Friday, December 12, 2014

Modi 200 Days

Modi 200 Days  
लोकतंत्र - तानाशाही - लोकस्वराज 

     तानाशाही में समस्याओं का समाधान जल्दी कर दिया जाता है जबकी लोक-स्वराज में समस्याएं पैदा ही कम होती हैं । लोकतंत्र में समस्याओं का लगातार विस्तार होता जाता है । भारत सहित दक्षिण एशिया मैं लोकतंत्र है, अतः इस क्षेत्र में समस्याएं पिछली आधी शताब्दी में  बढ़ती जा रही हैं । पश्चिम के देशों के  लोकतंत्र लोकस्वराज की और झुके हुए होने के कारण वहां समस्याएं कम पैदा होती हैं । कम्युनिस्ट और इस्लामिक देशों में तानाशाही होने से समस्याएं दबा दी जाती है । 

     रूस, ईराक, नेपाल, आदि में तानाशाही के बाद लोकतंत्र आया, इसीलिए वहां अशांति बढ़ रही है । लोकतंत्र यदि लोकस्वराज की दिशा में न बढे तो तानाशाही निश्चित है । भारत में अव्यवस्था थी, और बढ़ रही थी । अतः २०१४ चुनाव परिणाम तानाशाही की तरफ झुके हुए आये । मोदी जी अपने तरीके से समस्याओं का समाधान की दिशा में बढ़ रहे है, किन्तु मोदी जी के किसी कदम से यह नहीं दिखा की वे सहभागी लोकतंत्र अर्थात लोकस्वराज के पक्षधर हैं । 

     यदि आगामी चुनावों में मोदी जी को शत प्रतिशत वोट मिले तो भारत के बुद्धिजीवी उसे लोकतंत्र कहेंगे जबकी वास्तविकता में वो होगी तानाशाही । लोकस्वराज  तभी आएगा जब संसद अपने अधिकारों में थोक कटौती करके वो अधिकार  परिवार, गाँव, जिला, राज्यों  को संवैधानिक संशोधन करके दे दे । 

     तानाशाही, लोकतंत्र और लोकस्वराज में स्पष्ट विभाजन रेखा है । तानाशाही में प्रमुख  लोग भी भय के कारण गलत नहीं करते । लोकतंत्र में प्रमुख लोग निर्भय होकर गलत करते हैं । लोकस्वराज में लोग निर्भय होकर सही काम करते है । जहाँ भी तानाशाही होती है, वहां आमतौर पर लोग भयग्रसित होकर  गलत करने से डरने लगते हैं । इस आधार पर तानाशाही को तौलने की आवश्यकता है ।

     अपने पहले दो सौ दिन के कार्यकाल में मोदीजी ने समस्याओं के समाधान के प्रयास की एक स्पष्ट राह चुनी है, जो तानाशाही की ओर झुकी हुई है । अब तानाशाही बनाम लोकस्वराज का संघर्ष शुरू  करने का उपयुक्त अवसर है । अब यह बात साफ़ कर देने का समय आया है की अब हमें वैसा लोकतंत्र नहीं चाहिए जैसा १९४७ के बाद हमें मिल रहा है ।  


Monday, December 8, 2014

Who will secure citizens from crime ?

दिल्ली बलात्कार ---- जिम्मेदार कौन ? ​

     दिल्ली में फिर एक बार बलात्कार हुआ । इस बार चलती कार में । लगातार ऎसी घटनाएं बढ़ रही हैं ।​चाहे 6 वर्ष की शहरी अबोध कन्या हो या ग्रामीण महिला, इन सब के साथ क्रूरतापूर्ण दुष्कर्म की घटनाएँ भारत सहित विश्वभर में खबर बन रही है । इतनी की, बड़े बड़े राजनेता भी कह रहे हैं की समाज को आत्ममंथन की जरूरत है । ये लोग यह भी कह रहे हैं की सरकार ने अपराधों से और प्रभावी ढंग से निपटने के लिए कानून को मजबूत बनाने के कार्य को तेजी से आगे बढ़ाया है । और हास्यास्पद ढंग से कार कंपनी के लायसेंस को रद्द करने को ठोस कदम करार कर रही है । ​

     मीडिया में चल रही लगातार बहस के दौरान भी भारत के बुद्धिजीवी कुछ ऐसी ही बातें करते तथा कड़ी से कड़ी सजा के हिमायती दिख रहे हैं । टीवी एंकरों, राजनेताओं की मानें तो पूरा समाज दोषी है, और बुद्धिजीवियों की माने तो हर दोषी को फांसी होनी चाहिए । इन दोनों की राय लागू हो जाय तो भारत से मनुष्य प्रजाति डायनोसार के सामान लुप्त हो जायेगी । आश्चर्य है की भारत के जिम्मेदार लोग यह भी नहीं जानते की समाज में अपराधियों की संख्या 2% से भी कम होती है, तथा ऐसे अपराधी तत्वों से शेष 98% सज्जनों को सुरक्षा प्रदान करने हेतु ही पुलिस होती है । राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्‍यूरो के वर्ष 2011 के आंकड़े बताते हैं की भारत में कुल संज्ञेय अपराधों की संख्या 2325575 है । तो दो प्रतिशत विकृत लोगों के कृत्यों की जिम्मेदारी शेष 98​ पर डालना कहाँ की समझदारी है ? यह तो चर्चा हुई समस्या की । अब देखें की भारत के ये मूर्धन्य इसका समाधान क्या बता रहे हैं । 

     ऐसे समय में प्रधानमंत्री से लेकर टीवी पर सभी फांसी जैसी कड़ी से कड़ी सजा की वकालत करते दिख रहे है । मैं भी असाधारण कृत्यों हेतु फांसी का पक्षधर हूँ । पर सच्चाई यह है सुरक्षा और न्याय भिन्न-भिन्न विषय हैं । जब किसी व्यक्ति के साथ अन्याय घटित हो जाता है तब न्यायालय उस व्यक्ति को उसके मूल अधिकारों के हनन के नैतिक एवज में 'मुआवजे' के रूप में न्याय देता है । कानूनों को कडा करने से न्यायालयों को ऐसे 'मुआवजे' दने में अधिक सुविधा तो अवश्य होगी, पर ऐसी घटनाएं रोकने का काम न्यायालय नहीं कर सकते । किसी व्यक्ति के मूल अधिकारों के हनन को रोकने का काम तो सुरक्षा एजेंसियों का है । भारत में उस एजेंसी को पुलिस कहते है । 

     भारत के कर्णधारों को दुनिया के अन्य लोकतन्त्रों में ऐसी ही समस्या का क्या समाधान खोजा गया, इसका अध्ययन करने की फुर्सत निकालनी चाहिए । 1990 के दशक में अमरीका एवं यूरोप में घटती अपराध संख्या पर अलग-अलग शोध स्टीवन पिंकर तथा स्टीवन लेविट ने किये जिसके आश्चर्यजनक परिणाम लेविट ने 2004 के अपने शोध-पत्र में कही । इसमें कहा गया की केवल कुछ अपराधों में कमी की बाट जोहना अव्यावहारिक है । किसी समाज में कुल अपराध या तो घटते हैं या बढ़ते हैं । यूरोप एवं अमरीका के अपराध दर सार्वत्रिक रूप से घटे, चाहे वह भौगोलिक दृष्टि से हो, आर्थिक सम्पन्नता की दृष्टि से हो, या शैक्षणिक योग्यता की दृष्टि से । इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह प्रकट हुआ की इस घटती अपराध दर में बुद्धिजीवियों द्वारा बहुप्रचलित सिद्धांत, जैसे 'पुलिस सुधार', 'फांसी की सजा', 'कड़े क़ानून', 'जनसंख्या नियंत्रण', 'शिक्षा', 'संस्कृति' आदि का कोई स्थान नहीं था । घटती अपराध दर का एकमात्र ठोस कारण था पुलिस स्टाफ की संख्या में इजाफा । यहाँ तक की बढे हुए पुलिस दल की गुणवता भी अप्रासंगिक रही । केवलमात्र पुलिसवालों की संख्या की बढ़ोतरी से दो महाद्वीपों में अपराध दर में ठोस गिरावट देखी गयी है । 

