Friday, July 27, 2012

SOLUTION



--भारत समेत वैश्विक  समस्याओं का समाधान
     व्यक्ति और समाज एक दूसरे के पूरक भी होते है और निंयत्रक भी। व्यक्तियो से ही समाज का अस्तित्व होता है। बिना व्यक्तियो के जुडे समाज बनता ही नही। समाज के बिना भी व्यक्ति का जीना कठिन हो जाता है क्योकि सुचारू जीवन के लिये जिस व्यवस्था की आवश्यकता होती है वह समाज ही दे सकता है, कोई और नही।
व्यक्ति दो प्रकार के होते है 1. वे जो स्वतः ठीक ठीक आचरण करते है और दूसरो को ठीक ठीक आचरण करने मे सहायता करते है। ऐसे व्यक्तियो को ही सामाजिक कहा जाता है 2. दूसरे वे होते है जो लगातार दूसरों  का शोषण भी करते रहते है और अत्याचार भी। ऐसे व्यक्तियो को ही समाज विरोधी कहा जाता है। कुछ लोग इन दोनो ही श्रेणियों  मे नही होते। ये न तो स्वयं अपराध करने के अभ्यस्त होते है न ही समाज की मदद करते है। कभी कभार कोई साधारण सा अपराध कर लेने या दूसरो की सहायता कर देने वाले व्यक्तियों को असामाजिक  माना जाता है। इन्हे अच्छा व्यक्ति न मानते हुये भी समाज विरोधी न होने के कारण समाज का ही अंग माना जाता है। यदि हम भारत स्थित समाज का आकलन  करें तो यहां की कुल आबादी मे एक दो प्रतिशत ही समाज विरोधी तत्व मिलते है। शेष समाज मे कुछ  लोग सामाजिक  प्रकृति के होते हैं तो अधिकांश असामाजिक प्रकृति के । किन्तु होते हैं ये दोनो ही समाज के अंग । विश्व के अन्य देशो मे परिस्थिति अनुसार यह प्रतिशत बदलता रहता है।
समाज विरोधी व्यक्तियो से सामाजिक  व्यक्तियो की सुरक्षा की चिन्ता समाज ही करता है। समाज द्वारा सुरक्षा और न्याय के लिये एक विशेष सेल बनाया जाता है जिसे सरकार कहते है। सरकार का यही दायित्व होता है कि वह  ऐसी सुरक्षा और  न्याय की गांरटी प्रदान करे। यदि हम भारत मे सामाजिक व्यक्ति की स्थिति  का आकलन  करें  तो उसकी भौतिक सुख सुविधाओ मे काफी वृद्धि हुई है । सडक, पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि मे पर्याप्त सुधार हुआ  है किंतु सुरक्षा और न्याय के मामले मे  सामाजिक व्यक्ति बेहद  कमजोर हुआ है।  इन मामलो मे भारतीय शासन व्यवस्था पूरी तरह असफल हो गई है। भारत मे समाजविरोधी  तत्व मजबूत और सामाजिक व्यक्ति संकट ग्रस्त हैं |   यदि हम पूरे विश्व का आलकन करें  तो  पूरी दुनिया मे भौतिक उन्नति तो हो रही है किन्तु सुरक्षा और न्याय कमजोर हो रहे है ।  आम लोगो का चरित्र गिर रहा है, आतंकवाद बढ रहा  है, सामाजिक व्यक्तियो का मनोबल टूट रहा है और समाज विरोधियो का बढ रहा है। राज्य व्यवस्था असफल होती जा रही है । ऐसी स्थिति किसी क्षेत्र विशेष की होती तो कोई  बात नही होती किन्तु यदि पूरे विश्व मे ऐसा है तो संकट राज्य का न होकर समाज का मानने की आवश्यकता है। स्पष्ट है कि यह सामाजिक सोच का विषय है। समाज के समक्ष संकट कितना गहरा है उसके लक्षण क्या है तथा उसकी पहचान क्या है यह गंभीर शोध का विषय है । ये लक्षण नौ माने जाते है।

1. जब निष्कर्ष निकालने मे विचार मंथन की जगह प्रचार अधिक प्रभावकारी होने लगें-
निष्कर्ष निकालने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है विचार और विचारो को ठीक दिशा देने का आधार है विचार मंथन। बहुत प्राचीन काल मे सामाजिक विषयो पर भी निष्कर्ष निकालने मे विचार मंथन की अग्रणी भूमिका रही है । नितान्त पारिवारिक या व्यक्तिगत मामलो मे भी यह प्रक्रिया जारी रही है । आज भी इस प्रणाली की उपयोगिता अमरीकी  राष्टपति  चुनाव  मे देखी जा सकती है । किन्तु सम्पूर्ण विश्व मे निष्कर्ष निकालने  मे विचार मंथन की प्रकिया समाप्त हो रही है और विचारो का स्थान भावनाएं ले रही है । विचार  निष्कर्ष निकालता है मंथन के माध्यम से और भावनाएं निष्कर्ष निकालती है प्रचार से प्रभावित होकर।  