Friday, May 24, 2013

IPL Scandal

---- आईपीएल विवाद 


     आईपीएल वर्तमान में घोर विवादों में घिरी हुई है । खिलाड़ी, पूर्व खिलाड़ी, अम्पायर, सटोरिये , फ़िल्मी हस्तियाँ, अंडरवर्ल्ड, खिलाड़ियों की पत्नियों से लेकर टीम के मालिक, दामाद सब की लिप्तता धीरे-धीरे साफ़ होते जा रहा है । भारत का हर नागरिक यह भी समझ रहा है की इतने सारे  किरदारों के इस नाटक के सूत्रधार क्रिकेट के जो आका बीसीसीआई को चलाते हैं वे राजनेता तो अवश्य ही इसके लाभार्थी हैं । और मजे की बात यह की भारतीय राजनीति के सभी प्रमुख दलों की इस क्रिकेट संचालन में भागीदारी है, चाहे कांग्रेस हो, भाजपा हो, राकांपा हो, राजद हो । और हो भी क्यों ना ? आखिर वर्तमान भारत में क्रिकेट सबसे अधिक लोकप्रिय अर्थात दुधारू देवता है । भला लाशों से पटे कुरुक्षेत्र पर गिद्ध नहीं मंडराएंगे तो कहाँ मंडराएंगे ? 

     आईपीएल की स्थापना भी तो आखिर सट्टेबाजी करने हेतु ही हुई थी । सन 2000 के आसपास क्रिकेट जगत में अंतर्राष्ट्रीय सट्टेबाजी का पर्दाफ़ाश हुआ जब दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, पाकिस्तान भारत आदि के खिलाड़ी मैच फिक्सिंग करते पाए गए । सबसे अहम् बात थी इसके मुखिया डी कम्पनी की वैश्विक आतंकी गिरोहों के साथ निकटता । ऐसी स्थिति में पाश्चात्य देशों के लिए इस आतंक-अर्थ-खेल के दुश्चक्र को तोड़ना लाजमी था, क्योंकि पूंजीवाद के सिद्धांत को लम्बे समय तक टिकना हो तो हिंसा के स्थान पर शोषण की योजना अधिक सफल होती है क्योंकि आतंक/हिंसा क्षरणशील सिद्धांत होता है ।  अतः आतंक से पूंजीवाद हमेशा दूर रहना पसंद करता है । तो इस कारणवश विश्व क्रिकेट सन 2000 के दशक में मैच फिक्सिंग से दूर हो गया । यहाँ तक की शारजाह आदि जो क्रिकेट के गढ़ माने जाते थे, वहां से विश्व क्रिकेट ने अपना तम्बू उठा लिया ।  

     भारत में अभी तक पूंजीवाद का अर्थ सीधे सीधे येन-केन-प्रकारेण पैसा कमाना माना जाता है, अतः मूल्य निरपेक्ष है । तथा राजनेता मूल्य निरपेक्षता के जीवंत प्रतीक । तो मूल्य निरपेक्ष अर्थ-अर्जन के उद्देश्य से ही आईपीएल की स्थापना हुई । पर विश्व क्रिकेट समझदार था, अतः आईसीसी ने आईपीएल को मान्यता नहीं प्रदान की, क्योंकि वह इस गिरोहबाजी के सिद्धांत से परिचित था । तो यदि आईपीएल आज अपने स्थापना के उद्देश्यों पर खरा उतर रहा है तो अधिक आश्चर्य नहीं होना चाहिए । 

     समस्या केवल क्रिकेट की लोकप्रियता की है । आईपीएल के संचालन में चाहे जितना घपला हो, पर इस सच्चाई को अनदेखा नहीं किया जा सकता की भारत के हर घर में क्रिकेट प्रेमी, बच्चे बूढ़े सभी आनंद लेते  हैं । ऐसे में इस देश को कोई न कोई मार्ग खोजना ही होगा जिसमें की क्रिकेट बचे और गिरोह टूटे । राजनेता तो नए नए कानून बनाने की राय देंगे ही ताकि क्रिकेट उनके कब्जे में रहे । आईपीएल बंद करने की मांग नाजायज बच्चे को मारने की सलाह जैसी हास्यास्पद है । 