     भारत में भी लोकस्वराज मंच जैसे सामान्य नागरिकों के सामाजिक सरोकार वाले समूह वर्षों से यही समाधान देते आये है की क़ानून से चरित्र न कभी बना है न बनेगा, यह सच्चाई राजनेताओं एवं बुद्धिजीवियों को समझनी चाहिए । यदि वे न समझें तो आम आदमी उन्हें समझाए । अपराधियों से समाज की सुरक्षा राज्य का दायित्व है, अन्य किसी से यह संभव नहीं, यह बात आम आदमी को समझनी पड़ेगी । भारत में पुलिस की स्थिति यह है की प्रति एक लाख आम आदमी पर 137 पुलिसवाले तैनात हैं, वहीं महज 13000 वीआइपी की सुरक्षा में 45000 पुलिसवाले नियुक्त हैं । और सरकारी सूत्रों के अनुसार 22% पुलिस पद रिक्त हैं । इसी कारण राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्‍यूरो के अनुसार वर्ष 2003 में भारत में कुल अपराध जहां 17 लाख से कम थे, वहीँ वे 2011 में 23 लाख से ऊपर पहुँच गए । यानी केवल 8 साल में 1/3 से अधिक की खतरनाक वृद्धि । 

     सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है की यदि चरित्र निर्माण ही सारी समस्याओं का समाधान है तो इतनी भारी-भरकम राज्य व्यवस्था की आवश्यकता ही क्या है ? क्यों न सभी सरकारी महकमों को बंद कर सकल घरेलू उत्पाद को चरित्र निर्माण में झोंक दिया जाय ! समय आ गया है की हम भारत के लोग अपने स्वतन्त्र चिंतन से कुछ नतीजों पर पहुंचें, क्योंकि रोगी को समय से दवा न मिलने से जितना खतरा होता है, उससे कहीं ज्यादा खतरा गलत दवा के सेवन से होता है । 

     ​सुरक्षा और न्याय के अतिरिक्त सारे काम राज्य समाज को सौंप दे और अपनी सारी शक्ति समाज को सुरक्षा और न्याय प्रदान करने में लगाए यही व्यवस्था परिवर्तन है, जो भारत की समस्याओं का सही समाधान है ।

Friday, October 3, 2014

Dashahara

     
दशहरा  महिषासुर या रावण के दमन का उत्सव नहीं है । यह बुरी शक्तियों की अच्छी शक्तियों का विजय का सूचक है । दशहरा अर्थात हमारे अंदर स्थित दस विकारों का दमन ।

     जब व्यक्ति में बुद्धि और भावना का संतुलन गडबड होकर किसी एक दिशा में में बढ़ने लगता है तब समाज पर इसका प्रभाव पड़ना निश्चित है । बुद्धि-प्रधान व्यक्ति समाज-संचालक और भावना प्रधान व्यक्ति संचालित  में आ जाते हैं । बुद्धि-प्रधान लोग प्रचार का सहारा लेकर समाज में असत्य को सत्य तथा सत्य को असत्य के सामान सिद्ध कर देते हैं । भावना-प्रधान लोग इस प्रचार से प्रभावित हो जाते है तथा समाज में नई एवं गलत परिभाषाएं स्थापित हो जाती हैं, जिन्हें चुनौती देना कठिन होता है । 

     ऐसे कालखण्ड में निष्कर्ष निकालने का आधार विचार मंथन का शून्य हो जाता है तथा प्रचार से ही निष्कर्ष निकालने की गलत परम्परा शुरू हो जाती है । देवी दुर्गा तथा श्रीराम ने यही कठिन चुनौती स्वीकार की तथा तत्कालीन सर्वोच्च शक्तिशाली दानव, जिनके सामने देवता भी नतमस्तक थे, उनका दमन किया तथा समाज को दुष्प्रचार से विमुक्त किया ।

     जो संकुचित दायरे से बाहर सोचते है, वे पावर (सत्ता) और स्ट्रेंथ (शक्ति) का भेद पहचानते हैं । अपना गुण  प्रकट करने का मौक़ा मिलता है यब शक्ति पैदा होती है, दूसरे के गुणों को रौंद देने से सत्ता मिलती है । 

     दुर्गा सप्तशती में वर्णन है की देव पहले महिषासुर से स्वयं लड़े, पर हार गए, इसीलिए दुर्गा की प्रार्थना हुई । देवी ने कहा, हरएक  की शक्ति मुझे मिलनी चाहिए । तब विष्णु ने सुदर्शन चक्र, शिव ने पाशुपतास्त्र, गणेश ने अपना अंकुश, इंद्र ने वज्र दिया । सबकी शक्ति इकट्ठा होती है, तभी भगवती का अवतरण होता है । 

     दुर्गा सामूहिक शक्ति है । उसके अनेक हाथ हैं । उन हाथों का योग है, वियोग नहीं । यही स्वस्थ समाज रचना का सिद्धांत है ।

Wednesday, September 24, 2014

AAP the fuel of Swaraj


True definition of Swaraj is "decentralization of power...to the people". All three conditions need fulfilled to achieve swaraj. In an entity that has no power, swaraj isn't necessary (like a family). If power is decentralized to a lower level, it still isn't swaraj (union list & state list already exist in Indian constitution).  

Swaraj in a political party is an oxymoron. Political dispensations need to understand the difference between Intraparty democracy & swaraj. Even if a political party fulfils all its constitutional prerequisites and conducts internal elections at all levels, Swaraj still doesn't descend to the people of india. The fact is that a party is a powerless unit in itself. Aam Aadmis of India formed a political party only because parties are a necessary evil in present day india and sadly no party wants to abdicate power in favour of people. 

Hence we AAPians need to realize that we have taken it upon ourselves to deliver swaraj (power) to the people. AAP doesn't have the luxury of being satisfied if and when power arrives at its tier (as it did when it formed Delhi govt). AAPians should realize that if power hasnt reached their tier,it has nothing to do with Swaraj. These will be the same people will capture swaraj for themselves if and when it reaches their tier. AAP needs to guard against such intellectual debauchery.

Friday, August 15, 2014

Independence Day 2014

 ---- from perpetually 
in-dependence 
to 
INDEPENDENCE


          What started as a mutiny against a foreign regime in 1857 in Meerut by a sepoy martyr named Mangal Pandey culminated in the Independence of India and Pakistan 90 years and thousands of sacrifices later on 14/15th August 1947. Those thousands of freedom fighters lay down their lives for a people who would be free to write their own destiny, their own ‘bhagya vidhaataas’ not dependent on anyone. Come 16th August 2011, and a diminutive frail old man poses a benign question to the prevalent regime asking it to release the power it holds over its people by ushering in transparency. Anna’s Anshan and the regime’s Machiavellian response to it galvanized the nation and common men like you and me woke up to the fact that true independence still eluded India. India after over six decades still hadn’t attained the ideal state of people’s participation in governance. It had only attained adult franchise whereby periodically power gets transferred from one gang of opportunists to another with tacit understanding among them. With Swaraj or “power to the people” still a dream.     

