Friday, April 15, 2011

Revolution


------------------- क्रान्ति के पुरोधा

यह भ्रान्ति है कि क्रांतियाँ भौतिक होती हैं | क्रांतियाँ असल में मनुष्य के दिमाग में होती हैं, भले ही उसकी निष्पत्ति व्यापक रूप से भौतिक दृष्टिगोचर हो | जो क्रांतियों को गहराई से नहीं समझते  वे क्रान्ति के बाद की परिस्थिति देखकर उस क्रान्ति का आकलन करते हैं | अगर क्रान्ति के बाद का समाज पहले से बेहतर प्रतीत होता है तो क्रान्ति की शान में कसीदे पढ़े जाते हैं | इसके  विपरीत अगर क्रान्ति के बाद का समाज पहले से बदतर प्रतीत होता है तो क्रान्ति को टायं-टायं फिस्स मान लिया जाता है | बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में रूस में भी साम्यवाद-क्रान्ति हुई और जार शासन ख़त्म हुआ | बीसवीं सदी के मध्य  में उस क्रान्ति को मानव इतिहास की सफलतम क्रांतियों में गिना जाता था | और इक्कीसवीं सदी के  आते आते वही क्रान्ति पूर्णतः असफल सिद्ध हुई | गांधी की अहिंसक क्रान्ति भी बीसवीं सदी के मध्य में सफल मानी जाती थी | आज इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के आते-आते देश की स्थिति देखकर अधिकाँश लोग स्वतन्त्र भारत की दशा से परेशान हैं | आचार्य विनोबा भावे की भूदान क्रान्ति का भी यही हाल हुआ, जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रान्ति का भी | शुरुआत में सफल, उत्तरोत्तर उसकी उपादेयता निरर्थक दिखने लगी |

इस विरोधाभास को  समझने के लिए क्रान्ति के अग्रदूत की मानसिकता को समझना उचित रहेगा | क्रांतिकारी दो तरह के होते हैं, एक वे, जो भ्रमित समाज की सोच बदलने को तत्पर रहते हैं, और दूसरे वे जो दयनीय स्थिति में पड़े  समाज को बेहतर  स्थिति में ले जाने की लालसा रखते हैं | पहले प्रकार के क्रांतिकारी यह समझते हैं कि व्यक्ति  की बौद्धिक क्षमता भले असीमित हो, पर उसकी भौतिक क्षमता नैसर्गिक रूप से ही सीमित है | इसीलिए वे अपने-आप को परिवर्तन की प्रक्रिया का प्रारम्भ या अंग भले मानें, उसकी निष्पत्ति की सम्पूर्ण जिम्मेदारी अपनी न मानकर, समाज की साझेदारी मानते हैं | ऐसे लोग क्रान्ति के पुरोधा तो होते हैं, परन्तु क्रान्ति के बाद की व्यवस्था वे सामूहिक इच्छाशक्ति पर छोड़ते हैं | क्योंकि सैद्धांतिक रूप से वे यह मानते हैं कि क्रान्ति केवल अव्यवस्था से व्यवस्था की ओर का प्रयाण है |

दूसरे तरह के क्रान्ति के पुरोधा यह मानते हैं कि क्योंकि क्रान्ति अव्यवस्था से सुव्यवस्था की ओर का प्रयाण है, अतः क्रान्ति के बाद की व्यवस्था का भी स्वयं नेतृत्व करते हैं, क्योंकि क्रान्ति की सफलता की सारी जिम्मेदारी उनकी है | पहले प्रकार के क्रांतिकारियों में महावीर, ईसा, गांधी, मार्टिन लूथर, विनोबा, जे.पी आदि हैं, तो दूसरी में बुद्ध, हजरत मुहम्मद, लेनिन, मंडेला आदि |

