Wednesday, December 9, 2015

नाटककारों का साहित्य

     
     विचार और साहित्य एक दूसरे के पूरक होते हैं । विचार आत्मा है और साहित्य शरीर। विचार अपंग होता है तो साहित्य अन्धा । विचार बीज है तो साहित्य हवा, पानी, खाद, दवा और अंत में वृक्ष। यदि साहित्य और विचार को एक दूसरे का सहारा न मिले तो अलग अलग रहकर दोनो अपना महत्व खो देते है ।

     दोनो के गुण भी बिल्कुल अलग अलग होते है और प्रभाव भी। विचार मख्खन रूपी तत्व होता है तो साहित्य मट्ठा । विचार कठिनाई से ग्रहण हो पाता है तो साहित्य आसानी से । विचार मष्तिष्क को प्रभावित करता है तो साहित्य ह्दय को। विचार तर्क प्रधान होता है तो साहित्य कला प्रधान। विचारों का प्रभाव बहुत देर से शुरू होता है और देर तक रहता है तो साहित्य का प्रभाव तत्काल होता है और अल्पकालिक होता है ।

     साहित्य विचारों की कब्र होता है। अगर साहित्य विचारो को कब्र मे पहुंचाकर लम्बे समय तक के लिये सुरक्षित रखता है तो दूसरी ओर साहित्य विचारों को देश काल परिस्थिति के आधार पर होने वाले नये नये संशोधनो से भी दूर कर देता है। विचार व्यक्ति के ज्ञान का विस्तार करता है तो साहित्य भावना का। दोनो का प्रभाव समाज पर अलग अलग होता है ।

     विचारक चाहे जितना गंभीर निष्कर्ष निकाल ले किन्तु जब तक उसे साहित्य का सहारा नहीं मिलता तब तक वह आगे नही बढ पाता। या तो वह वहीँ पडा पडा सड जाता है या साहित्य से संयोग की प्रतीक्षा करता रहता है। इसी तरह साहित्य को जब तक विचार न मिले तब तक वह निष्प्राण निष्प्रभावी प्रयाण मात्र करता रहता है। विचार विहीन साहित्य एक मृत शरीर है जो आत्मा के अभाव मे समाज के लिये घातक प्रभाव डालना शुरू कर देता है। ऐसा साहित्य विचारो के अभाव मे प्रचार से प्रभावित हो जाता है तथा असत्य को ही समाज मे सत्य के समान स्थापित कर देता है। वर्तमान समय मे लगभग यही हो रहा है। यह स्थिति भारत की ही नही है बल्कि सारे विश्व की है |

     यदि किसी अपवाद को छोड़ दे, तो साहित्यकार और विचारक भी अलग अलग ही होते हैं। न कोई विचारक साहित्य से शून्य होता है न कोई साहित्यकार विचार से। किन्तु साहित्यकार और विचारक मे कोई एक गुण प्रधान होता है और दूसरा आंfशक । प्रधान गुण ही उसे विचारक या साहित्यकार होने की पहचान दिलाता है। विचारक को अधिकतम सम्मान तथा न्यूनतम सुविधाएं मिलती है जबकि साहित्यकार को सामान्य सम्मान तथा सामान्य सुविधाएं। विचारक आमतौर पर व्यावसायिक मार्ग मे नहीं जा पाता जबकि साहित्यकार आम तौर पर व्यावसायिक दिशा मे बढता है। विचारक का मुख्य लक्ष्य सामाजिक होता है और व्यक्तिगत या पारिवारिक सहायक लक्ष्य। साहित्यकार का मुख्य लक्ष्य व्यक्तिगत या पारिवारिक होता है और सामाजिक लक्ष्य सहायक ।

     विचार कई प्रकार के होते है जिनमें -सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक आदि है। साहित्यकार भी कई तरह के है जिनमे नाटककार, कलाकार, साहित्यकार, कथाकार, व्यंगकार आदि होते है। कथाकार भी विचारक न होकर साहित्यकार की ही श्रेणी मे होते है क्योकि कथाकार आम तौर पर कला का उपयोग करते है। जो भी व्यक्ति काल्पनिक कहानी को सत्य के समान स्थापित करे वह विचारक नही हो सकता। जो भी व्यक्ति श्रोताओ को जनहित की जगह जनप्रिय भाषा का उपयोग करके मोहित कर ले वह विचारक नही हो सकता।