पूरे विश्व मे तेजी  से विचार मंथन का स्थान विचार प्रचार ने ग्रहण कर लिया है । पिछले दो तीन हजार सालो से यह बीमारी शुरू हुई और अब तो इसने महामारी का रूप धारण कर लिया है । मृत महापुरुषों  के विचार बिना स्वयं मंथन किये ही यथावत समाज तक पहुचाने की घातक पंरपरा निंरतर फल फूल रही है । नित नये नये  संगठन बन रहे है। आधुनिक भारतीय महापुरुषों  के रूप मे जिन  स्वामी दयानन्द, महात्मा गाधी या पं० श्री रामशर्मा ने अपना सम्पूर्ण निष्कर्ष विचार मंथन प्रकिया से निकाला था उन्ही के शिष्यो ने विचार मंथन की प्रकिया को त्याग कर सिर्फ विचार प्रचार को ही अपना उद्देश्य  मान लिया है। ये लोग नही सोचते कि निष्कर्ष निकालने और उन्हे क्रियान्वित करने मे देश काल परिस्थिति की भी भूमिका हुआ करती है। यदि वे महापुरूष जीवित रहते तो देश काल परिस्थिति अनुसार अपने निष्कर्ष की समीक्षा भी करते और संशोधन भी किन्तु उनके जाते ही हम विचार मंथन को रोककर सिर्फ प्रचार में लग जाते है। विदेश-आधारित संगठनो मे इस्लाम ने सदा के लिये इस पंरपरा पर रोक ही लगा दी है, ईसाइयत मे भी यह पंरपरा आंशिक ही है। एकमात्र माकर्सवादी ही ऐसे है जो इस पंरपरा को जीवित रखे है यद्यपि उनमे भी यह पंरपरा आन्तरिक संगठन तक ही सीमित है, सामाजिक विषयो पर नही।
इस घातक पंरपरा का बहुत अधिक नुकसान समाज व्यवस्था को भुगतना पड रहा है । नये नये गंभीर विचार सामने नही आ पा रहे। प्रचार माध्यम से समाज को प्रभावित करने के लाभ से सब लोग आकर्षित है। प्रचार के नये नये तरीके खोजे जा रहे है। असत्य भी प्रचार के माध्यम से सत्य के समान स्थापित होने लगे है। नये नये संगठन बनने की होड मची हुई है। प्रचार दौड मे चरित्र की कोई आवश्यकता ही नही समझी जा रही है । अंधी दौड मे अधिक से अधिक लोगो को आंख पर पट्टी  बांधने हेतु प्रेरित करने की होड मची है जबकि उन्ही महापुरूषो ने अपने जीवन काल मे समाज को लगातार पट्टी  न बांधने की शिक्षा दी थी।

2. संचालक और संचालित के बीच बढती दूरी- 
समाज की ठीक ठीक व्यवस्था के लिये प्रत्येक व्यक्ति मे भावना और बुद्धि का समन्वय आवश्यक होता है। यदि बुद्धि की मात्रा अधिक हो जाए  तो वह धूर्तता का मार्ग पकड लेती है और यदि भावना बहुत हो जाए  तो मूर्खता मे बदल जाती है। इन दोनो के समन्वय  का अभाव हो गया है। यही कारण है कि समाज मे संचालक और संचालित के बीच की दूरी लगातार बढती जा रही है। इन्हे अंग्रजी मे कंट्रोलर और कंट्रोल्ड के रूप मे भी कहा जाता है। यह दूरी लगातार राजनैतिक क्षेत्र मे भी बढ रही है और धार्मिक क्षेत्र मे भी। हर संचालक पूरा पूरा प्रयत्न कर रहा है कि उस पर विश्वास कर रहा  संचालित लगातार भावना प्रधान बना रहे क्योकि बुद्धि या विवेक का विस्तार इस दूरी को कम कर सकता है जिसका दुष्परिणाम होगा संचालक की स्वार्थ पूर्ति मे कमी। सभी तरम के संचालक  संचालित को कर्तव्यों की प्रेरणा देते है और स्वयं अधिकारो की चिन्ता करते रहते है। राजनेताओ मे तो यह स्वभाव ही बन गया है । प्रत्येक राजनेता सम्पूर्ण समाज को सिर्फ कर्तव्य की ही प्रेरणा देता रहता है किन्तु स्वयं हर क्षण अपने अधिकारो के लिये संघर्ष करता रहता है । इसी तरह प्रत्येक संचालक अपने अधीन संचालित को हर  पल दान और त्याग की प्रेरणा देता है किन्तु संचालक स्वय हर पल संग्रह मे लगा रहता है। दान और संग्रह का यह खेल धार्मिक क्षेत्र मे भी लगातार चलता रहता है और राजनैतिक क्षेत्र मे भी । संचालित के अंदर दान प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने के लिये आजकल नये नये तरीके भी निकाले  जा रहे है । राजनेताओ ने जन कल्याण के नाम पर नागरिक के अधिकतम  धन और अधिकारो को अपने पास समेट लिया है । दूसरी ओर धार्मिक गुरूओ ने भी ट्रस्ट, अनेक संस्था और ईश्वर के नाम पर अपनी आर्थिक शक्ति बहुत मजबूत कर ली है । संचालक और संचालित के बीच एक संबंध और बन रहा है कि हर संचालक संचालित को ज्ञान तो दे नही रहा। या तो सुविधाएं दे रहा है या शिक्षा। ज्ञान व्यक्ति को आत्म निर्भर बनाता है और सुविधा बनाती है आश्रित । वर्तमान शिक्षा तो केवल मनुष्य  में निहित क्षमता के विस्तार मात्र का दूसरा नाम भर है |  राजनेता नागरिक को स्वावलम्बी बनने मे सहायक न होकर उसे ऐसी सुविधाएं दे रहा है ताकि वह हमेशा राज्य का मुखापेक्षी बना रहे । धर्म गुरु  भी  अपने शिष्यो को  कर्मकान्ड तथा रूढ़िवादिता तक ही सीमित रखना चाहते है। यही कारण है कि हर गुरू या राजनेता समाज मे विचार मंथन को निरूत्साहित करके विचार प्रचार को बढावा देता है  तथा विवेक जागरण के स्थान पर लगातार भावनाओ के विस्तार के प्रयत्न भी करता रहता है क्योकि वह भली भांति समझ चुका है कि मंथन रहित प्रचार ही उसके स्वयं के विस्तार का टानिक है।