     भारत यदि पूँजीवाद के राजमार्ग पर चल रहा है तो उसे पूंजीवाद के सिद्धांतों और ऐसी परिस्थिति में दूसरे देशों ने क्या किया उससे सीखना चाहिए । सन नब्बे के दशक में हालेंड में देहव्यापार संबंधी बढ़ती हिंसा को रोकने के लिए उसने एक ख़ास भौगोलिक क्षेत्र में देहव्यापार को व्यवस्थित रूप से क़ानून-सम्मत मान्यता दी । आश्चर्य की उसके बाद वहां महिलाओं पर हिंसा, बलात्कार, मानव तस्करी, देहव्यापार संबंधी हिंसा आदि सभी मापदंडों में ठोस कमी देखी गयी । मनुष्य की इच्छाओं की नीति-निरपेक्ष भूमिका से पूर्ति की व्यवस्था उन इच्छाओं के पूरे न होने की स्थिति में होने वाली सामाजिक-अव्यवस्था से लाख गुनी बेहतर स्थिति होती है । 

     भारत में भी घुड़दौड़, लाटरी आदि के रूप में क्रीडाद्यूत आज भी मान्य है । शायद अब समय आ गया है की आईपीएल को भी उस श्रेणी में डाल  दिया जाय तो क्रिकेट भी बचेगा और वह आतंक-अर्थ-खेल-राजनीति के दुश्चक्र से भी बाहर निकल जाएगा । 


Monday, May 6, 2013

India.....towards solutions


भारत- समस्या से समाधान की ओर ........


     1980 दशक में भारत का सबसे बड़ा घोटाला 'बोफोर्स' प्रकाश में आया | मूल्य था 64 करोड़ रुपये | चौथाई सदी बाद 'स्पेक्ट्रम' घोटाला सामने आया | मूल्य हुआ 164 हजार करोड़ रुपये | यानी 2500 गुना से अधिक की मूल्यवृद्धि | इन पच्चीस वर्षों में भारत में मुद्रास्फिति, रुपये का अवमूल्यन, मूल्यवृद्धि आदि को समेटकर भी किसी भी वस्तु का दाम 2500 गुना नही बढ़ा है | चाहे वह सोना हो, चांदी हो, दलहन हो, तिलहन हो, कपड़ा हो, वेतन हो, चाहे सबसे महंगी जमीन ही क्यों न हो | स्पष्ट है की भ्रष्टाचार बाक़ी विषयों की तुलना में जामितीय अनुपात में बढ़ रहा है | इन पच्चीस वर्षों में सत्ताएं बदली, लोग बदले, नेता बदले, या यों कहें की एक पूरी पीढी ही बदल गई | इस बीच भारत में मध्यममार्गी, वामपंथी, राष्ट्रवादी और अलावा इनके हर तरह के गठबंधन ने सत्ता संभाली | पर भ्रष्टाचार न बदला न ही थमा |



     आज कोबरापोस्ट ने खुलासा किया है भारत के अधिकाँश सरकारी बैंक एवं बीमा कम्पनियां भी काले धन को उजाला करने के धोबीघाट भर हैं ।  हालांकि इस खुलासे में पैसे का लेनदेन नहीं हुआ, पर इसकी व्यापकता एवं संस्थानों की लिप्तता के आधार पर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की यह स्वतन्त्र भारत का सबसे बड़ा भ्रष्टाचार खुलासा है ।  अधिकतर देखा गया है की जनता, और मीडिया की प्रतिक्रिया यह होती है की ऐसे कांडों में जो व्यक्ति लिप्त पाया जाता है, उसपर भ्रष्टाचार का ठीकरा फोड़ना, उसे 'एक्सपोस' कर, दण्डित करने का उपक्रम चलाना आदि | पर यहाँ गौर करने लायक बात यह है की जब हर नया काण्ड एक नए व्यक्ति की करतूत है, तब तो व्यक्ति की अपेक्षा व्यवस्था को दोषी होना चाहिए | कोबरापोस्ट के खुलासे से यह भी साफ़ हो गया है की "लोक" को लूटने वाले "तंत्र" नामक गिरोह के सत्ताधारियों ने समाज को लूटने के लिए अपने एजेंट भी छोड़ रखे हैं । 



     थोड़ी और सूक्ष्मता से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है की भ्रष्टाचार सत्ताधारी ही करते हैं | निष्ठा निरपेक्ष | तो भ्रष्टाचार की जड़ सत्ता साबित होती है | सत्ता अर्थात समाज द्वारा मान्यताप्राप्त व्यवस्था को चलानेवाले व्यवस्थापक | पर ऐसी सत्ताएं तो संसार भर में अनादी काल से व्याप्त हैं | पर ऐसा भ्रष्टाचार तो और किसी देश में नहीं दीखता |  न ही इतिहास में | तो आखिर खोट कहाँ है ?