वैचारिक क्रान्ति के पुरोधा क्योंकि क्रान्ति के बाद की व्यवस्था का नेतृत्व स्वयं नहीं करते, इसीलिए नई व्यवस्था में भले कमोबेश अल्पकालिक त्रुटियाँ रह जाती हों, पर विचार दीर्घकालिक अक्षुण  रह जाता है | भौतिक क्रान्ति के पुरोधा क्योंकि क्रान्ति के बाद की व्यवस्था का स्वयं नेतृत्व करते हैं, इसीलिए नई व्यवस्था को अल्पकालिक सुव्यवस्था में तो उन्होंने बदल दिया पर प्रकारांतर से प्रच्छन्न तानाशाही की भी नींव पड़ जाती है | इसीलिए उन पुरोधाओं के अवसान के बाद उक्त सुव्यवस्था पुनः अव्यवस्था में तब्दील हो जाती है | पहले में विचार प्रमुख होकर व्यक्ति गौण हो जाता है, तो दूसरे  में व्यक्ति प्रमुख हो विचार गौण हो जाता है |

भारत आज अन्ना हजारे प्रणीत भ्रष्टाचार विरोधी क्रान्ति के दौर से गुजर रहा है | यह उपरोक्त दो दिशाओं में से किधर जाएगी यह देखना रोचक होगा | क्या यह अव्यवस्था से जूझ रहे भारत को व्यवस्था कि ओर ले जाएगी, या सुव्यवस्था की मृगमरीचिका दिखलाएगी | पहली स्थिति में भौतिक क्रान्ति भले असफल हो, पर विचार बच जाएगा और अनुकूल परिस्थितियों में भविष्य में फिर कोंपलें खिलाएगा | इसका प्रमाण गांधी जनित अहिंसक क्रान्ति में ही विनोबा के भूदान का, विनोबा के ग्रामदान में ही जयप्रकाश के सम्पूर्ण क्रान्ति का, और जे.पी. के सहभागी लोकतंत्र की निष्पत्ति ही अन्ना हजारे की मांग के अनुसार ड्राफ्ट कमेटी में सिविल सोसाईटी को शामिल किया जाना है |  दूसरी स्थिति में भौतिक क्रान्ति भले सफल हो, पर सुव्यवस्था के नाम पर आनेवाला शक्ति का केन्द्रीकरण भविष्य में फिर अव्यवस्था के बीज बो देगा | क्योंकि चोर से तो हमें पुलिस बचा लेगी, पर पुलिस से हमें कौन बचाएगा ?  



Friday, April 8, 2011

Anti Corruption

------------अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार उन्मूलन

अन्ना हजारे आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध सशक्त प्रतीक के रूप में उभरे हैं | उनके जीवन संघर्ष से परिचित लोग यह जानते हैं की उनका पहला भ्रष्टाचार विरोधी संघर्ष 1975 में एक वन अधिकारी के विरुद्ध प्रारम्भ हुआ था जो आज 35  वर्ष बाद प्रधानमंत्री तक पहुँच गया | (लोकपाल विधेयक प्रधानमंत्री तक को भ्रष्टाचार विरोधी क़ानून के अंतर्गत लाने का प्रावधान रखता है ) अन्ना हजारे अत्यंत सरल, सहज, निश्छल, एवं सादे व्यक्ति हैं | इन वर्षों में महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में सिद्धि ग्राम को उन्होंने स्वावलंबी बनाकर एक आदर्श ग्राम का प्रारूप भी दिया है | उनका आन्दोलन भी ऐसा ही पाक साफ़ है | शासन के आदेशों के विरुद्ध समय-समय पर उठती उनकी आवाज के पीछे भी उनकी सामाजिक चेतना ही प्रमुख है |

शासन और अनशनकारियों के बीच सैद्धांतिक रूप से किसी बात पर मतभेद नहीं है  क्योंकि सरकार ने अगले सत्र में विधेयक लाने का संकल्प ले लिया है | टसमटस इस बात पर है की आन्दोलनकारी विधेयक  प्रारूप समिति में सिविल सोसाईटी अर्थात समाज के आधे प्रतिनिधि चाहते हैं, पर सरकार इसे मानने से इनकार कर रही है | सरकार का तर्क है की वह स्वयं जब समाज की प्रतिनिधि है तो अलग से सिविल सोसायिटी के सदस्यों का क्या काम ? सरकार का ऐसा कहना स्वाभाविक ही है | अन्ना हजारे ने साठ वर्षों के  शासन के एकाधिकार को जो चुनौती दे दी है | 