3. राजनीति और समाज सेवा का व्यवसायीकरण – 
दुनिया मे कही भी और कभी भी न राजनीति को व्यवसाय माना गया न समाज सेवा को । भारत मे भी ऐसा कभी नही हुआ । प्राचीन समय मे व्यवसायी यदि चाहता था तो अपना अतिरिक्त धन  धर्मशाला, कुंआ, मुफ्त भोजन या दानपुण्य के रूप मे समाज  सेवा मे निस्वार्थ खर्च किया करता था। राजा भी यदि न्याय और सुरक्षा के बाद कुछ करना चाहता था तो वह समाज सेवा मे अपना निस्वार्थ योगदान किया करता था। तीनो का बिल्कुल पृथक पृथक कार्य क्षेत्र था। कोई किसी के कार्य मे हस्तक्षेप नही करता था। समाज सेवा पूरी तरह निस्वार्थ होने से उसे राजनीति या व्यवसाय की अपेक्षा अधिक सम्मान प्राप्त था । जब अंग्रेजो ने भारतीय व्यवस्था मे प्रवेश किया तो उन्होने व्यवसाय के माध्यम से राज्य पर कब्जा किया। इसलिये राज्य व्यवस्था और व्यापार को एक साथ जोडकर पुंजीवाद शुरू हुआ। पूँजीवाद मे राज्य व्यवस्था व्यवसाय के अन्तर्गत हो गई। कुछ समय पश्चात  कुछ देशो मे साम्यवाद आया तो उसने तानाशाही शासन की स्थापना की। अर्थात सम्पूर्ण व्यवसाय ही  राज्य व्यवस्था के अधीन हो गया। चूंकि व्यवसाय और राज्य व्यवस्था एक साथ जुड गये थे इसलिये समाज सेवा का भी राजनीतिकरण हुआ। फिर भी समाज सेवा का व्यसायीकरण नही हुआ था। पिछले कुछ वर्षो से समाज सेवा का भी व्यवसायीकरण शुरू हो गया । चाहे एन. जी. ओ. के नाम से हो या किसी और नाम से किन्तु अनेक समाज सेवी संस्थाएं समाज सेवा को व्यापार समझ भी रही है और कर भी रही है । अब तो पता ही नही चलता कि कौन सामाजिक कार्यकर्ता गुप्त रूप से कहां से और कितनी मात्रा मे समाज सेवा के नाम पर धन प्राप्त कर रहा है। वह उस धन  से  समाज सेवक भी बनकर धूम रहा है । कई सन्यासी का रूप धरकर इस व्यवसाय मे लिप्त है। समाज सेवा का व्यवसायीकरण भी एक गंभीर चिन्ता का विषय है।

4. भौतिक पहचान का संकट- 
व्यवस्था को ठीक से चलने मे कुछ निश्चित समूहो की भौतिक पहचान की भी व्यवस्था रही है। सम्पूर्ण विश्व मे कई रूपो मे यह व्यवस्था है जो भारत मे भी रही है। पुलिस या वकील की ड्रेस  उसका एक उदाहरण है। प्राचीन समय मे गुण कर्म स्वभाव अनुसार वर्ण व्यवस्था बनाकर यज्ञोपवीत के विभिन्न रूपो मे यह पहचान बनाई गई थी । सन्यासियो के लिये भी एक विशेष वेषभूसा का प्रावधान था । विवाहित अविवाहित महिलाओ के लिये कुछ भिन्न पहचान थी। यहां तक कि समाज बहिष्कृत  लोगो की भी अलग पहचान बनी हुई थी।
कुछ स्वार्थी तत्वो ने जन्मजा वर्ण जाति व्यवस्था को जन्म किया। यहीं  से व्यवस्था छिन्न भिन्न होनी  शुरू हुई । इस परिवर्तन का दुष्प्रभाव स्वाभाविक था । कुछ सन्तो ने इसे ठीक करने का प्रयास शुरू किया किन्तु कुछ राजनीतिक स्वार्थ वालो ने इस दूषित  व्यवस्था का लाभ उठाने के उदेश्य से इस सुधार के प्रयत्न को विफल कर दिया। टूटती हुई जातीय पहचान जहां और टूटनी चाहिये थी वहा तो मजबूत होने लगी और जहा मजबूत होनी चाहिए थी वहां  टूटनी शुरू हो गई । सम्पूर्ण  भारत मे पुलिस विभाग की एक निश्चित पहचान बनी हुई है। खाखी वर्दी पर एक निश्चित प्रकार का बेल्ट और कंधें पर निश्चित पहचान चिन्ह। सम्पूर्ण समाज मे सन्यासी की एक अलग पहचान है । उनके वस्त्रों का रंग, उनके बाल या अन्य रहन सहन दूर से ही उनकी भौतिक पहचान करा देती है । दस बीस वर्षो पूर्व तक राजनैतिक प्रतिष्ठा की प्रतीक खादी बनी हुई  थी । आज भी कुछ मात्रा मे खादी का सम्मान बचा हुआ है । कल्पना करिये कि नक्सलवादी भी गुप्त रूप से पुलिस के समान ही ड्रेस और पहचान चिन्ह का उपयोग करने लगे या रावण भी सीताहरण के लिये साधू वेश  का उपयोग करके अपना उदेश्य पूरा कर ले तब व्यवस्था का क्या स्वरूप होगा? हम आज