     खोट है हमारी व्यवस्था (सत्ता) के व्यावहारिक प्रयोग में | सत्ताधारी असल में व्यवस्थापक होते हैं, मालिक नहीं | 65 साल पहले हमने जो व्यवस्था अपनाई है उसमे सत्ताधारियों को गलती से व्यवस्थापक के बदले मालिकाना हक़ दे दिया गया है | अत: सत्ता निरंकुश हो गई है | और निरंकुशता, जो प्रस्तुत सन्दर्भ में संविधान-सम्मत केन्द्रीकरण का प्रारूप लिए हुए है, वही भ्रष्टाचार की जड़ है | इसी केन्द्रीकरण के कारण  सत्ता समय-समय पर विशेषाधिकार अपने गुर्गों को बांटती है, जो "लोक" को लूटते हैं । कभी-कभार कोबरापोस्ट या रेलमंत्री बंसल के भांजे पर सीबीआई जैसे अपवाद  खुलासे पर सत्ता तुरंत अपने ही गुर्गों से मुहँ मोड़ लेती है, उन्हें पहचानने से इनकार कर देती है, जैसे बंसल जी कर रहे हैं, और केन्द्रीय रिजर्व बैंक कोबरापोस्ट खुलासे के बाद बैंकों पर करेगी । 



     भ्रष्टाचार का चरित्र होता है कि उसमें दो पक्ष होते हैं | एक मांगनेवाला, एक देनेवाला | पहला भ्रष्टाचार दो अपरिचितों के बीच ही घटित होता है ।  क्योंकि परिचितों के बीच भ्रष्टाचार संभव नहीं होता है | हमारा कोई मित्र या संबंधी हमारा कोई काम करे, या न करे, पर उसके एवज में कोई मांग नहीं करता है | परिचितों के बीच धोखा संभव है, भ्रष्टाचार नहीं | धोखे में हानि व्यक्ति को होती है | भ्रष्टाचार की परिधि में सम्पूर्ण समाज आ जाता है |



     कल्पना करें कि हमारे गाँव में पुलिस का काम वैधानिक तरीके से गाँव के नागरिक ही कर रहे हैं | ऐसे में गाँव में पुलिस-ग्रामवासी के बीच भ्रष्टाचार बढेगा या घटेगा ? स्वाभाविक उत्तर है, घटेगा | क्योंकि मांगेगा किस मुंह से और देगा कौन | विश्व में वर्तमान में जितने भी विकसित लोकतांत्रिक देश हैं, उनमें हूबहू यही व्यवस्था है | स्थानीय सुरक्षा, न्याय, नागरिक सुविधाएं आदि की व्यवस्था स्थानीय नागरिकों के जिम्मे ही होती  है | केवल विस्तृत विषय, जैसे मुद्रा, सेना, संचार, कर, विदेश नीति आदि ही  केंद्रीकृत होते हैं |



भारत के संविधान में भी पंचायती राज/स्थानीय निकाय अधिनियम के रूप में ऐसे प्रावधान हैं | समस्या केवल धारा 243 (क) और धारा 243 (छ) के शब्दों के हेरफेर में है | 243 (क) के अनुसार पंचायत/स्थानीय निकाय स्थापित करना राज्य के लिए अनिवार्य है | पर 243 (छ) आते-आते उन पंचायतों/स्थानीय निकायों को क्या अधिकार देना यह राज्य का ऐच्छिक विषय बना दिया गया है | इस कारण देशभर की पंचायतें/ स्थानीय निकाय अस्तित्व में तो आ जाते हैं, पर पंगु बनकर | क्योंकि राज्य, 243 (छ) की आड़ में उन्हें कोई अधिकार देता ही नहीं |



     भ्रष्टाचार समेत भारत की अधिकाँश समस्याओं का समाधान सीधा सा लोक स्वराज हैं -जिसमें वर्तमान की संघ सूची, राज्य सूची एवं समवर्ती सूची में एक और सूची ग्राम सभा/नगर सभा के अधिकारों  की जोडी जाय, जिसमें अधिकाधिक दायित्व उन्हें सौंप दिए जाएं | केवल मुद्रा, दूरसंचार, सेना, कर, विदेशनीति, रेल, उड्डयन, जहाजरानी आदि ऐसे विषय जो स्थानीय भूगोल को लांघते हों, वे मात्र केंद्र तथा राज्य के पास रहें | 

