Tuesday, January 8, 2019

Quota for the Anti Quota


आरक्षण विरोधियों को आरक्षण का एक्स रे

     खबर है की मोदी कैबिनेट ने सोमवार को वर्तमान आरक्षित श्रेणी के बाहर की श्रेणी को आर्थिक आधार पर सरकारी नौकरियों एवं शिक्षा संस्थानों में 10% आरक्षण देने  की योजना बनायी है | 

     इस पहल से चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया है। कोई इसे सवर्ण आरक्षण कह रहा है तो कोई इसे असंवैधानिक कह रहा है | विपक्षी राजनितिक दल  इसे पॉलिटिकल स्टंट बता रहे हैं, तो सत्ता पक्ष इसे मास्टरस्ट्रोक बता रहा है | आने वाले समय में भाजपा इसे दोनों समूहों को फ़ायदा होता हुआ जताने की कोशिश करेगी | सवर्णों  को कहेगी की नया आरक्षण क्योंकि जातिगत आधार से बाहर होगा, अतः सवर्णों को  इसका सर्वाधिक लाभ मिलेगा, वहीँ वह अवर्णों को यह जतायेगी की चूंकि आर्थिक रूप से अवर्ण  सबसे कमजोर हैं, तो उनको अब दस प्रतिशत और अधिक आरक्षण मिलेगा | 

     भाजपा ने  सटीक आकलन किया है की शहरी जनसंख्या में जातीय विषमता से अधिक आर्थिक विषमता का रोष है, इसीलिए आर्थिक विषमता को दूर करने की घोषणा से उसे चुनावी लाभ होगा | काफी हद तक यह आकलन सही भी है क्योंकि गावों में जातीयता जितनी सघन है, शहरों में आर्थिकता उतनी ही सघन है | 

     सनद रहे की सवर्ण आरक्षण की राजनीति का इतिहास काफी पुराना है | पूर्ववर्ती सरकारों ने भी आर्थिक आधार पर सवर्णों को आरक्षण देने के कानून बनाये लेकिन सर्वोच्च न्यायपालिका की  ९ जजों की खंडपीठ ने इंदिरा साहनी केस में ही यह स्थापित कर दिया की भारतीय सविधान के अनुच्छेद १६ में सामाजिक पिछड़ेपन का अर्थ ही शैक्षणिक एवं आर्थिक पिछड़ापन होने के चलते अलग से आर्थिक पिछड़ेपन की श्रेणी बनाना असंवैधानिक है, अतः ऐसा प्रयास व्यर्थ है | 

    पूर्व में भी कोर्ट ने कई बार सवर्ण आरक्षण के प्रयास को निरस्त किया है | प्रधानमंत्री नरसिंह राव द्वारा आर्थिक आधार पर 10% का प्रस्ताव वर्ष 1992 में कोर्ट ने निरस्त कर दिया था। बिहार में 1978 में  कर्पूरी ठाकुर ने आर्थिक आधार पर सवर्णों को 3% आरक्षण दिया जिसे कोर्ट ने निरस्त कर दिया | 2015 में राजस्थान तथा हरियाणा सरकारों ने आर्थिक पिछड़ों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 14% आरक्षण  देने प्रस्ताव लाया जिसे 2016 में राजस्थान हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया। गुजरात सरकार ने भी 2016 में सामान्य वर्ग के आर्थिक पिछड़े लोगों को 10% आरक्षण देने का फैसला लिया था। गुजरात  हाईकोर्ट ने इस फैसले को असंवैधानिक करार दे  दिया | 

इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण का लाभ केवल सामाजिक पिछड़ों को तथा उस की सीमा अधिकतम 50% से कम  मुक़र्रर कर दी है | साथ ही विभिन्न वर्गों के आरक्षण प्रतिशत हेतु वैज्ञानिक तकनीक से प्राप्त तथ्य ही मान्य किये हैं चाहे वह कालेलकर समिति रिपोर्ट हो या मंडल कमीशन रिपोर्ट | 

     ऐसे में बिना किसी तथ्यों के सहारे, नई  आरक्षण श्रेणी बनाने हेतु संविधान के अनुच्छेद १६ में संशोधन करके ही नई श्रेणी को आरक्षण कोटे शामिल किया जा सकता है | संविधान संशोधन संसद के दोनों सदनों २/३ बहुमत से ही पारित हो सकता है, जो संख्या भाजपा के पास नहीं है |  

अतः इस सरकार के कार्यकाल के अंत में ऐसी पहल का एक ही अर्थ निकलता है की भाजपा सवर्णों के बीच अपने खिसकते जनाधार को बचाने की कवायद कर रही है क्योंकि वह जान गयी है की २०१९ का चुनाव न वह  वह साम्प्रदायिकता की भट्टी की गर्म राख से जीत सकती है, न ही विकास की मृगमरीचिका में वोटर को पुनः भटका सकती है | वह जानती है की कहीं अगर सवर्ण एवं अवर्ण वोट एकमुश्त उसके खिलाफ पड़ गए तो, उसे अगली लोकसभा में भारी घटा हो सकता है | 