     गांधी एक विचारक थे जिनके निष्कर्षो को अनेक कलाकारों, साहित्यकारो, कवियों, नाटककारो ने समाज मे दूर दूर तक पहुचाया। महावीर, ईसा, हजरत मोहम्मद, बुद्ध, स्वामी दयानंद, जय प्रकाश नारायण आदि को भी हम ऐसे मौलिक चिन्तक के रूप मे गिन सकते हैं । राम मनोहर लोहिया, मधुलिमये, दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, अरविन्द केजरीवाल आदि को भी हम आंशिक रूप से इस लाइन मे जोड सकते है क्योंकि इनमे मौलिक विचार के साथ साथ कुछ कुछ साहित्यिक क्षमता भी थी । अन्य भी अनेक लोग विचारक के रूप मे रहे किन्तु उन्हे साहित्यकारों कलाकारो का सहारा नही मिलने से वे अप्रकाशित रहे।

     धीरे धीरे स्थिति यह आई कि मौलिक चिन्तन का अभाव हुआ और साहित्यकारो कलाकारो की बाढ आनी शुरू हुई। साहित्यकार कलाकार कथाकार नाटककार ही स्वयं को विचारक घोषित करने लगे और समाज भी उन्हे विचारक मानने की भूल करने लगा। इन सबमें मौलिक चिन्तन करने और निष्कर्ष निकालने की तो क्षमता थी नही और कला के माध्यम से विचार समाज तक पहुंचाना इनकी मजबूरी थी।

     अतः वास्तविक विचार और विचारकों के अभाव मे इन सबने राजनेताओं के ही विचारो और निष्कर्षो को अपनी कला के माध्यम से समाज तक पहुंचाना शुरू कर दिया। कितनी बचकाना बात है कि राजनेताओ ने आबादी वृद्धि, मंहगाई, सांस्कृतिक विरासत, जैसे अस्तित्वहीन, अप्राथमिक अथवा अल्प प्राथमिक मुद्दों को सर्वोच्च प्राथमिक बोल दिया और साहित्यकारो कलाकारो ने पूरी इमानदारी से इन मुद्दो को समाज के सामने सर्वोच्च प्राथमिकता के रूप मे स्थापित कर दिया।

     आज देश के किसी अच्छे से अच्छे स्थापित विचारक की भी हिम्मत नही कि वह इन विषयों पर अपने अलग विचार रख सके। यहां तक कि कोई इन मुद्दो पर आंशिक यथार्थ भी बोल दें तो पूरा देश एकदम से ऐसी बातों के खिलाफ उबल उठता है। ये सारे असत्य सत्य के समान स्थापित हो गये है और यदि किसी गंभीर विचारक ने चपटी सिद्ध पृथ्वी को गोल कहने का दुस्साहस किया तो या तो उसे स्थापना के पहले फांसी पर चढने को तैयार रहना होगा या अपना निष्कर्ष बदलने को मजबूर होना पडेगा।

     कलाकारो साहित्यकारों की इस जमात को इसके बदले मे राजनेता या सरकारें विभिन्न पुरस्कार तथ अलंकरण देकर पुरस्कृत सम्मानित तथा उपकृत भी करते रहती है। दोनो का अपना अपना उद्देश्य पूरा हो जाता है और विचारक का विचार किसी कोने मे पडा आंसू बहाता रहता है।

     विचार तो पूरी तरह स्वतंत्र होता है। न तो विचार कभी प्रतिबद्ध हो सकता है न होता है। वैसे तो साहित्यकार भी नैतिक रूप मे स्वतंत्र ही होता है और यदि कोई कवि या लेखक विचार प्रतिबद्ध न होकर सत्ता प्रतिबद्ध हो जाता है तो वह चारण या भाट तो कहा जा सकता है किन्तु साहित्यकार नहीं। किन्तु आज साहित्कार तो स्पष्ट रूप से प्रतिबद्ध दिखने ही लगे है। और चूंकि विचारकों के अभाव मे साहित्यकार ही विचारक बन रहे है, इसलिये प्रतिबद्धता विचारको तक को निगल गई है।