                Thousands of years ago, the phrase SWARAJ was first propounded by sage Atri in Rgveda when he said  व्यचिष्ठे बहुपाय्ये यतेमही स्वराज्ये  Vyachishthe = universal franchise where all people have a right to participation. Bahupayye = whereby, the majority secures the right of minority. Yatemahi = let us all strive for. Swarajye = the ultimate objective of self-rule. In short, this Rgvedic verse extols thus: “Let Us All Strive For Swaraj Wherein All People Are Participators In Decision Making With A Magnanimous Outlook of Securing The Minority.”

     This idea has been nurtured over millennium in the Indian subcontinent from Quetta to Kamrup including long phases during which Self-rule (Swaraj) was practiced as a governance model during the Buddhist age period  http://www.lokrajandolan.org/ancientindia.html Interestingly, even during Moghul invasion & the subsequent European colonization, Swaraj as a governance model was prevalent in many pockets of India. https://docs.google.com/file/d/0B4B_FonvHcE0U1ZRdUlQZWN1UFk/edit
 
In modern day India, Swaraj or Home-rule was propagated by Dadabhai Naorojee as Congress President in 1906, which was later made into a clarion call by Lokmanya Tilak who famously said “Swaraj is my birthright and I shall have it”. Gandhiji too in his seminal book “Hind Swaraj” advocated Swaraj vehemently.

     Things went awry after Gandhiji’s demise in 1948 during the drafting of the constitution. The 26th Jan 1950 document envisages a 2 ½ tier governance system of Province & Nation, with certain minimalist rights to individuals, -a fundamental departure from the tried & tested Swaraj model which had multi-tier decision making structure with “unitary independence to each unit.” It sees each citizen in multiple roles –an individual, a family member, a dweller of a locality, a domicile of a state and a citizen of a nation. Swaraj model guarantees each person participation at each of these levels. Today, in the 21st century, most developed democracies are following this Swaraj model of governance. http://www.lokrajandolan.org/othercountries.html ​​


     India is fortunate that although true Swaraj model of governance is not practiced today, eminent stalwarts have been keeping the Swaraj flame alive post independence. Be it Acharya Vinoba Bhave’s extensive treatise called “Swaraj Shastra”, or Ram Manohar Lohia’s “4 pillars” theory, or Jai Prakash Narayan’s “Sampoorn Kranti”, or Prof Thakur Das Bang’s Swaraj experiments thro Lokswaraj Manch, http://www.lokswarajmanch.blogspot.in/ or Anna Hazare’s IaC movement, or Arvind Kejriwal’s Aam Aadmi Party www.aamaadmiparty.org experiment today.


     Any good idea that voluntarily imposes non-violence (ethical) values upon itself takes time to exude, because other governance models resort to violent (unethical) means to sustain status-quo. Swaraj idea is bound to face stiff opposition from present day entrenched interests. Hence we see a vicious opposition to AAP presently be it Congress whose dynastic politics is anathema to Swaraj, Or BJP which, by openly promulgating dictatorship, has turned itself into a cancer virus eating away at the vitals of Hinduism itself, which conversely gave Swaraj idea to the world. The less said about the other regional parties, the better because they are nothing more than family heirlooms. Gandhi, Lohia, JP, Prof Bang, Anna et al had to face the same wrath of status-quoists from within & without. AAP is going thro the same pain today. Innumerable AAPians too honestly seem more concerned about AAP’s future rather than seeing AAP as a mere vehicle to deliver liberty to the people, ie, Swaraj.

     Adi Shankaracharya, in his immortal theory declared that all living organisms are endowed with five fundamental characteristics. Satt, Chitt, Anand, Mumuksha & Ishna. Satt being the wish to survive, Chitt being the wish to learn, Anand being the desire for happiness, Mumuksha being the wish to break the shackles and become freer, Ishna being the desire to influence others. Swaraj is nothing but an acknowledgement of this fact whereby the governance model guarantees complete liberty to the people.

     Just like Rishi Atri’s mantra, Gandhiji’s Hind Swaraj, Naoroji’s resolution in Congress, Tilak’s clarion call, Lohia’s socialism, JP’s total revolution, Prof Bang’s applied experiments, Anna’s historic movement were combustibles that fuelled Swaraj during their time, present day Indian Swaraj is being fuelled by multitudes including AAP. AAPians too should view ourselves as combustibles of our times to eventually deliver complete liberty (Sampoorn Swaraj) to the citizens. Striving for Swaraj is an eminently fulfilling life for the present generation, the best homage to our great ancestors, and the finest bequest to our children. Regardless of its success or failure as a political party, we should view AAP as a very important milestone in destination Swaraj.

     In Jai Prakash Narayan’s immortal words  मेरी रूचि इस बात में नहीं की कैसे सत्ता हासिल की जाए, बल्कि इस बात में है की कैसे सत्ता का नियंत्रण जनता के हाथ में दे दिया जाए|

We strive to breathe in such an Independent India. 


Tuesday, August 5, 2014

Tulsidas Jayanti



संत गोस्वामी तुलसीदास की जन्म जयंती की हार्दिक शुभकामनाए

गोस्वामी तुलसीदास [१४९७ - १६२३] एक महान कवि थे। अपने जीवनकाल में उन्होंने १२ ग्रन्थ लिखे। उन्हें संस्कृत विद्वान होने के साथ ही हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक माना जाता है। श्रीरामचरितमानस वाल्मीकि रामायण का प्रकारान्तर से ऐसा अवधी भाषान्तर है जिसमें कई कृतियों से महत्वपूर्ण सामग्री समाहित की गयी | रामचरितमानस को समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद विनय पत्रिका उनका एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य है। 

लगभग चार सौ वर्ष पूर्व तुलसीदास जी ने अपनी कृतियों की रचना की थी। आधुनिक प्रकाशन-सुविधाओं से रहित उस काल में भी तुलसीदास का काव्य जन-जन तक पहुँच चुका था। यह उनके कवि रूप में लोकप्रिय होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मानस जैसे वृहद् ग्रन्थ को कण्ठस्थ करके सामान्य पढ़े लिखे लोग भी अपनी शुचिता एवं ज्ञान के लिए प्रसिद्ध होने लगे थे।

रामचरितमानस तुलसीदास जी का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ रहा है। उन्होंने अपनी रचनाओं के सम्बन्ध में कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है, इसलिए प्रामाणिक रचनाओं के सम्बन्ध में अन्त:साक्ष्य का अभाव दिखायी देता है। 

गोसांईजी के रामचरितमानस के नायक राम को मैं इस रूप में देखता हूँ :-


रामचंद्र जी को मैं भगवान् मानता हूँ, पर यह आवश्यक नहीं मानता की सब उन्हें भगवान् मानें | ईश्वर ने राम बनके अवतार लिया या राम नामक मनुष्य अपने चरित्र से ईश्वरीय बन गया इस विषय में भी मैं नहीं पड़ता | राम दशरथ नंदन थे या दशावतार में एक, मैं इसमें भी नहीं पड़ना चाहता | राम पौराणिक पुरुष रहें हो, चाहे ऐतिहासिक पुरुष रहे हों पर निश्चित रूप से वे मर्यादा पुरुषोत्तम थे | इसीलिए तो हजारों वर्षों से राम करोड़ों लोगों के दिल में रमे हैं, और उनसे हम सब का किसी न किसी रूप से संप्रत्य जुडा है यह निर्विवाद है |

