जो सत्ता के दांव पेंच में मारे जाते हैं या किसी प्रकार की नौकरी करते हुए। लेकिन महेन्द्र कर्मा की गिनती वैसे शहीदों में नही है। केवल छत्तीसगढ़ के लिए ही नहीं बल्कि पूरे देश के लिए महेन्द्र कर्मा माओवाद से लड़नेवाले ऐसे शहीद हैं जिनकी शहादत जाया नहीं जानी चाहिए।

महेन्द्र कर्मा छत्तीसगढ के अति पिछड़े बस्तर क्षेत्र के आदिवासी परिवार के सदस्य थे। प्रारंभिक राजनीति की शुरूआत उन्होंने कम्युनिष्ट पार्टी के जरिए शुरू की तथा चुनाव भी लड़ा। शीघ्र ही उन्हें आभास हुआ कि कम्युनिस्ट पार्टी नक्सलवादियों से सहानुभूति रखती है। वे मानते थे कि नक्सलवाद पूरी तरह सत्ता संघर्ष है जो साथ-साथ हिंसक भी है। वे मानते थे कि जिसे नक्सलवाद कहा जाता है वह माओवाद है, नक्सलवाद नहीं। इसके बाद वे कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गये। छत्तीसगढ बनने के बाद वे अजीत जोगी मंत्रिमंडल में मंत्री के रूप में रहे किन्तु नक्सलवाद के संबंध में उनकी धारणा अजित जोगी से बिल्कुल विपरीत थी। भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद वे नक्सलवाद के विरूद्ध बस्तर में नया प्रयोग करने लगे, जो अजीत जोगी सरीखे कांग्रेस के कुछ नेताओं को पसंद नही था। महेन्द्र कर्मा का मानन था कि पूरे भारत में नक्सलवाद बस्तर क्षेत्र से ही अपनी सत्ता की शुरूआत करने का प्रयत्न कर रहा है, जो बस्तर क्षेत्र के लोगों के लिये एक दीर्घकालिक कलंक सिद्ध होगा। उचित है कि हम ऐसे प्रयत्न को किसी भी रूप में सफल न होने दे।

महेन्द्र कर्मा का मानना था कि बाहर के लोग आकर बस्तर में नक्सलवाद की सफलता को तब तक नही रोक सकते जब तक यहां के स्थानीय आदिवासियों का उनके प्रति मोहभंग न हो। उन्होने अपने स्थानीय आदिवासी भाइयों को समझाना शुरू किया कि नक्सलवाद न सिर्फ बस्तर की समस्या है न सिर्फ भारत की समस्या है, बल्कि यह तो सम्पूर्ण समाज की समस्या है जिसका भारत में पहला केन्द्र बस्तर में बनेगा। और वह केन्द्र पीढियों तक हम सबके लिये कलंक का इतिहास रहेगा। आश्चर्यजनक रूप में वहां के आदिवासी समुदाय पर महेन्द्र कर्मा के इस कथन का जादुई असर हुआ। लोग बड़ी संख्या में उनके द्वारा शुरू किये गये सलवा जुलुम मुहिम से जुडने लगे।

जहां पूरे देश मे ऐसी धारणा बन रही थी कि नक्सलवादियो का आधार गरीबी, पिछडापन और अव्यवस्था है वहीं यह धारणा तेजी से बदलने लगी। बस्तर मे सीधा टकराव दो शक्तियो के बीच था। एक तरफ था माओवाद जो नक्सलवाद के नाम पर एक बडी ताकत के रूप में था जिसके पास अथाह धन था, उच्च तकनीक थी, किसी भी सीमा तक बल प्रयोग की मान्यता थी, किसी को भी रोजगार देने की क्षमता थी, किसी को भी शीघ्र ही अपनी सरकार मे शामिल करने का प्रलोभन था। दूसरी ओर थे महेन्द्र कर्मा जिसका कोई संगठन नही था। यदि सरकार थी, तो नक्सलवाद समर्थक अजीत जोगी की थी। केन्द्र में सरकार थी तो वहां नक्सलवादियों के वकील दिग्विजय सिंह, स्वामी अग्निवेश, ब्रहमदेव शर्मा सरीखे लोग बैठे हुए थे। और बाद में जब सरकार भी बनी तो वह कांग्रेस पार्टी की उलट भारतीय जनता पार्टी की बनी। फिर भी महेन्द्र जी के उत्साह मे कोई कमी नही आई। इन्होने माना कि सरकार किसी दल की नही होती है सबकी होती है। यदि भारतीय जनता पार्टी भी सरकार में हो तो वह हमारी प्रतिस्पर्धी है विरोधी या शत्रु नही।