    संक्षेप में, आगामी लोकसभा चुनावों में प्रभावशाली सवर्ण वोट का संख्यात्मक अवर्ण वोट से मिलने की संभावना को ही समाप्त कर देने का प्रयास भर है १०% आर्थिक पिछड़ा आरक्षण गुब्बारा |

Saturday, January 5, 2019

TV Interviews

Human evolution, Indian civilization, religions, politics, modern science -whether irrelevant or not, is part of Indian mainstream discourse today.

मानव विकास, सभ्यताएं, भारतीय संस्कृति, धर्म, राजनीति, आधुनिक विज्ञान आदि - प्रासंगिक हों या न हों, आज चर्चा में हैं । 

Plz do watch leisurely & feel free to correct, comment or consent with the links below

1. Human Migration, PreVedic Indian civilization

2. Vedic India, Harappan, Upnishadic Hinduism

3.Indigenous philosophies - Jainism, Buddhism, Hinduism

4. Islam & its unique version in India, science, demise of religion & politics in modern era

5. India under slavery of Islam & European colonization

6.Freedom struggle, independent India

7. On Decentralization, AAP genesis

8. Radio Talk : AAP_Worldwide 

Loksabha 2019 : Discourse

बीजेपी को जिताएगा हिंदू, 

बीजेपी को हराएगा हिंदू


देश का राजनीतिक मूड नापने का एक काफी बड़ा सैंपल रहा यह चुनाव। चुनाव नतीजों ने कुछ चीज़ें स्पष्ट कीं। बीजेपी का परंपरागत वोट बैंक सुरक्षित है, पर 2014 के कई बीजेपी वोटरों ने बीजेपी के ख़िलाफ़ सबसे मज़बूत उपलब्ध विकल्प को चुना, चाहे वह कांग्रेस हो या क्षेत्रीय दल।  
एक स्थापित सत्य है कि ध्रुवीकरण किए बग़ैर किसी भी राजनीतिक दल का मूल वोट बैंक नहीं बनता। दूसरा सत्य यह भी है कि केवल ध्रुवीकरण की राजनीति सर्वमान्य लोकप्रिय भी नहीं हो पाती, क्योंकि ध्रुवीकरण की नीति के चलते किसी दल का मूल वोट बैंक तो निर्मित हो जाता है, पर अपने वोट बैंक को साथ रखने की तुष्टीकरण की आवश्यकता के चलते समाज के कई अन्य तबकों में वह दल अलोकप्रिय भी हो जाता है।
ऐसे दलों का मूल तर्क अक्सर यह होता है कि वह एक वर्ग-विशेष को उसके अपने प्रतिनिधि के माध्यम से सत्ता में भागीदारी दिला सकता है। इसीलिए अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियाँ एक ख़ास तबक़े में अत्यंत प्रभावशाली भी हैं, पर क्षेत्र-विशेष तक सीमित भी। 
राष्ट्रीय पार्टियाँ परंपरागत वोट बैंक के घनीभूत होने के बाद अपने जनाधार को चौड़ा करने के लिए संकीर्ण तुष्टीकरण के ऊपर उठ कर कुछ व्यापक विषयों को भी प्रचारित करती हैं, ताकि बड़े भूभाग के अधिक लोग उसकी तरफ़ आकर्षित हों। अर्थात मूल वोट बैंक के साथ नया वोट बैंक जुड़े।
कांग्रेस ने 80 के दशक के उत्तरार्ध में शाहबानो और अयोध्या तालाखोल प्रकरण द्वारा अपने परंपरागत मुसलिम-दलित वोट बैंक में हिंदू वोट जोड़ने का प्रयत्न किया। बीजेपी ने 2014 में अपने परंपरागत शहरी हिंदू वोट बैंक में विकास के नारे के माध्यम से ग्रामीण, श्रमजीवी, युवाओं का वोट मिलाने का सफल प्रयास किया। 

बीजेपी की दिक़्क़त कहाँ है?