किसी विषय को मानना आसान है, पर जानने की प्रक्रिया शुरू होते है की जानी हुई चीज को दूसरों को भी समझाने की क्षमता विकसित करनी पड़ती है | राम को मानना और जानना भिन्न-भिन्न चीजें हैं | भगवान् को हम मानते हैं, मित्र को हम जानते हैं | तो मानना आसान है, और जानने की प्रक्रिया शुरू होते है की जानी हुई चीज को हम दूसरों को भी समझा सकें, ऎसी स्थिति आती है | पर यहाँ अनुभूति की व्याख्या करना कठिन प्रतीत होने लगता है | उदाहरण के लिए रसगुल्ला का विश्लेषण लें, बड़ा जटिल लगेगा, परन्तु अनुभूति सहज |

मानव पशु से उस दिन भिन्न हुआ जिस दिन उसने प्रतिद्वंद्विता के स्थान पर सहयोग का सूत्र समझा | आज तक पशु इस बात को पूरी तरह से नहीं समझ सके हैं | यही प्रकृति है | व्यवहारिक धरातल से देखें तो प्रकृति परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाली युग्मों का खेल है | स्थूल रूप से देखें तो बायाँ-दायाँ, दिन-रात, आग-पानी, सर्दी-गरमी, नर-मादा, क्रूर-सौम्य, सज्जन-कुटिल आदि सब विरोधी युग्म प्रतीत होते हैं | केवल स्थूल दृष्टि से ही नहीं, वैचारिक स्तर पर भी ऐसा ही होता है, अभी हाल ही की घटना को लें, अरुणा शानबाग व्यक्ति के नाते मर्यादित मृत्यु की हकदार नहीं पर नरसंहार करने वाले अणुबम उद्योग या तम्बाकू उद्योग कानून सम्मत हैं | ये सब विरोधी युग्म हैं | तो अपने स्वभाव के अनुरूप हर मानव, आप हम सब इन विरोधी युग्मों के बीच सामंजस्य बिठाने का जीवन पर्यंत प्रयास करते है | 


क्योंकि प्रकृति में हमारे नजरिए से व्यवस्था से अव्यवस्था की ओर का प्रयाण है | चीजें टूटती हुई तो दिखती हैं, पर जुड़ती हुई नहीं दिखती | प्रकृति में रचनात्मकता तो है, पर घड़ी की छोटी सूई की तरह उसकी चाल दिखती नहीं, वहीं विध्वंस बड़ी सूई की तरह स्पष्ट रूप से दिखता है | जैसे पेड़ उगना स्पष्ट नहीं दिखता पर भूकंप का विनाश तुरंत प्रतीत हो जाता है | राम चरित्र इन विरोधी प्रतीत होने वाले युग्मों के बीच तारतम्य बिठाने का उत्तम उदाहरण है | स्थूल दृष्टि से, रामसेतु का निर्माण इसका प्रतीक है | नदी पर तो अनेक पुल बने पर सागर के किनारों को पाटना राम ने ही किया | नासा के चित्र रामसेतु की वैज्ञानिक प्राचीनता का प्रमाण है | 

सूक्ष्म दृष्टि से दशरथ-विदेह, वशिष्ट-विश्वामित्र, लक्ष्मण-परशुराम, लक्ष्मण-भारत, बाली-सुग्रीव, विभीषण-रावण आदि विरोधी युग्मों में सामंजस्य बिठाने का प्रयास ही राम है | 

पर विशेषता यह की हर परिस्थिति में विरोधी से एक जैसा व्यवहार नहीं । 

विश्लेषण 
-मंथरा की उपेक्षा की, कैकेयी से उच्चतर नैतिकता, लक्ष्मण से प्रेम, परशुराम से विनय, बाली से छल, रावण को शौर्य से जीता | विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा की तो मेघनाद के यज्ञ का विध्वंस | 

* राम अर्थात समदरसी --पत्थर अहिल्या, जीव जंतु वानर, नीच पक्षी जटायू, अछूत निषाद, केवट, शबरी, वैरी विभीषण, सबके साथ सद्व्यवहार |
* राम की अगली विशेषता

* राम ने मित्र के लिए अपना चरित्र गिराया, उदाहरण:- बाली का छल से वध | पर मित्र को अपने लिए गिरने नहीं दिया, लंका दहन की क्षमता रखने वाले हनुमान को भी केवल सूचना लाने को कहा सीता को लाने को नहीं | 
* स्थूल दृष्टि से देखें तो भी, युद्ध की तैयारी के समय मंत्रणा सभा चल रही है, वानर पेड़ पर बैठे, स्वामी राम नीचे शिला पर बैठे,

* इतने के बावजूद राम ने मैत्री और अंतरंगता में भेद बनाए रखा |

विश्लेषण
* सुग्रीव - हनुमान से राम की मैत्री एक ही दिन हुई | सुग्रीव मित्र ही रहा क्योंकि राम की क्षमता प्रदर्शन के बाद विश्वास,(ताड़ के वृक्षों को बींधना ) पर हनुमान 'भरत सम भाई' क्योंकि चरित्र प्रदर्शन से पहले ही विश्वास |
* अर्थात राम सफलता से अधिक शराफत को महत्त्व देते हैं | 
* अतः परस्पर हितों का टकराव होते हुए भी, उनमें तारतम्य बिठाना | तुलाभार वैश्य की तरह, राम की विशिष्टता
* राम की सबसे बड़ी विशेषता उनका लोकतांत्रिक नजरिया -स्वयं क्षमतावान होते हुए भी साथी की प्रेरणा के बाद ही कदम उठाना |
* दुनिया में तीन तरह के लोग होते हैं बौद्धिक, बुद्धिजीवी और बुद्धिनिष्ट|
* बौद्धिक को केवल अपनी बुद्धि पर ही विश्वास, बुद्धीजीवी -बुद्धि का लाभ के लिए उपयोग, बुद्धिनिष्ट -बुद्धि पर निष्ठा चाहे अपनी हो या पराई |


* राम बुद्धिनिष्ट
उदा: धनुष भंग विश्वामित्र जी के कहने पर किया, भरत मिलन में भरत की बात ही रखी , सुग्रीव मित्रता हनुमान के सलाह पर , सीता की खोज सुग्रीव के सुविधानुसार , सागर गर्व भंग लक्ष्मण की राय से, सेतु निर्माण समुद्र की सलाह अनुसार, रावण नाभि वध विभीषण के कहने पर |


* आजकल हर कोई राम राज्य को आदर्श राज्य कहता है
* राम राज्य तो असल में भरत राज्य, अर्थात नंदीग्राम का खडाऊं राज्य, अर्थात लोकस्वराज्य, जिसमें सत्ता व्यक्ति या विशिष्ट व्यक्तियों के हाथ में न होकर सामान्य नागरिकों के हाथ में होती है |
* १४ वर्ष तक अयोध्या में एक भी अप्रिय घटना नहीं हुई, राजा के मृत्यु के बावजूद, क्योंकि भरत ने अपने आप को केवल सुरक्षा एवं न्याय तक सीमित रखा, प्रशासन के चक्कर में नहीं पड़े,
* उदा; संजीविनी लाते हुए हनुमान पर राक्षस होने की शंका से प्रहार |
* इसके ठीक उलटे रावण राज्य देखें, आजकल की सरकार की तरह नेवर एंडिंग प्रोजेक्ट हाथ में लेना
* रावण की दो प्रिय परियोजनाएं : सागर के पानी को मीठा बनाना और स्वर्ग तक सीढी बनाना |