स्वाभाविक था कि महेन्द्र कर्मा के इस व्यवहार से प्रभावित होकर तथा दलगत राजनीति से ऊपर उठकर उनके प्रयत्नो में ईमानदारी दिखने के कारण भाजपा की सरकार भी सलवा जुलुम का समर्थन करने लगी और नक्सलवाद समर्थक अजीत जोगी ब्रहमदेव शर्मा, दिग्विजय सिंह, स्वामी अग्निवेश सरीखे लोगों को यह समझाने का अवसर भी मिला कि महेन्द्र कर्मा दलीय अनुशासन से बाहर जाकर काम कर रहे है। फिर भी, छत्तीसगढ के कांग्रेस संगठन का विश्वास महेन्द्र कर्मा को प्राप्त नहीं था, और कांग्रेस के भीतर ही एक दूसरा गिरोह जोगी के नेतृत्व मे केन्द्रीय नेतृत्व को इनके विरूद्ध समझाता रहता था। परिणाम स्वरूप महेन्द्र कर्मा को पार्टी के अंदर नक्सलवाद के विरूद्ध निर्विवाद योजना बनाने मे सफलता नही मिली। यहां तक कि नक्सलवाद समर्थक समूहो ने आदिवासियो का नक्सलवाद से मोहभंग होने की घटना को यह कहकर लगातार प्राचारित किया कि ऐसा होने से आदिवासी आदिवासी ही आपस में कट मरेगे और बस्तर में आदिवासियो के बीच गृहयुद्ध हो जाएगा।

नक्सलवाद समर्थक बुद्धिजीवियो के इस तर्क का किसी ने कोई प्रतिवाद नही किया कि बस्तर के आदिवासियों में बंटकर नक्सलवाद विरोधी धारणा मजबूत होने के अतिरिक्त इसका कोई समाधान नही है। यदि ऐसा नही किया गया और वहां के आदिवासी नक्सलवादियो के पक्ष मे एक जुट होते चले गये तो भारत सरकार की मजबूरी हो जाएगी कि नक्सलवाद के सफाए के लिये वह वहां बडी मात्रा में बम गिराये और ड्रोन हमले करे। स्वाभाविक है कि भारत सरकार तथा नक्सलवाद के बीच चले ऐसे संघर्ष मे आदिवासियों का ज्यादा नुकसान होगा। यह साधारण सी बात भी किसी ने देश की मीडिया को नहीं समझाई न मीडिया ने समझने की कोशिश की।