     प्रतिबद्धता की बीमारी वामपंथ से शुरू हुई। वामपंथियों ने अपनी आवश्यकतानुसार लेखक, साहित्कार, कवि, नाटककार तैयार किये, बढाया, स्थापित किया तथा उपयोग किया। प्रगतिशील लेखक संघ आदि के नाम से ऐसे ही प्रतिबद्ध संगठन खडे किये गये जो हमेशा हमेशा के लिये गुलाम होते हुए भी स्वयं को स्वतंत्र कहते रहे। इन सबके संगठन बने जो एक दूसरे के साथ जुडकर काम करते रहे। ऐसे प्रतिबद्ध साहित्य के बढते प्रभाव की सफलता से आंतकित संघ परिवार ने भी अपने प्रतिबद्ध साहित्यकार बनाना शुरू किया किन्तु देर से । आज वामपंथी प्रतिबद्ध साहित्य समाज मे मजबूत तो हैं, किन्तु उसे संघ साहित्य से भी कडी चुनौती मिल रही है।

     मीडिया और साहित्य का भी चोली दामन का संबंध होता है। मीडिया समाज का सूचना तंत्र भी होता है तथा साहित्य का संवाहक भी। मीडिया भी आमतौर पर स्वतंत्र होता है और मीडिया की इसी स्वतंत्रता ने उसे लोकतंत्र का चौथा स्तभं कहना शुरू किया। मीडिया आज भी प्रतिबद्धता की बीमारी से तो कुछ कुछ बचा हुआ है। प्रगतिशील मीडिया अथवा संघ का मीडिया जैसे आरोप नही के बराबर है किन्तु लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बनते बनते मीडिया भी वास्तव मे चौथा स्तंभ ही बन बैठा है। पेड न्यूज अथवा जिंदल प्रकरण कोई विशेष बात न होकर आम बात हो गई है। मीडिया का व्यावसायिक होना उसकी मजबूरी भी है। जब समाज सेवा के बोर्ड लगातार एन जी ओ व्यावसायिक हो सकते है, राजनीति व्यावसायिक हो सकती है तो मीडिया बच कैसे सकता है क्योकि मीडिया का कार्य तो वैेसे ही अर्ध व्यावसायिक होने से उसे आर्थिक रूप से प्रतिस्पर्धा करनी ही पडती है।

     जब राजनीति और समाज सेवा जैसे अव्यावसायिक क्षेत्र ही व्यावसायिक हो गये तो मीडिया को कैसे दोष दे सकते हैं | ये पेड न्यूज अथवा जस्टिस काटजू की चिन्ताएं उचित होते हुए भी अनावश्यक हैं। जब तक समाज सेवा और राजनीति का व्यवसायीकरण नही रूकता तब तक मीडिया को दोष देना ठीक नही क्योकि वह तो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है।

     विचारक कभी किसी विचार से प्रतिबद्ध नही होता। वह इतिहास तथा भूतकाल से मार्गदर्शन लेता है, और हमेशा वर्तमान में सोचता है | विचारक वैज्ञानिक होता है, अनुसंधानकर्ता होता है तथा हमेशा निष्कर्ष निकालने में लगा रहता है। विचारक कभी मृत महापुरुषों के विचार बिना स्वयं शोध किये अक्षरशः अनुकरण नहीं करता। कोई भी विचारक कभी संगठन का सदस्य नही होता । चाहे वह विचारको का ही संगठन क्यों न हो। 

     पिछले 67 वर्षाे से किसी मृत महापुरुष के विचारों को आदर्श मानकर साहित्यकारों ने उसका अंधानुकरण किया, क्योंकि उसे राज्याश्रय प्राप्त था। उस समय किसी दूसरे भिन्न मृत महापुरुष के विचारों को आगे बढ़ने से लगातार रोका गया। चुंकि 67 वर्षो तक स्थापित साहित्य के विरुद्ध दूसरे साहित्य को मान्यता मिली, और उक्त भिन्न विचार बढ़ते-बढ़ते राज्याश्रय तक पहॅुच गया। तो मैं नही समझता की इतनी जल्दी साहित्यकारों, कलाकारों, प्रछन्न विचारकों या तथाकथित वैज्ञानिकों को निराश  होकर धैर्य क्यों छोड़ना चाहिए ? 