संक्षेप में कहें तो, उपसंहार यही है की 
* राम अर्थात शराफत से समझदारी की ओर प्रयाण,
* उदा: ऋषियों पर राक्षसों का अत्याचार देखते हुए ऋषियों की रक्षा हेतु रावण से युद्ध ठानना |


* अतः धूर्तों को परास्त करने का बीड़ा उठाना, सज्जनता को निरपेक्ष सम्मान दिलाना ही राम चरित्र |
* सच पूछिए तो त्रेतायुग से आज तक कोई विशेष अंतर नहीं आया है 
* अन्ना हजारे का आन्दोलन और उसे सभ्य समाज का भारी समर्थन भी धूर्तता के विरुद्ध शराफत की लामबंदी को ही साबित करता है |


* राम जैसे हमारे मार्गदर्शक मित्र के सन्देश हमें बड़ी मुश्किल से इसीलिए पकड़ में आते हैं क्योंकि हमने उनको मंदिर की मूर्तियों में सीमित कर दिया है |
* राम जैसे हमारे मित्र सहज ही हमारे साथ चलने में ज्यादा आनंदित हैं, पर हम हैं की पूजा अर्चना उपासना की संकीर्णता से निकलकर उन्हें मित्र मानें तब ना |


धर्म फल की खोज को कहते है 
तो अध्यात्म बोध के खोज को |

http://janokti.com/34416/%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%BE-%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%B7%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%AE-%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80/

Monday, July 21, 2014

Euthanasia

Euthanasia :: Death the Dearest.

     The Supreme Court has recently called for a nationwide debate on euthanasia. Having seen more deaths from close quarters than most, and having been witness to such existential dilemmas in the past, i too am throwing my hat in the debating ring.

     More than a decade ago i was faced with the terrifying moral dilemma of taking such a decision on behalf of a loved one whose life had reached terminal stage. In spite of best available medical care by doctors, my loved one was deeply unconscious & life sustained purely on artificial support. Earlier, with full faculties intact and in a healthy state, the loved one had made it unequivocally clear to me & friends that since body is but a tool for conciousness to manifest itself, (like electricity & transmission wires) life would be meaningless without a synergy between the two. My loved one wanted a covenant from us that God forbid such a situation arose, we should take a call to liberate his consciousness from such a useless body.

     Death, although terrifying to most of us, is in reality is our dearest friend as only death alleviates us from the immense pain that we suffer from which the best of science or even our dearest ones cannot free us. The one thing that separates we humans from the rest of the animal kingdom is our "free will". Freewill translates into decision-making on our part. And by extension to mean that a person is perfectly eligible to take any decision as long as his actions do not infringe upon the fundamental rights of others. From time immemorial Indians have voluntarily embraced death. Mythology suggests Lord Ram embraced it. Jain texts speak of Santhara and i have seen a few common men & women embrace it. An Exalted freedom fighter like Chandrashekhar Azad consciously martyred himself with with his own hands.

     The more i reminiscence it, the more i am convinced that death indeed is our dearest friend, and we have every right to meet it at our mutual convenience.

Saturday, July 19, 2014

Badayun to Bangalore.... why is India rapists' haven ?



---बढ़ते अपराध के व्यूह से निजात कैसे ?



     बदायूं से लेकर बेंगलोर तक पुनः बर्बरता का प्रदर्शन हुआ है । चाहे 6 वर्ष की शहरी अबोध कन्या हो या ग्रामीण महिला, इन सब के साथ  क्रूरतापूर्ण दुष्कर्म  की घटनाएँ  भारत सहित विश्वभर में खबर बन रही है । इतनी की, बड़े बड़े राजनेता भी कह रहे हैं की समाज को आत्ममंथन की जरूरत है । ये लोग यह भी कह रहे हैं की सरकार ने अपराधों से और प्रभावी ढंग से निपटने के लिए कानून को मजबूत बनाने के कार्य को तेजी से आगे बढ़ाया है । मीडिया में चल रही लगातार बहस के दौरान भी भारत के बुद्धिजीवी कुछ ऐसी ही बातें करते तथा कड़ी से कड़ी सजा के हिमायती दिख रहे हैं  । 



     टीवी एंकरों, राजनेताओं  की मानें तो पूरा समाज दोषी है, और बुद्धिजीवियों की माने तो हर दोषी को फांसी होनी चाहिए । इन दोनों की राय लागू  हो जाय तो भारत से मनुष्य प्रजाति डायनोसार के सामान लुप्त हो जायेगी । आश्चर्य है की भारत के  जिम्मेदार लोग यह भी नहीं जानते की समाज में अपराधियों की संख्या 2% से भी कम होती है, तथा ऐसे अपराधी तत्वों से शेष 98% सज्जनों को सुरक्षा प्रदान करने हेतु ही पुलिस होती है । राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्‍यूरो के वर्ष 2011 के आंकड़े बताते हैं की भारत में कुल संज्ञेय अपराधों की संख्या 2325575 है ।  तो दो प्रतिशत विकृत लोगों के कृत्यों की जिम्मेदारी शेष अट्ठानबे पर डालना कहाँ की समझदारी है ? यह तो चर्चा हुई समस्या की । अब देखें की भारत के ये मूर्धन्य इसका समाधान क्या बता रहे हैं । 



     ऐसे समय में प्रधानमंत्री से लेकर टीवी पर सभी फांसी जैसी कड़ी से कड़ी सजा की वकालत करते दिख रहे  है । मैं भी असाधारण कृत्यों हेतु फांसी का पक्षधर हूँ । पर सच्चाई यह है सुरक्षा और न्याय भिन्न-भिन्न विषय हैं । जब किसी व्यक्ति के साथ अन्याय घटित हो जाता है तब न्यायालय उस व्यक्ति को उसके मूल अधिकारों के हनन के नैतिक एवज में 'मुआवजे' के रूप में न्याय देता है । कानूनों को कडा करने से न्यायालयों को ऐसे 'मुआवजे' दने में अधिक सुविधा तो अवश्य होगी, पर ऐसी घटनाएं रोकने का काम न्यायालय नहीं कर सकते । किसी व्यक्ति के मूल अधिकारों के हनन को रोकने का काम तो सुरक्षा एजेंसियों का है । भारत में उस एजेंसी को पुलिस कहते है । 



     भारत के कर्णधारों को दुनिया के अन्य लोकतन्त्रों में ऐसी ही समस्या का क्या समाधान खोजा गया, इसका अध्ययन करने की फुर्सत निकालनी चाहिए । 1990  के दशक में अमरीका एवं यूरोप में घटती अपराध संख्या पर अलग-अलग शोध स्टीवन पिंकर तथा स्टीवन लेविट ने किये जिसके आश्चर्यजनक परिणाम लेविट ने 2004 के अपने शोध-पत्र में कही । इसमें कहा गया की केवल कुछ अपराधों में कमी की बाट जोहना अव्यावहारिक है । किसी समाज में कुल अपराध या तो घटते हैं या बढ़ते हैं । यूरोप एवं अमरीका के अपराध दर सार्वत्रिक रूप से घटे, चाहे वह भौगोलिक दृष्टि से हो, आर्थिक सम्पन्नता की दृष्टि से हो, या  शैक्षणिक योग्यता की दृष्टि से । इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह प्रकट हुआ की इस घटती अपराध दर में बुद्धिजीवियों द्वारा बहुप्रचलित सिद्धांत, जैसे 'पुलिस सुधार', 'फांसी की सजा', 'कड़े क़ानून', 'जनसंख्या नियंत्रण', 'शिक्षा', 'संस्कृति' आदि का कोई स्थान नहीं था । घटती अपराध दर का एकमात्र ठोस कारण था पुलिस स्टाफ की संख्या में इजाफा । यहाँ तक की बढे हुए पुलिस दल की गुणवता भी अप्रासंगिक रही ।  केवलमात्र पुलिसवालों की संख्या की बढ़ोतरी से दो महाद्वीपों में अपराध दर में ठोस  गिरावट देखी गयी है ।   