परंतु 2014 से 2018 तक बीजेपी अपने इस नवीन वोटर को उसके विकास के लिए दिए गए वोट के अनुरूप डिलिवरी नहीं दे पाई। घोषणानुसार अच्छे दिनों में न तो किसान की कमाई बढ़ी, न श्रमिक की आय, न युवा को रोज़गार मिला। तो यही 2014 का नवीन वोटर वर्ग मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना, उत्तर-पूर्व में बीजेपी से रूठ कर उसके समक्ष सबसे मज़बूत प्रतिद्वंद्वी को वोट दे बैठा। ऊपर से नोटबंदी, जीएसटी आदि की मार भी भारी पड़ी।
बीजेपी एक और समस्या से भी जूझ रही है। राम मंदिर, धारा 370, समान नागरिक संहिता, पाकिस्तान आदि विषयों में मोदी सरकार द्वारा कोई ठोस बढ़त नहीं प्राप्त कर पाना। ये विषय उसके परंपरागत वोट बैंक की परंपरागत माँगें रही हैं।
हालाँकि गाय, सांस्कृतिक श्रेष्ठता, आतंकवाद आदि विषयों के ज़रिए बीजेपी ने अपने वोट बैंक को कुछ देने का प्रयास तो किया, पर मंदिर, 370 आदि उसके मार्मिक विषयों में कुछ ठोस न कर पाने के चलते हालिया चुनावों में कट्टर हिंदू वोट बैंक भी थोड़ा-बहुत खिसकता दिख रहा है।

कहाँ चूक रही है बीजेपी?

बीजेपी ने एक औसत उत्तर भारतीय नागरिक की मानसिकता का अनूठा आकलन किया है। भक्तिकाल के बाद से भारतीय संस्कृति प्रतीक प्रधान हो गई। उससे पूर्व में वह दर्शन प्रधान थी। प्रतीक प्रधान समाज में भौतिक प्रतीकों से लोगों का लगाव ठीक उसी तरह बढ़ जाता है, जैसे बच्चों का खिलौने से। दक्षिणपंथी संगठनों ने जनमानस की इसी भावना का लाभ उठाया और प्राचीन प्रतीकों को ढेर सारे लोगों के मन में स्थापित कर दिया।
हालाँकि सभी यह जानते हैं कि मंदिर के बनने या न बनने का भ्रष्टाचार, अपराध, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य या मच्छरों तक के बढ़ने-घटने से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। मंदिर एक विशुद्ध भावनात्मक प्रतीक है, यह सब जानते हैं, उसके बनने, न बनने से दैनिक जीवन पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, यह भी सब मानते हैं।
कारण केवल इतना-सा है कि वर्तमान भारत की आबादी ही इतनी अधिक है कि राम के प्रतीक मानने के सरल-से सिद्धांत को मानने वालों की संख्या भी काफी बड़ी है और चुनावी राजनीति हमेशा ही आँकड़ों के जमावड़े का खेल रहा है जिसमें बाज़ी वह मार ले जाता है जो आँकड़ों के समीकरण को अपने पक्ष में करने की क्षमता रखता है। 
  • यहाँ पर यह ऐतिहासिक तथ्य भी जानना ज़रूरी है कि भारतीय सभ्यता में जाति प्रथा के आने के बाद से सवर्ण-अवर्ण भेदभाव शुरू हुआ जो आज तक अवर्णों के व्यापक सार्वजनिक अपमान के रूप में प्रकट होता आ रहा है। इस ज़िल्लत के चलते भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा लंबे समय तक संसाधनों और अवसरों से वंचित रहा।
इस विसंगति के चलते भारत के सभी हिंदू कभी किसी एक सर्वभौम सूत्र के अंतर्गत नहीं बँध सके। बहुत लंबे समय से जातियों के अपने-अपने अलग-अलग डबरे इस देश में रहे जिसका फ़ायदा भी बाहरी आक्रमणकारी सभ्यताओं को मिला और नतीजतन भारत ने हज़ारों सालों की ग़ुलामी भी झेली।
इस परिस्थिति में हिंदू धर्म के अंदर ही एक प्रतीकात्मक मंदिर मात्र के निर्माण के प्रति अनुमोदन का स्तर भी भिन्न-भिन्न है। हालाँकि भगवान राम के जीवन के प्रति आदर व्यापक है, पर जीवंत राम को जड़ प्रतीक के रूप में स्थापित करने की राजनीति को न तो अधिकांश सर्वहारा अवर्णों का समर्थन प्राप्त है, न ही हिंदू धर्म के दार्शनिक पहलू को मानने वाली जनता का।

कहाँ गए अच्छे दिन के वादे?