की स्थिति की समीक्षा करें तो आंतकवादी खुले आम पुलिस ड्रेस का उपयोग करने लगे है । न्यायालय मे एक विशेष प्रकार की पहचान ड्रेस  पहन कर ही वकील आंतकवादियो की कानूनी  सहायता कर सकते है किन्तु आज तो ऐसे आंतकवादियो की सहायता करने वालो को काला कोट भी नही पहनना पडता। उनके लिये किसी मानवाधिकार युनिट का बोर्ड ही ऐसे आंतकवादियो की सामाजिक से लेकर कानूनी मदद के लिये पर्याप्त है । यदि ऐसा बोर्ड अंग्रेजी मे हो तो उन्हे विदेशो से आर्थिक सहायता मिलने मे आसानी होती है और समाज मे रोब जमाने मे भी सुविधा होती है । सन्यासी की पहचान भी कठिनाई पैदा कर रही है । बडे बडे नामी सन्यासी खुले आम चुनाव लडने लगे है । कुछ सन्यासी या साध्वियां  तो अपनी भौतिक या राजनैतिक इच्छाओ की पूर्ति के लिये सन्यासी की पोशाक को सर्वाधिक उपयुक्त मानने लगे है । खादी का हाल तो आप देख ही रहे है । उसकी तो विश्वसनीयता अब समाप्त ही हो गई है। जैन समाज मे तो सन्यास विरुद्ध  आचरण पर कुछ रोक है भी अन्यथा अन्य सभी सामाजिक राजनैतिक पदो पर भौतिक  पहचान लगातार खतरे मे पड रही है । कोइ पहचान समाप्त होना बडा खतरा नही होता । बडा खतरा यह है कि स्थापित पहचान मे नकली धूर्त प्रवेश करके लाभ उठा ले और कोई  कानून या सामाजिक व्यवस्था उसे रोकने मे सफल न हो पावे । खादी तो अपनी पहचान खो देने के कारण कोइ प्रभाव नही डाल रही किन्तु गेरूआ वस्त्र, मानवधिकार संगठनो के बोर्ड, या पुलिस ड्रेस तो समाज को धोखा देने मे आज भी भूमिका अदा कर ही रहे हैं। पहचान का यह संकट सम्पूर्ण विश्व मे लगातार बढ रहा है और खतरनाक बिन्दु तक पहुंच रहा है।

5. समाज का टूटकर वर्ग मे बदलना- 
समाज की अनेक परिभाषाए प्रचलित है उनमे से एक उपयुक्त परिभाषा यह है:- "स्वयं विकसित दीर्घ कालिक नियम पालन से प्रतिबद्ध व्यक्तियों का समूह"। इस परिभाषा अनुसार समाज विरोधी व्यक्ति समाज का अंग नहीं माना जा सकता। समाज की मूल इकाई है व्यक्ति और व्यवस्था की पहली इकाई परिवार, दूसरी गांव या वार्ड, तीसरी देश, चौथी विश्व हो सकती है । गांव और देश के बीच की इकाइयो को मान भी सकते है और नही भी क्योकि ये सर्वदा चलायमान होती है । समाज स्वयं मे अमूर्त इकाई है। परिवार से लेकर विश्व तक की प्रत्येक इकाई अपने से उपर की इकाई की पूरक तथा नीचे वाली इकाई की संरक्षक होती है। इसका अर्थ हुआ कि हर इकाई अपने से ऊपर की इकाई को शक्ति देती है और नीचे की इकाई को देती है सुरक्षा की गारंटी।
अपनी इकाईयो को निश्चित सुरक्षा और न्याय के लिये समाज का एक विशेष सेल होता है जिसे राज्य कहते हैं। अब तक सम्पूर्ण विश्व की कोई एक राज्य व्यवस्था नही बनी है इसलिये पूरा विश्व कई सौ स्वतंत्र राज्य व्यवस्थाओ मे बटा हुआ है। इन सब राज्यो की व्यवस्थाओ मे कुछ भिन्नता तो स्वाभाविक रूप से होती ही  है किन्तु ऐसे सभी राज्यो की व्यवस्थाओ मे एक समानता पाई जाती है कि राज्य सामाजिक एकता को अपनी उच्चशृंखलता   के लिये बाधक समझ कर लगातार ऐसी एकता के विरूद्ध प्रयत्नशील रहता है। साम्यवादी, तानाशाह या इस्लामिक देशो मे ऐसा खतरा न के बराबर होता है क्योकि ऐसे देशो मे व्यक्ति को समाज का अंग नही माना जाता ओर व्यक्ति को सिर्फ नागरिक अधिकार ही दिये जाते है मौलिक या प्राकृतिक नही। किन्तु लोकतंत्र  मे व्यक्ति को मानव समाज का अअंग मानकर उसे नागरिक अधिकार के साथ कुछ मौलिक या प्राकृतिक अधिकार भी देने की प्रथा है। इसलिये लोकतांत्रिक देशो की राज्य व्यवस्थाए सामाजिक एकता के विरुद्ध ज्यादा चौकन्नी  और सतर्क रहती है। भारत भी ऐसा ही लोकतात्रिक देश है।
समाज की  एकजुटता के खतरे से बचाव के लिये राज्य दो तरीके से सक्रिय रहता है- १. समाज की प्राथमिक इकाई परिवार और ग्राम या वार्ड को हमेशा कमजोर करते जाना २. समाज को किसी एक या एक से अधिक आधारो पर वर्ग निर्माण, वर्ग विद्वेष तथा वर्ग संघर्ष की दिशा मे लगातार प्रोत्साहित करना। पूरा विश्व लगातार दोनो दिशाओ मे सक्रिय रहता है किन्तु भारत इस दिशा मे बहुत अधिक सकिय है। दुनिया के किसी भी अन्य देश से अधिक । यहां समाज व्यवस्था की प्राथमिक इकाई परिवार और गांव को व्यवस्था मे शामिल ही नही किया गया।