     भारत में भी लोकस्वराज मंच जैसे सामान्य नागरिकों के सामाजिक सरोकार वाले समूह वर्षों से यही समाधान देते आये है की  क़ानून से चरित्र न कभी बना है न बनेगा, यह सच्चाई राजनेताओं एवं बुद्धिजीवियों को समझनी चाहिए । यदि वे न समझें तो आम आदमी उन्हें समझाए  । अपराधियों से समाज की सुरक्षा राज्य का दायित्व है, अन्य किसी से यह संभव नहीं, यह बात आम आदमी को समझनी पड़ेगी । भारत में पुलिस की स्थिति यह है की प्रति एक लाख आम आदमी पर 137 पुलिसवाले तैनात हैं, वहीं महज 13000 वीआइपी की सुरक्षा में 45000 पुलिसवाले नियुक्त हैं ।  और सरकारी सूत्रों के अनुसार 22% पुलिस पद रिक्त हैं । इसी कारण राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्‍यूरो के अनुसार वर्ष 2003 में भारत में कुल अपराध जहां 17 लाख से कम थे, वहीँ वे 2011 में 23 लाख से ऊपर पहुँच गए । यानी केवल 8 साल में 1/3 से अधिक की खतरनाक वृद्धि । 




     सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है की यदि चरित्र निर्माण ही सारी समस्याओं का समाधान है तो इतनी भारी-भरकम राज्य व्यवस्था की आवश्यकता ही क्या है ? क्यों न सभी सरकारी महकमों को बंद कर सकल घरेलू उत्पाद को चरित्र निर्माण में झोंक दिया जाय ! समय आ गया है की हम भारत के लोग अपने स्वतन्त्र चिंतन से कुछ नतीजों पर पहुंचें, क्योंकि रोगी को समय से दवा न मिलने से जितना खतरा होता है, उससे कहीं ज्यादा खतरा गलत दवा के सेवन से होता है ।  सुरक्षा और न्याय के अतिरिक्त सारे काम राज्य समाज को सौंप दे और अपनी सारी शक्ति समाज को सुरक्षा और न्याय प्रदान करने में लगाए यही व्यवस्था परिवर्तन है, जो भारत की समस्याओं का सही समाधान है ।

http://janokti.com/39826/%E0%A4%AC%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A5%82%E0%A4%82-%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%B0-%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%B0-%E0%A4%A4%E0%A4%95/

Thursday, May 15, 2014

आप जैसा कोई मेरी जिन्दगी में आए


     इतिहास गवाह है कि कालखण्ड के कुछ पड़ाव ऐसे होते हैँ, जिसमें विचारों को क्रियारूप देना कालपुरुष की माँग बन  जाती है । ऐसे में क्रिया प्रारम्भ करने से पहले गम्भीर चिन्तन करना आवश्यक होता है, क्योंकि बिना सोचे समझे प्रारंभ की गई क्रिया अक्सर घातक होती है । 

     सन 2011 में भारत के बुद्धिजीवियों के समक्ष कालपुरुष ने ऐसी ही चुनौती रखी । अनायास प्रारम्भ हुए जनलोकपाल आन्दोलन को भारत की जनता का आशातीत समर्थन मिल रहा था । लम्बे समय से चले आ रहे विचारकों के तर्क -की शासन व्यवस्था पर नागरिक समाज का दबाव स्वस्थ लोकतंत्र का प्रतीक है -मूर्त रूप लेने लग गए थे । 

     प्रायः यह देखा गया है कि जब भी विचारकों के निष्कर्ष मूर्त्त रूप लेने लगतें हैं, तब बुद्धिजीवी वर्ग उसका विरोध प्रारम्भ करता है क्योँकि यदि सही निष्कर्ष मूर्त रूप ले लें, तो बुद्दिजीवियों की आजीविका ही खतरे में पड़  जाती है, बुद्धिजीवी तो हमेशा समस्या के विश्लेषण से ही आजीविका चलाते आये हैँ । यदि समस्या  का स्थाई समाधान हो जाय तो उनकी आफत आ जाती है ।
 
     2011 के उत्तरार्ध में भारत में ऐसी ही स्थिति थी । विचारक प्रसन्न थे कि शासन व्यवस्था पर नागरिक समाज हावी हो रहा था, वहीं बुद्धिजीवी भयभीत थे की यथास्थति में बदलाव उनकी रोजीरोटी पर कुठाराघात करेगा ।  बुद्धिजीवी वर्ग ने 2011 के उस सामूहिक इच्छाशक्ति में मीनमेख भी निकालना प्रारम्भ किया एवं  उसे भटकाने का भी सघन प्रयास किया । 

     राजनीतिक व्यवस्था ने भी इनका  भरपूर  सहयोग लिया क्योंकि यदि नागरिक समाज सफल हो जाता तो वर्तमान राजनीति लंबे समय के लिए अपंग हो जाती । इसी कालखण्ड ने भारत में विचारक-कर्ता बनाम बुद्धिजीवी-धूर्त का स्पष्ट वर्गीकरण भी कर दिया ।कई विचारक कर्ता बने और कई बुद्धिजीवी धूर्त सिद्ध हुए । विचारक-कर्ता की जोड़ी समाज में राजनीति  के आदर्श रूप 'स्वराज' को मूर्तरूप देने का प्रयास करने लगी एवं  बुद्धिजीवी-धूर्तों की जोड़ी यथास्थिति बनाए रखने हेतु स्वराज को अव्यावहारिक सिद्ध  करने में एड़ीचोटी एक करने लगी । 

     भारत का औसत नागरिक चूंकि शरीफ होता है, अतः विचारक-धूर्त के बीच भेद कर पाना  उसके लिये कठिन होता है । नतीजा हुआ की 2012 के प्रारम्भ तक भारतीय समाज भ्रमित हुआ एवं राजनीति पर समाज का अंकुश ढीला पड़ा । ऐसे समय में विचारक-कर्ताओं ने गूढ़ चिंतन कर यह तय किया कि चूँकि भारत में वर्तमान में तानाशाही नहीं लोकतंत्र है, तथा विकृत  लोकतंत्र  में  भी चुनाव होते हैं, एवं  चुनाव सामूहिक इच्छाशक्ति के प्रतीक भी होते हैं, ऊपर से भारत की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था क्योंकि चुनाव के समय सबसे अधिक भेद्य अर्थात कमजोर होती है, अतः वर्तमान  राजनीति को चुनौती देने का सबसे उचित अवसर भी चुनाव ही होते हैं । 

     फिर भी कटु सत्य यह भी है कि आम चुनाव में सीधे कूदने पर आम मतदाता उनपर सहसा विश्वास नहीं करता । अतः आम चुनाव से पूर्व इन विचारक-कर्ताओं के लिये  आवश्यक था कि  मतदाता के मन में स्वराज की एक बुनियादी ही सही, पर तस्वीर तो बनाएँ ।  इसी क्रम  में  इन  विचारकों-कर्ताओं की टोली ने एक राजनीतिक दल का भी निर्माण किया एवं  एक छोटे किंतु  महतवपूर्ण  राज्य  में चुनाव भी लडा । 