     इस विचार को अव्यावहारिक घोषित करनेवाले बुद्धिजीवी यह बता दें की यदि ग्राम सभा/नगर सभा को अपने मामलों में नीति बनाने का अधिकार देना गलत है तो यह कहाँ तक उचित है की संसद या विधानसभा वैसी ही नीति अपने और गैरों के लिए भी बनाए ? यह तर्क कहाँ तक उचित है की एक तरफ हम जिसे अपनी स्थानीय नीति बनाने लायक भी नहीं मानते, उसीको प्रधानमंत्री तक बनाने के प्रावधान को मानने लगते हैं । हमारे राजनेता संसद को कब्जे में रखकर इसी प्रकार मनमानी करते रहें और जनता को कोई विकल्प नहीं दिखा तो जनता अगर लीबिया जैसे हर समस्या का समाधान राजनेताओं को सूली पर चढ़ाना मान ले तो जनता का क्या दोष ? 

     समय आ गया है की पक्ष-विपक्ष के नाम पर बने इस राजनीतिक गिरोह को तोड़ने का काम जो भी व्यक्ति, समूह, राजनीतिक दल अथवा मीडिया करे, उसे हम पूरा समर्थन दें । जो भी हो, अब यह स्पष्ट हो गया है की व्यवस्था सुधार से रवैया बदलना असंभव है । इसका एकमात्र निदान सम्पूर्ण व्यवथा परिवर्तन, अर्थात लोक स्वराज ही है । 

Thursday, May 2, 2013

Defining DEMOCRACY



Defining DEMOCRACY

The term Democracy originates from the Greek word dēmokratía.  It means "rule of the people" and not "rule by representatives" as generally perceived. The definition implies that democracy is a system far above individuals; in fact it is collective in nature. And the key word for any collective exercise is participation. In ancient India, during Buddha’s time, such village republics existed aplenty where periodic local meetings took place in which ALL people of a locality took policy decisions. Thereafter, India went through nearly a millennium of slavery by various foreign civilizations until it gained independence in 1947.

In this interim period, world over and especially in Europe and America, renaissance happened resulting in liberal thoughts taking center stage. The impact of it was that in such places democracies took root and flourished. These democracies were more or less akin to the ancient Indian republics, i.e. they were participatory in nature.

Even during the freedom struggle tall men like the Father of our Nation Gandhiji fiercely advocated autonomous ‘village republics’ in his seminal book “Hind Swaraj”. Incidentally, India in 1947 adopted the model of representative democracy. This was understandable because a dominion nation gaining full-fledged participatory democracy in one leap was a tall order. The ill- effects of representative democracy are becoming glaringly obvious in India of the recent past. Uncivilized tendencies like corruption, alarming crime increase, rapes, mal- governance, anarchy, exploitation, huge economic disparity, hunger, lack of basic amenities to millions etc are seen only in the representative democracies. Empirical evidence suggest that these banes are absent in participatory democracies.

It is high time, India matures into participatory democracy because the inherent flaw of the representative democracy is that it is nothing but time bound dictatorship. Participatory democracy is entirely intra-vires our constitution as proven in Constitutional Amendments 73 & 74. The critical elements to be achieved in this transition from representative to participatory model are ‘Right to Reject’ and ‘Right to Recall’, an effective and independent watchdog to audit -and if need be reprimand malafide policy framers and constitutional validity & autonomy to primary local bodies like ‘Gram Sabhas’ and ‘Ward Sabhas’. This is Swaraj.

It is amply clear that the present political class of India will not initiate this change for the simple reason that they have a vested interest in the present status-quo. Revision is anathema to status-quoists. Yet this status-quo is unacceptable to the citizenry of India for the obvious reason that the citizenry is not benefiting from this status-quo. An absence of social audit as well as license to rule once elected has resulted in ‘Power begets money’ & ‘Money begets Power’ syndrome. The nation however is yearning change. It is in this light that the massive public support and the meteoric rise of civic society movements like the JanLokpal movement should be viewed.

The disenchantment of the citizenry from the present representative model of democracy seems to be the genesis of Aam Aadmi party. AAP should stand for complete destruction of power centers -meaning constitutional unitary independence to all respective units to frame policy, ‘Right to Reject’ and  ‘Right to Recall’ and an effective and independent JanLokpal to correct erring administrators.


Karpuri Thakur

  भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर  का कर्नाटक कनेक्शन (Click here for Kannada Book Details)        कर्पूरी ठाकुर कम से कम दो बार बैंगलोर आये। एक बार...