भारतीय संविधान मे न कहीं  परिवार व्यवस्था का उल्लेख किया गया है न ही ग्राम व्यवस्था का। ये दोनो शब्द ही संविधान मे शामिल नही है। इसके विपरीत समाज को तोडने के उदेश्य से हर बात राज्य व्यवस्था मे शामिल रहती है। पूरी दुनियां मे चार प्रकार की शासन व्यवस्थाए पाई जाती है
1.   पश्चिम का लोकतंत्र  जिसमे व्यक्ति  महत्वपूर्ण होता है तथा राज्य, धर्म और  समाज गौण |
2.   साम्यवाद जिसमे राज्य सर्वाधिक शक्ति सम्पन्न होता है तथा व्यक्ति, धर्म तथा  समाज गौण |
3.   इस्लाम का धर्म तंत्र जिसमे धर्म सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है तथा व्यक्ति, राज्य, समाज गौण |
4.    वैदिक काल की समाज व्यवस्था जिसमे समाज सर्वशक्तिमान था तथा राज्य, व्यक्ति, धर्म गौण।
गुलामी काल के बाद भारत का जो संविधान बना उसमे धर्म राज्य तथा व्यक्ति को तो भिन्न भिन्न स्वरूपो मे शामिल किया गया किन्तु समाज के प्रमुख अंग परिवार व्यवस्था, गांव व्यवस्था को बिल्कुल दूर कर दिया गया। भारतीय संविधान ने समाज को तोडकर रखने के आठ आधारो को इस प्रकार संविधान का भाग बना दिया कि ये आठो आधार वर्ग निर्माण वर्ग विद्वेष और वर्ग संघर्ष की पृष्ठ भूमि तैयार करते रहे । ये आठ आधार हैं:-
1 धर्म: 2 जाति: 3 भाषा: 4 क्षेत्रीयता: 5 लिंग: 6 उम्र: 7 गरीब/अमीर: 8 उत्पादक/उपभोक्ता:। भारत का प्रत्येक राजनैतिक दल इन आठों  आधारो पर वर्ग संघर्ष का ताना बाना बुनते रहता है। भारत की तो आज यह स्थिति हो गई है कि यहा अनेक वर्ग ही स्वयं को  समाज घोषित करने लगे है । वर्ग सघर्ष ही इनकी सामाजिक एकता मान ली जाती है । ऐसी वर्ग विभाजन की स्थिति भारत मे निरंतर बढती जा रही है।

6     निष्प्रभावी राज्य व्यवस्था-
समाज विरोधी तत्वो से समाज की सुरक्षा के लिये जो व्यवस्था बनाई जाती है उसे राज्य कहते है। राज्य का दायित्व होता है कि वह समाज को उसकी स्वतंत्रता की सुरक्षा की गारंटी दे। राज्य यदि ऐसा न कर सके तो यह उसकी विफलता मानी जाती है। राज्य का कर्तव्य है कि वह अपना नियंत्रण समाज विरोधी तत्वो तक ही सीमित करे और समाज की स्वतंत्रता पर कोई भारी अंकुश न लगावे । यदि राज्य अनिवार्य स्थिति के न होते हुए भी समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता पर कोई अंकुश लगाता है तो यह राज्य की उच्चशृंखलता मानी जाती है । इसका अर्थ यह हुआ कि समाजविरोधी तत्वो पर राज्य का और राज्य पर समाज का नियंत्रण होना चाहिये । हम भारत मे समाज राज्य तथा समाज विरोघी तत्वो के वास्तविक संतुलन की समीक्षा करे। भारत मे सम्पूर्ण समाज अपने को असुरक्षित महसूस  कर रहा है। सभी प्रकार के अपराध बढते ही जा रहे है। वैसे तो सम्पूर्ण विश्व मे ही ऐसी स्थिति हो गई है किन्तु भारत मे तो हिंसा, आतंक, मिलावट,  बलात्कार आम बात बन गये है। समाज विरोधी तत्वो  का मनोबल लगातार बढ रहा है । इसके ठीक विपरीत राज्य पर समाज का अंकुश रहा ही नही। वोट देने का अधिकार छोडकर शेष सारे अधिकार राज्य ने अपने पास समेट लिये हैं। रोज नये नये कानून बन रहे है। समाज लगभग गुलाम हो गया है। जिस राज्य को समाज के नियंत्रण मे रहना चाहिये था उस पर समाज का कोई नियंत्रण नही है। इसके विपरीत जिन समाज विरोघी तत्वो पर राज्य का नियंत्रण होना चाहीये था ऐसे समाज विरोधी तत्वो का ही राज्य व्यवस्था पर नियंत्रण स्थापित हो गया है।

7  मानव स्वभाव ताप वृद्धि-
सम्पूर्ण विश्व के मानव स्वभाव मे हिंसा के प्रति समर्थन बढता ही जा रहा है । यह मानव स्वभाव ताप वृद्धि लगभग सम्पूर्ण  विश्व  मे एक समान ही बढ रही है | हमारे सभी महापुरूष शान्ति का उपदेश देते रहे हैं। बुद्ध और महावीर ने तो अहिंसा को सिद्धान्त ही घोषित कर रखा था। वर्तमान काल मे गांधी जी ने भी अहिंसा   के प्रचार मे पूरी शक्ति लगाई । आज बुद्ध  महावीर और गांधी के भारत मे अशान्ति और हिंसा का वातावरण देखते ही बनता है। गांधी  की जन्म भूमि गुजरात और कर्मभूमि महाराष्ट में अहिंसा लगातार कमजोर हो रही है । प्रत्येक व्यक्ति के मन मे हिंसा के प्रति विश्वास बढा है। आमतौर पर एक कहावत सुनने  में आती  है कि पहले आक्रमण विजय की सफल कुंजी होती है।