     चूंकि ये विचारक-कर्ता स्वराज अवधारणा से ओतप्रोत थे, अतः उनकी रुचि इसमे नहीं थी कि कैसे सत्ता हासिल की जाए, उनकी रुचि इसमें थी कि कैसे सत्ता को सीधे समाज के हाथों में सौंप दिया जाए । इसी वैचारिक निष्ठा के चलते आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में अपनी सरकार की तिलांजलि दी । प्रथम दृष्टया यह कदम भले अव्यावहारिक लगे, पर यह  कदम  स्वराज  अवधारणा  के  पूर्णतः  अनूरूप आचरण था । 

     2014 के लोकसभा चुनाव में आप ने भारतभर में वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के विरुद्ध  सशक्त चुनौती पेश की है । संख्या की दृष्टि से आप के कितने सांसद निर्वाचित होते हैं, यह तो निकट भविष्य में पता लग ही जायेगा, मगर भारत भर में आप के पक्ष में पड़े मत यह प्रमाणित कर देंगें कि भारतीय  समाज में  स्वराज की उत्कट इच्छाशक्ति जागृत भी है एवं कऱोडों की संख्या में भी । आप का यही सबसे बड़ा योगदान होगा कि उसने अल्पकाल में स्वराज विचार को करोड़ों लोगों  के मन में जगा दिया । रही बात सांसदों की तो, जब एक चीँटी हाथी की सूंड में घुसकर नाकोदम कर सकती है तो दर्जनभर आप के सांसद तो वर्तमान भारतीय उद्दंड संसद पर अंकुश बनने हेतु पर्याप्त हैं । 

     2014 में भारतीय राजनीति ने एक निर्णायक करवट ली है । 16 मई 2014 को नतीजे कुछ भी हों, वर्तमान भारतीय राजनीति की उलटी गिनती प्रारम्भ हो जायेगी, क्योंकि करोड़ों की संख्या में   स्वराजनिष्ठ मतदाता भविष्य में यह सुनिश्चित कर देंगे कि सत्ता-केंद्रीकरण माडल  के दिन अब लद गए एवं  विकेन्द्रित-सत्ता रूपी सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन के कालखण्ड का प्रारम्भ हो रहा है । 

यही आप की देन है हम को । 


Tuesday, April 22, 2014

I FUEL SWARAJ


 ---- I FUEL SWARAJ




                Thousands of years ago, the phrase SWARAJ was first propounded by sage Atri in Rgveda when he said ॥ व्यचिष्ठे बहुपाय्ये यतेमही स्वराज्ये ॥ Vyachishthe = universal franchise where all people have a right to participation. Bahupayye = whereby, the majority secures the right of minority. Yatemahi = let us all strive for. Swarajye = the ultimate objective of self-rule. In short, this Rgvedic verse extols thus: “Let Us All Strive For Swaraj Wherein All People Are Participators In Decision Making With A Magnanimous Outlook of Securing The Minority.”

     This idea has been nurtured over millennium in the Indian subcontinent from Quetta to Kamrup including long phases during which Self-rule (Swaraj) was practiced as a governance model during the Buddhist age period  http://www.lokrajandolan.org/ancientindia.html Interestingly, even during Moghul invasion & the subsequent European colonization, Swaraj as a governance model was prevalent in many pockets of India. https://docs.google.com/file/d/0B4B_FonvHcE0U1ZRdUlQZWN1UFk/edit
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     In modern day India, Swaraj or Home-rule was propagated by Dadabhai Naorojee as Congress President in 1906, which was later made into a clarion call by Lokmanya Tilak who famously said “Swaraj is my birthright and I shall have it”. Gandhiji too in his seminal book “Hind Swaraj” advocated Swaraj vehemently.

     Things went awry after Gandhiji’s demise in 1948 during the drafting of the constitution. The 26th Jan 1950 document envisages a 2 ½ tier governance system of Province & Nation, with certain minimalist rights to individuals, -a fundamental departure from the tried & tested Swaraj model which had multi-tier decision making structure with “unitary independence to each unit.” It sees each citizen in multiple roles –an individual, a family member, a dweller of a locality, a domicile of a state and a citizen of a nation. Swaraj model guarantees each person participation at each of these levels. Today, in the 21st century, most developed democracies are following this Swaraj model of governance. http://www.lokrajandolan.org/othercountries.html ​​


     India is fortunate that although true Swaraj model of governance is not practiced today, eminent stalwarts have been keeping the Swaraj flame alive post independence. Be it Acharya Vinoba Bhave’s extensive treatise called “Swaraj Shastra”, or Ram Manohar Lohia’s “4 pillars” theory, or Jai Prakash Narayan’s “Sampoorn Kranti”, or Prof Thakur Das Bang’s Swaraj experiments thro Lokswaraj Manch, http://www.lokswarajmanch.blogspot.in/ or Anna Hazare’s IaC movement, or Arvind Kejriwal’s Aam Aadmi Party www.aamaadmiparty.org experiment today.


     Any good idea that voluntarily imposes non-violence (ethical) values upon itself takes time to exude, because other governance models resort to violent (unethical) means to sustain status-quo. Swaraj idea is bound to face stiff opposition from present day entrenched interests. Hence we see a vicious opposition to AAP presently be it Congress whose dynastic politics is anathema to Swaraj, Or BJP which, by openly promulgating dictatorship, has turned itself into a cancer virus eating away at the vitals of Hinduism itself, which conversely gave Swaraj idea to the world. The less said about the other regional parties, the better because they are nothing more than family heirlooms. Gandhi, Lohia, JP, Prof Bang, Anna et al had to face the same wrath of status-quoists from within & without. AAP is going thro the same pain today. Innumerable AAPians too honestly seem more concerned about AAP’s future rather than seeing AAP as a mere vehicle to deliver liberty to the people, ie, Swaraj.

     Adi Shankaracharya, in his immortal theory declared that all living organisms are endowed with five fundamental characteristics. Satt, Chitt, Anand, Mumuksha & Ishna. Satt being the wish to survive, Chitt being the wish to learn, Anand being the desire for happiness, Mumuksha being the wish to break the shackles and become freer, Ishna being the desire to influence others. Swaraj is nothing but an acknowledgement of this fact whereby the governance model guarantees complete liberty to the people.

     Just like Rishi Atri’s mantra, Gandhiji’s Hind Swaraj, Naoroji’s resolution in Congress, Tilak’s clarion call, Lohia’s socialism, JP’s total revolution, Prof Bang’s applied experiments, Anna’s historic movement were combustibles that fuelled Swaraj during their time, present day Indian Swaraj is being fuelled by AAP. We AAPians too should view ourselves as combustibles of our times to eventually deliver complete liberty (Sampoorn Swaraj) to the citizens. Striving for Swaraj is an eminently fulfilling life for the present generation, the best homage to our great ancestors, and the finest bequest to our children. Regardless of its success or failure as a political party, we should view AAP as a very important milestone in destination Swaraj.

     In Jai Prakash Narayan’s immortal words  मेरी रूचि इस बात में नहीं की कैसे सत्ता हासिल की जाए, बल्कि इस बात में है की कैसे सत्ता का नियंत्रण जनता के हाथ में दे दिया जाए |

                

Monday, March 31, 2014

-------- क्रान्ति 2014 ?

--------  क्रान्ति 2014 ? 