कुल मिला कर वर्तमान स्थिति यही दर्शाती है कि भले बीजेपी 2014 का चुनाव अच्छे दिन, काला धन वापसी, भ्रष्टाचार-मुक्त भारत, मिनिमम गवर्नेंस आदि के नारों पर जीती हो, मगर 2019 आते-आते वह उपरोक्त पदार्थ-प्रधान, नाप-योग्य, प्रमेय मानदंडों पर गुणात्मक सुधार लाने में असफल रही। इसीलिए बीजेपी अब पुनः अप्रमेय, भावनात्मक विषय पर पुनः विमर्श को ला कर अपना मूल वोट बैंक बचाने-बढ़ाने की कोशिश कर रही है।
  • भाजपा के इस प्रयास की चुनावी सफलता विफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि विपन्न अवर्ण एवं दार्शनिक हिंदू आपस में किस हद तक तालमेल बिठाकर लामबंद होते हैं, क्योंकि श्रेष्ठवाद तथा प्रतीकवाद से इन दोनों ही समूहों का छत्तीस का आँकड़ा बैठता है। आज तक गाँधी के अलावा हार्दिक स्तर पर कभी कोई दलित-दार्शनिक गठजोड़ को सफलतापूर्वक लामबंद नहीं कर पाया है।
बीजेपी यह अच्छी तरह जानती है कि उसकी प्रतीकात्मक विचारधारा को वर्तमान में कोई बौद्धिक चुनौती नहीं दे पा रहा रहा है। कोई यह नहीं पूछ रहा है कि राम मंदिर का आग्रह करने वाली बीजेपी यह क्यों नहीं बताती कि भगवान राम स्वयं क्यों ज्ञान की आराधना करते थे; कि जब राम व्यथित हुए तो गुरु वशिष्ठ से ज्ञान चर्चा कर समाधान खोजा, जो आज भी योगवशिष्ठ ग्रंथ के रूप में हिंदू धर्म के सर्वाधिक प्रमाणित ग्रंथों में गिना जाता है।
कोई बीजेपी को चुनौती क्यों नहीं देता कि साक्षात रामचंद्र जी द्वारा स्थापित रामेश्वरम शिवलिंग को बीजेपी राष्ट्रीय सांस्कृतिक धरोहर क्यों नहीं घोषित करती? यह भी कि संसदीय बहुमत होते हुए भी उसने आज तक अयोध्या में संसद अनुमोदित संवैधानिक मंदिर क्यों नहीं बनाया?

बीजेपी को कौन दे सकता है चुनौती?

बीजेपी के इस भावनात्मक बाइनरी को केवल एक गठजोड़ चुनौती दे सकता है और वह है हिंदू धर्म के दार्शनिक और हिंदू धर्म के मारजिनलाइज्ड की जोड़ी। क्योंकि इस जोड़ी के पास हिंदू धर्म के प्रामाणिक गतवैभव की विश्वस्त धरोहर भी है और चुनावी आँकड़ों में भारी पड़नेवाला संख्याबल भी।
राजनीतिक दृष्टि से देखें तो भारत में आज तीन प्रमुख धाराएँ बह रही हैं। पहली, भाजपानीत प्रतीकात्मक हिंदुत्व की, दूसरी उस श्रेष्ठवादी हिंदुत्व से हाशिए पर धकिया दिए दलितों की, और तीसरी दार्शनिक हिंदुत्व मानने वालों की। पहली प्रसिद्धि में अव्वल है, दूसरी संख्या में सर्वाधिक है, तो तीसरी सबसे प्रामाणिक है। संख्या की कमी तीसरे की समस्या है, संसाधन-नेतृत्व-स्पष्टता की कमी दूसरे को सालती है, इसीलिए पहली लोकप्रिय होती जा रही है।
  • लब्बोलुआब यह है कि 2019 के चुनावों का विमर्श किसान-नौजवान के वोट को हासिल करने की दृष्टि से होगा क्योंकि यही वर्ग वर्तमान में किसी ख़ेमे का स्थापित वोट बैंक नहीं है। समीकरण में अधिकांश कट्टर हिंदू बीजेपी के पक्ष में खड़े दिखेंगे, तो अधिकांश उदार हिंदू, अल्पसंख्यक, दलित आदि अपने क्षेत्र में बीजेपी के सबसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी के पक्ष में। बीजेपी लामबंदी करेगी धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर एवं विपक्ष करेगा जातीय आधार पर।
चुनावी दंगल की गूंज से भरे आनेवाले छह महीने स्पष्ट कर देंगे कि भारत के अगले आम चुनावों का संख्यात्मक समीकरण क्या होगा। यदि दलित-दार्शनिक एक हो गए तो वह बीजेपी की प्रतीकात्मक राजनीति पर भारी पड़ेंगे, और यदि यह गठजोड़ नहीं बन सका तो बीजेपी की वर्तमान प्रसिद्धि उसे संख्या बढ़त दे जाएगी। जो भी हो, 2019 के बाद का भारत एक अलग ही दिशा में जाएगा, वह प्राचीनकाल की ओर होगा या प्रगतिशीलता की ओर, यह लोकसभा चुनाव के नतीजे तय करेंगे।

Karpuri Thakur

  भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर  का कर्नाटक कनेक्शन (Click here for Kannada Book Details)        कर्पूरी ठाकुर कम से कम दो बार बैंगलोर आये। एक बार...