     दो भिन्न भिन्न प्रतिबद्धताएॅ यदि मैदान में साहित्यकार के रुप में एक दूसरे से टकरा रही है तो उसमें किसी एक को रोने धोने का क्या औचित्य है ? क्या आपके साहित्य में वह यर्थात् नहीं था, जो 67 वर्षो तक राज्याश्रय पाने के बाद भी अमर नही हो सका। क्या आप इस प्रकार राज्याश्रय पर जीवित थे कि एक वर्ष में ही विधवा विलाप करने  लग गये।

     यदि किसी अन्य प्रतिबद्ध साहित्य ने 67 वर्षो के बाद आपको किनारे किया है तो आप एक वर्ष में ही अपनी संभावित मृत्यु से इतने पीडि़त क्यों होने लगे ? मैंने तो बहुत खोजा किन्तु मुझे चिल्लाने और रोने धोने वाले साहित्यकारों, कलाकारों में से एक भी ऐसा नही लगा, जो आंशिक रुप से भी विचारक की भूमिका में हो।

     मैं न पिछले प्रतिबद्ध साहित्कारों के पक्ष में कभी रहा और न ही वर्तमान प्रतिबद्ध साहित्कारों के, क्योकि दोनों ही किसी वर्तमान विचारक के निष्कर्ष को आगे नहीं बढ़ा पा रहे है। बल्कि दोनों ही मृत महापुरुषों के निष्कर्षों का अंधानुकरण कर रहे है।

     किन्तु पिछले एक वर्ष से यह शुभ लक्षण दिख रहा है कि वैचारिक जड़ता को किसी भिन्न वैचारिक जड़ता से चुनौती मिल रही है, और उसका लाभ होगा कि दो जड़ विचारों के बीच किसी वास्तविक विचारक को भी कोई स्थान प्राप्त हो सकेगा। इस टकराव में हम सबका कर्तव्य है कि हम विचार मंथन को आगे बढाने का प्रयास करें।

     वैसे पूरी तरह निराश होना भी ठीक नहीं। अभी बम्बई की दो सामान्य मुसलमान लडकियों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के विरूद्ध किये गये अथवा पाकिस्तानी गायक के विरुद्ध कालिख पोतने जैसे शिव सैनिक व्यवहार को मुंह की खानी पडी। वह वैचारिक स्वतंत्रता के प्रति जन भावना की चिन्ता को भी व्यक्त करती है। स्वतंत्र विचारको को हिम्मत रखने की जरूरत है। भले ही साहित्य अपनी स्वतंत्रता खो दे किन्तु विचार अपनी स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करता रहेगा क्योकि यदि विचार अपनी स्वतंत्रता को बचाने मे सफल रहा तो साहित्य उसका साथ दे सकता है और तब स्वतंत्र साहित्य तथा स्वतंत्र विचार मिलकर समाज के बीच बढते अंधेरे को घटाने मे सहायक हो सकते है।

     यदि साहित्य प्रतिबद्ध गुलाम या भयभीत हुआ तो आंशिक क्षति है , यदि राजनीति हुई तो कुछ विशेष क्षति है, यदि समाज सेवा हुई तो अपूरणीय क्षति है किन्तु यदि विचार ही प्रतिबद्ध, गुलाम, व्यावसायिक या भयग्रस्त हुआ तो बचा ही क्या ?

आइये और विचार अभिव्यक्ति पर आये संकट का सामना करने को सब एकजुट हो जावें।

Karpuri Thakur

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