     आज नव वर्ष है । अगले कुछ हफ़्तों में भारत आम चुनावों  के दौर से गुजरेगा । भारत का औसत व्यक्ति इन चुनावों में पहले के चुनावों से अधिक उत्सुक दिख रहा है । हर एक की उत्कट इच्छा है कि कुछ  नया हो । कई लोग इन चुनावों को क्रान्ति  के रूप में  परिभाषित कर रहे हैं । क्रान्ति होनी भी चाहिए । लम्बी जड़ता को क्रांतियां ही ध्वस्त कर सकती हैं । ऐसे में महत्वपूर्ण है कि क्रान्ति को समझा जाय । 


     यह भ्रान्ति है कि क्रांतियाँ भौतिक होती हैं | क्रांतियाँ असल में मनुष्य के दिमाग में होती हैं, भले ही उसकी निष्पत्ति व्यापक रूप से भौतिक दृष्टिगोचर हो | जो क्रांतियों को गहराई से नहीं समझते  वे क्रान्ति के बाद की परिस्थिति देखकर उस क्रान्ति का आकलन करते हैं | अगर क्रान्ति के बाद का समाज पहले से बेहतर प्रतीत होता है तो क्रान्ति की शान में कसीदे पढ़े जाते हैं | इसके  विपरीत अगर क्रान्ति के बाद का समाज पहले से बदतर प्रतीत होता है तो क्रान्ति को टायं-टायं फिस्स मान लिया जाता है | 


     बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में रूस में भी साम्यवाद-क्रान्ति हुई और जार शासन ख़त्म हुआ | बीसवीं सदी के मध्य  में उस क्रान्ति को मानव इतिहास की सफलतम क्रांतियों में गिना जाता था | और इक्कीसवीं सदी के  आते आते वही क्रान्ति पूर्णतः असफल सिद्ध हुई | गांधी की अहिंसक क्रान्ति भी बीसवीं सदी के मध्य में सफल मानी जाती थी | आज इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के आते-आते देश की स्थिति देखकर अधिकाँश लोग स्वतन्त्र भारत की दशा से परेशान हैं | आचार्य विनोबा भावे की भूदान क्रान्ति का भी यही हाल हुआ, जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रान्ति का भी | शुरुआत में सफल, उत्तरोत्तर उसकी उपादेयता निरर्थक दिखने लगी | 


     इस विरोधाभास को  समझने के लिए क्रान्ति के अग्रदूत की मानसिकता को समझना उचित रहेगा | क्रांतिकारी दो तरह के होते हैं, एक वे, जो भ्रमित समाज की सोच बदलने को तत्पर रहते हैं, और दूसरे वे जो दयनीय स्थिति में पड़े  समाज को बेहतर  स्थिति में ले जाने की लालसा रखते हैं | पहले प्रकार के क्रांतिकारी यह समझते हैं कि व्यक्ति  की बौद्धिक क्षमता भले असीमित हो, पर उसकी भौतिक क्षमता नैसर्गिक रूप से ही सीमित है | इसीलिए वे अपने-आप को परिवर्तन की प्रक्रिया का प्रारम्भ या अंग भले मानें, उसकी निष्पत्ति की सम्पूर्ण जिम्मेदारी अपनी न मानकर, समाज की साझेदारी मानते हैं | ऐसे लोग क्रान्ति के पुरोधा तो होते हैं, परन्तु क्रान्ति के बाद की व्यवस्था वे सामूहिक इच्छाशक्ति पर छोड़ते हैं | क्योंकि सैद्धांतिक रूप से वे यह मानते हैं कि क्रान्ति केवल अव्यवस्था से व्यवस्था की ओर का प्रयाण है |

     दूसरे तरह के क्रान्ति के पुरोधा यह मानते हैं कि क्योंकि क्रान्ति अव्यवस्था से सुव्यवस्था की ओर का प्रयाण है, अतः क्रान्ति के बाद की व्यवस्था का भी स्वयं नेतृत्व करते हैं, क्योंकि क्रान्ति की सफलता की सारी जिम्मेदारी उनकी है | पहले प्रकार के क्रांतिकारियों में महावीर, ईसा, गांधी, मार्टिन लूथर, विनोबा, जे.पी आदि हैं, तो दूसरी में बुद्ध, हजरत मुहम्मद, लेनिन, मंडेला आदि | 

     वैचारिक क्रान्ति के पुरोधा क्योंकि क्रान्ति के बाद की व्यवस्था का नेतृत्व स्वयं नहीं करते, इसीलिए नई व्यवस्था में भले कमोबेश अल्पकालिक त्रुटियाँ रह जाती हों, पर विचार दीर्घकालिक अक्षुण्ण रह जाता है | भौतिक क्रान्ति के पुरोधा क्योंकि क्रान्ति के बाद की व्यवस्था का स्वयं नेतृत्व करते हैं, इसीलिए नई व्यवस्था को अल्पकालिक सुव्यवस्था में तो उन्होंने बदल दिया पर प्रकारांतर से प्रच्छन्न तानाशाही की भी नींव पड़ जाती है | इसीलिए उन पुरोधाओं के अवसान के बाद उक्त सुव्यवस्था पुनः अव्यवस्था में तब्दील हो जाती है | पहले में विचार प्रमुख होकर व्यक्ति गौण हो जाता है, तो दूसरे  में व्यक्ति प्रमुख हो विचार गौण हो जाता है | 

     भारत आज आम आदमी पार्टी प्रणीत भ्रष्टाचार विरोधी क्रान्ति के दौर से गुजर रहा है | भारत के लिए यह बेहतर होगा यदि यह अव्यवस्था से जूझ रहे भारत को व्यवस्था कि ओर ले जाएगी, क्योंकि सुव्यवस्था की मृगमरीचिका तो मोदी जी दिखला ही रहे हैं  | पहली स्थिति में भौतिक क्रान्ति सफल हो या असफल, पर विचार बच जाएगा और अनुकूल परिस्थितियों में भविष्य में फिर कोंपलें खिलाएगा | इसका प्रमाण गांधी जनित अहिंसक क्रान्ति में ही विनोबा के भूदान का, विनोबा के ग्रामदान में ही जयप्रकाश के सम्पूर्ण क्रान्ति का, और जे.पी. के सहभागी लोकतंत्र की निष्पत्ति ही अन्ना हजारे आंदोलन आदि की सफलता है |  दूसरी स्थिति में भौतिक क्रान्ति भले सफल हो, पर सुव्यवस्था के नाम पर आनेवाला शक्ति का केन्द्रीकरण भविष्य में फिर अव्यवस्था के बीज बो देगा | क्योंकि चोर से तो हमें पुलिस बचा लेगी, पर पुलिस से हमें कौन बचाएगा ?  कांग्रेस से तो मोदी बचा लेंगे, पर मोदी से कौन बचाएगा ? 

     विकल्प स्पष्ट है । आज शराफत के  खिलाफ सारी राजनीतिक पार्टियां लामबंद हैं । ऐसे में शराफत के प्रतीक को, आम आदमी पार्टी को मेरा वोट देना मेरे जमीर को इतनी सांत्वना तो अवश्य देगा कि जब मेरे सामने विकल्प था, तो मैंने धूर्तता के बदले शराफत को चुना । क्योंकि "आप" ने कम से कम इतना तो अवश्य किया है कि आपके-मेरे सामने एक स्वच्छ विकल्प रखा है । ​

​किसी अन्य को मेरा वोट केवलमात्र सत्ता  परिवर्तन तक सीमित रहेगा , पर आप को मेरा वोट कम से कम सत्ता केन्द्रों को धवस्त करने में मदद करेगा, व्यवस्था परिवर्तन की तरफ झुका होगा ।

Karpuri Thakur

  भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर  का कर्नाटक कनेक्शन (Click here for Kannada Book Details)        कर्पूरी ठाकुर कम से कम दो बार बैंगलोर आये। एक बार...