हिंसा क्यो बढ रही है? मानव स्वभाव क्यो बदल रहा है? इन बातो पर हम अलग से विचार मंथन करेगे किन्तु यह बात निर्विवाद है कि मानव स्वभाव हिंसा की दिशा मे बदल रहा है । अभी दुनिया भर के समाजशास्त्री पर्यावरणीय ताप वृद्धि की चिन्ता के  लिये दोहा मे बैठे थे और लम्बा विचार मंथन किये । पर्यावरणीय ताप वृद्धि का दुष्परिणाम आने मे जितना समय लगेगा उसकी अपेक्षा बहुत कम समय मे ही मानव स्वभाव ताप वृद्धि के दुष्परिणामों  का खतरा मंडरा रहा है किन्तु आश्चर्य है  कि इस समस्या पर गंभीर विचार मंथन के लिये कोई सम्मेलन नही हो रहा । इस स्वभाव परिवर्तन के परिणाम स्वरूप तो भाई भाई के बीच भी आक्रोश और हिंसा का वातावरण बढता जा रहा है किन्तु अहिंसा और शान्ति के असफल नारों के अतिरिक्त इस दिशा मे चिन्तन या प्रयत्न लगभग शून्य ही है। इसके विपरीत समाज को दो विपरीत दिशाओ मे संगठित करने का प्रयत्न लगातार जारी है जिसमे से एक है अहिंसा के नाम पर कायरता का प्रचार । दुर्भाग्य से यह प्रचार राज्य व्यवस्था को भी न्यूनतम हिंसा का पाठ पढाकर उसे कमजोर कर रहा है और ऐसे कायर या नासमझ लोग अपनी अहिंसा के समर्थन मे गांधी तक के नाम का उपयोग करते हैं। दूसरी ओर है संघर्ष के नाम पर सामाजिक टकराव को प्रोत्साहन।  दुर्भाग्य से यह प्रचार राज्य व्यवस्था के विरूद्ध भी समाज को हिंसा का पाठ पढाकर अपनी ही ताकत को कमजोर कर रहा है। ऐसी  हिंसा के समर्थक लोग स्वार्थवश या नासमझी मे सुभाष और भगतसिह तक के नाम का उपयोग करते रहते है। बिल्कुल साफ दिखता है कि राज्य को न्यूनतम बलप्रयोग के स्थान पर संतुलित बल प्रयोग का मार्ग अपनाना चाहिये तथा लोंकतत्र मे सामाजिक हिंसा या  बल प्रयोग का कोई स्थान होता ही नही। दुख है कि दो विपरीत विचार समाज मे हिंसा को प्रोत्साहित करते जा रहे हैं।

8.  मानव स्वभाव स्वार्थ वृद्धि- 
     जिस तरह मानव स्वभाव मे आक्रोश  और हिंसा का विस्तार हो रहा है उसी तरह मानव स्वभाव मे स्वार्थ की मात्रा भी बढती ही जा रही है । सभी महापुरूषो के त्याग के उपदेश और प्रवचन निष्प्रभावी हो रहे है  और मानव स्वभाव स्वार्थ प्रधान होता जा रहा है। मानव स्वभाव मे स्वार्थ क्यो बढ रहा है और उसका समाधान क्या है यह समाज के सोचने का पृथक विषय  है किन्तु स्वार्थ बढ रहा है यह निर्विवाद सत्य है। स्वार्थ वृद्धि ने सारे पारिवारिक समीकरण भी बिगाड दिये है और सामाजिक समीकरण भी । पति-पत्नी ,पिता-पुत्र, भाई-भाई मित्र-मित्र के रिश्ते कलंकित हो रहे है । आपसी अविश्वास बढ रहा है । हर मामले मे स्वार्थ प्रधान व्यक्ति आगे बढ रहा है और निस्वार्थ पीछे जा रहा है। सम्पूर्ण मानव समाज के स्वभाव मे औसत स्वार्थ वृद्धि का प्रतिशत उसी तरह लगातार बढ रहा है जिस तरह हिंसा की मनोवृत्ति बढ रही है।

9. धर्म और विज्ञान के बीच बढती दूरी-
धर्म और विज्ञान एक दूसरे के पूरक है। ‘‘विज्ञान का आधार होता है तर्क और अनुसंधान जबकि धर्म का आधार होता है श्रद्धा और विश्वास।‘‘ विज्ञान निष्कर्ष  निकालता है और घर्म समाज तक पहुचाता है। ‘‘विज्ञान बुद्धि प्रधान कार्य है और धर्म भावना प्रधान आचरण।‘‘ विज्ञान लंगडा है और धर्म अंधा। इसीलिये दोनो को एक दूसरे का पूरक तथा सहयोगी माना जाता है।
वर्तमान समय मे धर्म और विज्ञान के बीच दूरी बढने लगी । विज्ञान आवश्यकता से अधिक भौतिकवाद की दिशा मे जाता दिख रहा है और धर्म आवश्यकता से अधिक रूढिवादी अंधविश्वास की राह पर। धार्मिक संगठन  तर्क को अनावश्यक सिद्ध करने मे जी-जान से जुटे है और वैज्ञानिक धार्मिक आस्थाओ पर चोट करने मे शक्ति लगा रहे है ।  कुछ असत्य धारणाए यदि घातक नही है तो उसके पीछे पडने की जरूरत ही क्या है। किन्तु विज्ञान का नाम लेकर ऐसी अनावश्यक असत्य धारणाओ को असत्य प्रमाणित करने मे बहुत अधिक शक्ति लगाई जा रही है।