साठ वर्षों से शासन ने समाज को निगल कर स्वयं को समाज जो घोषित कर रखा है | इसका प्रमाण भारत का संविधान स्वयं है जिसके चार सौ से अधिक पृष्ठों में एक जगह भी समाज नामक शब्द नहीं है | आज अन्ना हजारे एवं हजारों लोग यह भेद जान गए हैं और शासन तथा समाज के अंतर को जानकार ही शासन में समाज की अलग से सहभागिता मांग रहे हैं | 

आज भारत का आम नागरिक यह समझ गया है की लोक और  तंत्र  के बीच एकपक्षीय रूप से तंत्र के पास शक्ति का ध्रुवीकरण होता जा रहा है और  वह अन्ना हजारे के माध्यम से तंत्र पर लोक की प्रधानता स्थापित करना चाहता है |  अतः इस बिल में समाज का प्रतिनिधित्व  ही हमारे लोकतंत्र  के लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी |

भारत में  एक भ्रम घर कर गया है की भ्रष्टाचार व्यक्ति की करतूत होती है | असल में, भ्रष्टाचार व्यक्ति नहीं, व्यक्ति में शासन द्वारा निहित वैधानिक शक्ति करती है | पदहीन व्यक्ति भ्रष्टाचार कर ही नहीं सकता, परिचितों को धोखा भले दे दे | और शक्ति जब भी केन्द्रित होगी, उसके दुरूपयोग की संभावना भी उसी अनुपात में बढ़ जाती है |

केन्द्रीय सतर्कता आयोग का गठन भी भ्रष्टाचार को पनपते ही नोचने के उद्देश्य से हुआ था | इसीलिए उस इकाई के पास दंडशक्ति भी दी गई | पर आखिर हुआ क्या ? शासन ने उसका नेतृत्व ही ठकुरसुहाती करने वाले व्यक्ति के हाथ में देने की पूरी योजना बना डाली | भला हो सर्वोच्च न्यायालय का जिसने देर से ही सही, उस नियुक्ति को रद्द कर दिया | लोकपाल को भी ऎसी ही दंडशक्ति से लैस करने की हिमायत जन लोकपाल मांगनेवाला सभ्य समाज कर रहा है | भविष्य में लोकपाल का नेतृत्व भी थोमस जैसा कोई आदेशपाल नहीं करेगा इसकी  क्या गारंटी ?  तब फिर से सभ्य समाज को अपना काम धंधा छोड़कर,  या सर्वोच्च न्यायालय को न्याय देने के स्थान पर  नियुक्ति प्रक्रिया जैसे ओछे प्रशासनिक विषयों पर निर्णय देने हेतु बाध्य होना पडेगा |


शरीफ लोग शेर को शाकाहारी बनाने का प्रयास करते हैं | समझदार लोग शेर को पिंजड़े में बंद करने की योजना बनाते हैं | पहले तरीके में अपवाद स्वरूप सफलता मिलती भी है, फिर भी शेर का आदमखोर बनने का ख़तरा बना रहता है,| दूसरे तरीके में सफलता भले देर से मिले, शेर के आदमखोर बनने का ख़तरा समाप्त हो जाता है | क्योंकि बकरी यह जानती है की सौ में से निन्यानवे शेर  अगर शाकाहारी बन जाए  तो भी उसकी  जान को ख़तरा कम नहीं होता |


आज पूरे भारत में यह बात सर्वमान्य है की भारत की सभी समस्याओं की जड़ में भ्रष्टाचार है, और शक्ति का केन्द्रीकरण ही भ्रष्टाचार का उत्स है | अतः सभ्य समाज को भारत की सभी समस्याओं के शाश्वत निदान के लिए भविष्य में गांधी प्रणीत सत्ता  के अकेंद्रीकरण ( लोक स्वराज ) की दिशा में चलना ही होगा | उस स्थिति में पहुँचने से पहले वर्तमान में चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी अहिंसक सात्विक आवाज की सुर में सुर मिलाना भी समझदारी ही होगी |