यह सच है कि बस्तर मे नक्सलवाद का निर्विरोध आधार बनने को महेन्द्र कर्मा के प्रयत्नो ने अभी तक लटकाकर रखा है। यह भी दिखता है कि नक्सलवाद विरोधी पक्ष न्यायालय को भी समझाने में सफल नहीं हो सका जिसके करण नक्सल समर्थक बुद्धिजीवियो का मनोबल बढा ऐसी विषम परिस्थितियों में भी महेन्द्र कर्मा ने हार नही मानी और बस्तर मे रहकर बस्तर के लोगों को साथ लेकर बलशाली नक्सलवाद का विरोध करते रहे। महेन्द्र कर्मा के परिवार के दर्जनों लोग नक्सलवादियों द्वारा मार दिये गये और महेन्द्र कर्मा पर भी कई बार घातक आक्रमण हुए। दूसरी ओर नक्सल समर्थक कांग्रेसी अन्दर अन्दर उनका मनोबल तोडते रहते थे। इन सबके बाद भी पता नही महेन्द्र कर्मा किस मिट्टी के बने थे कि उन्होने कभी पीछे मुडकर नही देखा। नक्सलियों के भेष में माओवादियों ने आखिरकार उनको शहीद करने में कामयाबी हासिल कर ली। माओवादियों के लिए महेन्द्र कर्मा कितने बड़े शत्रु थे इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नक्सलवादियों ने इनकी मृत्यु के बाद भी उनके मृत शरीर पर कई दर्जन गोलिया मारी, उनकी लाश के पास नृत्य किया और उनका अंग भंग किया। यह इस बात का प्रमाण है कि महेन्द्र कर्मा को नक्सलवादी अपने लिए कितनी बडी बाधा मानते थे, जो अब दूर हो गयी थी। महेन्द्र कर्मा के शहीद होने के बाद चाहे उनको शहीद का भी दर्जा दे दिया जाए लेकिन शहीद का यह दर्जा महत्वपूर्ण नही है। महत्वपूर्ण तो यह है कि अब बस्तर नक्सलवादियो का देश में पहला आधार केन्द्र न बन पाये, अब इसकी गारंटी कौन देगा?

कहा नहीं जा सकता कि सारे घटना क्रम मे अजीत जोगी की भुमिका कैसी रही है लेकिन महेन्द्र कर्मा की मृत्यु होते ही अजीत जोगी ने जिस तरह सारी शालीनताएं तोड़कर राजनैतिक तिकडमे शुरू कर दी उससे ऐसा लगता है कि कही कोई राजनैतिक मुद्दा आज भी तो नही है। प्रश्न उठता है कि पूरे हत्याकांड मे जोगी गुट के पक्षधरों और जोगी विरोधी गुट के पक्षधरों का मरनेवालो में अनुपात क्या रहा है? घटना के छः सात घंटे बाद ही राहुल गांधी आनेवाले थे, प्रातः काल सोनिया गांधी और मनमोहन भी आ रहे थे। लेकिन अजीत जोगी ने किसी की प्रतीक्षा किये बिना तत्काल ही राजनैतिक दाव पेंच शुरू कर दिया। ऐसी जल्दवाजी क्या थी कि एक दिन में कोई आसमान टूट पडता। अब तो एनआईए ने भी अपने शुरुआती रिपोर्ट में बताया है कि कांग्रेस के चार नेता नक्सलियों के संपर्क में थे और इनके द्वारा ही नक्सलियों को रूट बदलने की जानकारी पहुंचाई गई थी. http://aajtak.intoday.in/story/four-congress-leaders-conspired-with-the-naxals-on-may-26-1-732456.html. पता नही सोनिया और राहुत गांधी किस मजबूरी मे ऐसे लोगो को अनुशासन का पाठ नही पढाते। 

नक्सलवाद से हिंसक टकराव तो हमारी सेनाए भी कर लेंगी किन्तु नक्सलवादियो के समर्थक समाज मे घूम घूम कर नक्सलवाद को असंतुलित विकास का कारण बता रहे है। इनसे कौन निपटेगा? ये लोग कोई साधारण हस्ती नही है। ये लोग अनेक महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए लोग हैं। न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका सब जगह पर है। इनके इस दुष्प्रचार का मुकाबला कौन करेगा? स्वाभाविक है कि यह कार्य हम सबको ही उठाना होगा। यही महेन्द्र कर्मा की मृत्यु के बाद उनके प्रति हम सबकी श्रद्धान्जलि होगी। 

__By बजरंग मुनि

Karpuri Thakur

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