धर्म और विज्ञान के बीच बढती दूरी सम्पूर्ण समाज मे भ्रम पैदा कर रही है । ऐसा भ्रम बहुत नुकसान कर रहा है । प्रकृति के अनसुलझे रहस्यो को असत्य सिध्द करना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं । किन्तु विज्ञान ऐसा कर रहा है। दूसरी ओर आस्था पर टिकी जो अवैज्ञानिक धारणाये असत्य या अनावश्यक प्रमाणित हो चुकी है उन्हे जबरदस्ती भावनात्मक प्रचार द्वारा सत्य सिद्ध करना घातक ही है। धर्म लगातार ऐसा कर रहा है।

उपरोक्त नौ आधारो पर हम कहने की स्थिति मे है कि समाज संकट मे है । यदि उपरोक्त नौ मे से कोई एक भी लक्षण दिखने लगे तो वह सम्पूर्ण समाज को अव्यवस्थित तथा बीमार करने के लिये पर्याप्त है। ऐसा लक्षण किसी गंभीर बीमारी का लक्षण मात्र ही न होकर बीमारी के विस्तार मे भी सहायक हो रहा है। किन्तु यदि हम ठीक से आकलन करे तो वर्तमान समय मे तो सभी नौ के नौ  लक्षण समाज मे उपस्थित भी है और बढ  भी रहे है। इसीलिये वर्तमान समय को आपात्काल सरीखा मान कर विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता है।
संकट विश्वव्यापी है। समाधान कठिन है। यदि गंभीरता से विचार करे तो समस्याएं जितनी व्यापक और प्रभाव वाली है उनके समक्ष हमारी शक्ति  बहुत कम है किन्तु दूसरी ओर यह बात भी सच है कि समाधान करना ही होगा और इस समाधान मे जितना विलम्ब होगा समस्या उतनी ही बढती जायगी । इसलिये हमे इस समस्या का कोई ऐसा प्रतीकात्मक समाधान करना होगा जिसमे संगठन बनाने की  आवश्यकता न हो, प्रचार की भी आवश्यकता न हो, किसी व्यक्ति विशेष की विशेष पहचान भी न बनानी पडे और लोगो के बीच किसी प्रकार की विशेष सकियता की भी आवश्यकता न हो । धर्म समाज सेवा या राजनीति का चोला पहने कौन व्यक्ति हमारे बीच गुमराह कर रहा है ऐसी कोई पहचान जब तक नही होती तब तक उस दिशा मे बढने की आवश्यकता ही नही है। 
इसलिये "स्वतंत्र विचार मंथन" ही इस समस्या का एकमात्र समाधान है। इस के तीन शब्द हैं 1 स्वतंत्र 2 विचार 3 मंथन। इन तीनो शब्दो को जोडकर स्वतंत्र विचार मंथन शब्द बना है।  इस विधि मे स्वतन्त्र  शब्द का आशय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति एक इकाई होगा। वह स्वयं स्वतंत्रता पूर्वक निष्कर्ष निकालेगा। किसी भी रूप मे सामूहिक निर्णय या निष्कर्ष नही निकलेगा । क्योकि यदि सामूहिक निष्कर्ष निकालने की पंरपरा रही तो अन्तिम निष्कर्ष वही निकलेगा जो नेता, पूंजीपति, धूर्त, या बडे अपराधी चाहेंगे। इसलिये विचार मंथन मे निष्कर्ष व्यक्तिगत ही निकलना चाहिये। ऐसे निष्कर्ष निकालने के बाद कोई कार्यक्रम करना हो तब योजना सामूहिक बन सकती है। दूसरा शब्द है विचार। विचार शब्द का अर्थ है कि इस विचार मंथन के बाद या पूर्व में किसी निष्कर्ष के आधार पर तत्काल कोई कार्य नही होगा। इसमे सिर्फ विचार ही होगा। चूंकि इसमे कोई सामूहिक  निष्कर्ष नही निकालना है और न ही कोई सामूहिक योजना बननी है इसलिये क्रिया तो वैसे भी इसमे शामिल नही फिर भी योजना या कार्यक्रम को विचार से दूर रखने के लिये विशेष सतर्कता रखनी होगी। तीसरा शब्द है मथंन। इस शब्द का अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है कि निष्कर्ष  निकालने के लिये प्रवचन, भाषण, शिक्षा, उपदेश या अन्य किसी विधि का उपयोग नही होगा । सिर्फ विचारो का मंथन ही पर्याप्त है। इस तरह इस विधि मे अकेले या अन्य लोगो के साथ बैठकर किसी असम्बद्ध विषय पर स्वतंत्र विचार मंथन करना है। यदि मंथन करने वाले एक से अधिक हो तो भी कोई निष्कर्ष या प्रस्ताव पारित नही करना है।
यह एक अत्यंत ही साधारण दिखने वाली प्रकिया है । यह प्रयोग मासिक भी हो सकता है और साप्ताहिक भी या दैनिक भी । इस प्रयोग का परिणाम अप्रत्यक्ष और अदृश्य होता है किन्तु इससे प्रचार का प्रभाव तो अपने आप ही कम होने लगता है क्योकि विचार मंथन और विचार प्रचार एक जगह पर रह ही नही सकते। विचार मंथन गुरू शिष्य या संचालक संचालित के भेद को भी कम करता है क्योकि सब लोग समान स्तर पर बैठकर चर्चा करेगे। इससे समाज सेवा का व्यवसायीकरण भी रूकेगा ही । क्योकि प्रचार से भी यह क्रिया प्रक्रिया बिल्कुल दूर है और  योजना से भी । भौतिक पहचान का इसमे कोई संकट नही है । नकली लोग ऐसे मंथन से या तो दूर रहेगे  या आकर फंस जायेगे। नकली लोग अन्त मे निष्कर्ष भी निकालेगे और प्रस्ताव भी पारित करेगे क्योकि यही सकियता उन्हे समाज मे सम्मान जनक स्थान स्थापना मे सहायक होती है। दोनो काम इसमे हैं नही। निष्कर्ष  निकालना नहीं है। उनकी स्थापना होनी नही है । समाज को कोई धोखा देने का  अवसर ही नही है तो वे ऐसा बेकार का भूसा  क्यो कूटे जिसमे से कोई दाना निकलने की गुंजाइश ही नही। 