Sunday, April 3, 2011

Criket Victory

-----------------क्रिकेट विजय का मतलब

भारत ने आखिरकार २८ वर्षों बाद क्रिकेट  विश्व कप जीत ही लिया | करोड़ों लोगों की शुभकामनाएं  तथा टीम के शानदार प्रदर्शन के बदौलत यह संभव हुआ |  कमोबेश यह वही टीम है जो पिछले विश्व कप में पहले ही दौर में बाहर हो गई थी | विशेषता यह की इस विजय अभियान में टीम ने सभी भूतपूर्व विश्व विजेताओं को एक एक कर हराकर खिताब जीता है | 

जीत के बाद  टीम का रवैया टीम के जीत का  सूत्र को दर्शाता  है | फाइनल मैच टीम सचिन तेंदुलकर के खराब प्रदर्शन के बावजूद जीती, फिर भी पूरी टीम ने जीत का श्रेय सचिन  को समर्पित किया | सचिन का फाइनल से पहले  श्रंखला में शानदार प्रदर्शन रहा था, सो वे इस श्रेय को वैध रूप से ले सकते थे | पर उन्होंने जीत का सम्पूर्ण श्रेय टीम को समर्पित किया | इसके विपरीत टीम के कप्तान धोनी ने श्रंखला में टीम चयन से लेकर पिच के गलत आकलन तक का सभी दोष अपने ऊपर लिया, जबकी सब जानते हैं की  चयन या पिच संबंधी सभी निर्णय टीम, कोच आदि सामूहिक रूप से लेते हैं, कप्तान व्यक्तिगत नहीं |

ऐसा अक्सर कम ही होता है की श्रेय दूसरों को दिया जाय और दोष अपने ऊपर लिया जाय | साधारणतः कोई भी समूह -चाहे वह परिवार हो, संघ हो, संस्थाएं हो, प्रतिष्ठान हो, सरकार हो, -में श्रेय लेने की होड़ और दोष मढने की प्रवृत्ति होती है जो उत्तरोत्तर  उस इकाई में कलह या सडन पैदा करती है | भारत की ग्रामीण सभ्यता में सामूहिकता आज भी नैसर्गिक रूप से विद्यमान है, पर शहरों में व्यक्तिवादिता के कारण अब वह विलुप्त होती जा रही है | सामूहिकता में श्रेय देने की प्रवृत्ति का निर्माण होता है, जबकी व्यक्तिवादिता, स्वार्थ को वैधानिक मानने के चलते  दोष मढने की प्रवृत्ति उत्पन्न करती है |  इस परिप्रेक्ष्य में  भारतीय कप्तान का मूलतः ग्रामीण प्रदेश से आना भी एक सशक्त प्रतीक है |

शंकराचार्य का अद्वैत हो, सर्वोदय का  सिद्धांत हो, चाहे भगवान् बुद्ध का मूलमंत्र, "संघम शरणम गच्छामी", यही सिखाता है की अगर किसी इकाई में श्रेय देने की और दोष लेने की प्रवृत्ति निर्मित हो जाए तो वह इकाई स्वाभाविक रूप से  सर्वोत्तम बन जाती है | सभी इतिहासपुरुष इसी सिद्धांत पर चले, चाहे वह ईसा का दोषहीन होने के बावजूद सलीब पर चढ़ना  हो, या चौरी-चौरा के  बाद गांधी द्वारा  उसकी नैतिक जिम्मेदारी लेकर किया गया प्रायश्चित्त हो | 

भारतीय क्रिकेट टीम ने जाने-अनजाने स्वच्छ और सफल समाज रचना का सूत्र पेश कर दिया है | क्रिकेट की लोकप्रियता को देखते हुए, यह सूत्र शनै-शनै समाज में व्यापक रूप से प्रतिष्ठित  होगा ऐसी आशा है | 


Karpuri Thakur

  भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर  का कर्नाटक कनेक्शन (Click here for Kannada Book Details)        कर्पूरी ठाकुर कम से कम दो बार बैंगलोर आये। एक बार...