इस स्वतंत्र विचार मंथन से सर्वाधिक लाभ होता है वर्ग निर्माण, वर्ग, विद्वेष और वर्ग संधर्ष के विरूद्ध। जब समाज के सब प्रकार के लोग बिना भेद भाव के निरूद्देश्य एक साथ बैठकर विचार मंथन करते है तो जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्रीयता के टकरावपूर्ण बंधन अपने आप ढीले होने लगते है। इससे राज्य और समाज के बीच की दूरी धटती है। राज्य की सार्वभौमिक शक्ति को मौन चुनौती होती है। कई मामलो मे यह शक्ति राज्य के अच्छे कार्यो मे सहायक भी हो सकती है और कई गलत कार्या मे भयोत्पादक भी। इस विचार मंथन प्रकिया से हिंसा तथा स्वार्थ की प्रवृत्ति का भी अपने  आप शमन होता है। साथ ही यह योजना धर्म और विज्ञान के बीच की बढती दूरी भी कम कर सकती है । यह योजना ऐसी  सभी समस्याओ का यह एकमात्र अच्छा समाधान है क्योकि यह विध्वंसक परिणामो पर नियंत्रण के साथ साथ सार्थक परिणाम भी देती है । इससे प्रत्येक व्यक्ति का विवेक जागृत होता है तथा आत्मस्वाभिमान भी मजबूत होता है और इन दोनो का जागरण व्यक्ति के चरित्र पर व्यापक प्रभाव डाल सकता है।
पाठकों को समस्याओ की विकरालता को देखते हुए इस समाधान की सार्थकता पर विश्वास नही होगा । सच भी है कि क्या विशालकाय हाथी और चींटी के बीच कोई तुलना संभव है। ऐसे तर्क मे तब तक दम है जब तक हम इन विशालकाय समस्याओ से प्रत्यक्ष टकराव की योजना बनाते हों। हम कही भी टकराने की तो पहल कर ही नही रहे। हम तो सिर्फ निरूद्देश्य स्वतंत्र विचार मंथन कर रहे है जिसमे कोइ टकराव शून्य है और परिणाम प्रभावकारी है।   इस विचार मंथन के माध्यम से हम आपको मानसिक व्यायाम की सलाह दे रहे हैं |  आज तक दुनिया मे शारीरिक व्यायाम के मार्ग बताये गये है । बाबा रामदेव जी ने तो इस दिशा मे का्न्ति ही की है। इसका लाभ भी हुआ ही है । किन्तु अब तक मानसिक व्यायाम की कोई सरल विधि विकसित नही हो पाई है। बिना मानसिक व्यायाम के शान्ति संभव नही है क्योकि दूसरो द्वारा दिये गये प्रवचन उपदेश समाधान  कम और विकृति ज्यादा पैदा कर रहे है। इसलिये वर्तमान परिस्थितियो मे यही मार्ग दिखता है।
इस व्यायाम का  सबसे बडा लाभ यह है कि आपके व्यावहारिक जीवन मे कोई अन्य आपको आसानी से न धोखा दे पायेगा न ही ठग पायेगा। आपके स्वयं  मे नीरक्षीर विवेक की शक्ति विकसित होगी । दूसरी बात यह है कि आपका स्वयं  का आत्मस्वाभिमान भी जागेगा ओर स्वावलम्बन भी । और ये दोनो आपको मानसिक संतोष और शान्ति देगे।
इस व्यायाम की सबसे बडी समस्या यह है कि इससे होने वाले लाभ का अनुभव स्वयं को या तो कभी नही होता या बहुत बाद मे होता है किन्तु यह बिल्कुल निश्चित है कि आपके पडोसी, मित्र, या परिवार वाले आपके व्यवहार तथा मानसिक विकास मे गुणात्मक परिवर्तन अनुभव करेंगे । आपका मन ऐसे व्यायाम की ओर आकर्षित भले ही नही होगा किन्तु इस मानसिक व्यायाम से बहुत लाभ होना है । इसलिये आपको यह व्यायाम करना ही चाहिये।
चरित्र निमार्ण की अन्य सारी प्रकियाएं या शिक्षाये अंततः या तो असफल होगी या घातक  क्योकि जब तक चरित्र निर्माण का उपदेश देने वाले का स्वयं  का चरित्र ही ठीक नही है तब तक सब बेकार है और ऐसा चरित्र कितना ढोंगी है,  पेशेवर है, या यथार्थ यही पता नही। इसलिये अब सामाजिक आपात्काल समझ कर स्वावलम्बी प्रकिया की आवश्यकता है। आशा है कि ऐसे प्रयोग का निश्चित लाभ हमे होगा और यदि इसका लाभ सम्पूर्ण समाज को न भी मिले तो स्वयं को व्यक्तिगत स्तर पर तो होना निश्चित ही है ।


Karpuri Thakur

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