Monday, November 27, 2023

Kannada Rajyotsava 2022

कर्नाटक : उदार चरित्र का विश्वग्राम

     महोपनिषद् में एक सूत्र है, 'उदार चरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम्' जिसका अर्थ निकलता है कि जिस समाज में उदारता व्याप्त होती है, वहां संपूर्ण विश्व समा जाता है। 

     किसी भी भूभाग की वर्तमान संस्कृति उसके इतिहास एवं भूगोल में निहित होती है । कर्नाटक का इतिहास एवं भूगोल दोनों विशिष्ट हैं । उत्तर भारतीय मैदानी इलाकों से भिन्न, कर्नाटक तटीय आरण्यक पठार है । अगर उत्तर भारत ने सिकंदर के आक्रमण को २३०० वर्ष पहले झेला तो ई०पू० तीसरी सदी से ही उडुपी के उदयवरा बंदरगाह से कर्नाटक का अरबों के साथ सामुद्रिक व्यापारिक संबंध रहा। यदि रामायण के पौराणिक नायक प्रभु श्रीराम की सुग्रीव-हनुमान से मित्रता कर्नाटक में हुई तो सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने भी अपना अंतिम समय कर्नाटक के जैन बसदी में बिताने का निर्णय लिया। 

     तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में ही जैनाचार्य भद्रबाहू कर्नाटक आये जिसके चलते आज भी जैन आगमों का सबसे बृहद संग्रह और शोध कर्नाटक के मूडबिद्री में है। जैन संस्कृति ने कन्नड साहित्य के अप्रतिम प्राचीन कविगण पम्प, पोन्न, रन्न आदि को जन्म दिया । एक तरफ मध्ययुगीन इतिहासकाल में प्रवासी बनकर पहुंची अफ्रीकी सिद्दी जनजाति आज यदि कर्नाटक के तटीय क्षेत्र की भाषा, संस्कृति को अपनाकर हिंदुस्तानी नागरिक बन चुकी है, तो दूसरी तरफ आज तिब्बत के बाहर दुनिया के दूसरे सबसे अधिक तिब्बती बैलकुप्पे को अपना घर बना चुके हैं। 

     आदि शंकराचार्य ने एक तरफ १२०० वर्ष पूर्व यदि भारतभर के चार में से एक मठ की स्थापना श्रंगेरी में की तो २०वीं सदी के भारतरत्न भूदान प्रणेता आचार्य विनोबा भावे ने भी अपने छः में ये एक आश्रम की स्थापना बेंगलूरु में की। केदारनाथ, बद्रीनाथ, पशुपतिनाथ के पुजारी पीढी दर पीढी यदि गोकर्ण से आते हैं, तो २१वीं सदी के कंप्यूटर युग में अमेरिकी सिलिकॉन वैली में भी अधिकांश कन्नडिगा मिल जाते हैं। 

     तो तात्पर्य यह है कि कर्नाटक के भूगोल का प्राचीन काल से ही अन्य संस्कृतियों के साथ मधुर संबंध बनाए रखने का इतिहास रहा है। इसी संसर्ग, एक्पोज़र के चलते कर्नाटक आदि काल से ही एक मेल्टिंग पॉट बना हुआ है, जहां प्रवासी होना स्वाभाविक है । ऐसी लंबी, अक्षुण्ण प्रवासी परंपरा के चलते, कर्नाटक में केवल भारत भर से ही नहीं, अपितु विदेशों से भी लोगों का बसना अनवरत चला आ रहा है। 

     १९४७ में भारत के आजाद होती ही, देसी सरकारों के नीतियों के चलते, देश भर में लोगों का आवागमन बढ़ाने गया। नतीजतन, कर्नाटक में भी उत्तर भारतीय मूल के प्रवासियों की संख्या बढ़ने लगी। राजस्थान, गुजरात, सिंध से व्यापार स्थापित करने प्रवासी यदि आये, तो बेंगलूरु, बेलगावी, बीदर आदि में मुगल एवं अंग्रेजों के समय से सैन्य छावनी होने के चलते पंजाब, बिहार, उत्तरप्रदेश आदि से सैनिक भी भारतीय सेना के इन छावनियों में आ बसे। कर्नाटक की सहनशील संस्कृति के चलते वो पीढ़ी यहां खुद भी बसी और अपने मूल निवसी परिवार वालों को भी ला बसाया। 

     उत्तर भारत के कई राज्यों की तुलना में बेहतर प्रशासन, सुरक्षा एवं न्याय व्यवस्था के प्रचलन के कारण भी प्रवासी कर्नाटक में खूब फले-फले। एक संपन्न जमात स्वयमेव ही शिक्षा स्वास्थ्य एवं सुविधा में निवेश करती है । ऐसे में नए नए पेशेवर आयाम खुलते चले जाते हैं और अर्थव्यवस्था में नित्यनूतन संभावनाएँ पैदा होती जाती हैं। 

     १९९१ में नई आर्थिक नीति के बाद तो कर्नाटक में प्रवासियों की संख्या में खूब इज़ाफा हुआ क्योंकि नई नीति के अंतर्गत आईटी/बीटी सूचना एवं जैव प्रौद्योगिकी के अवतरण के चलते कर्नाटक इस उद्योग का केंद्रबिंदु बन गया जिसमें लाखों पेशेवर युवाओं को नौकरी की संभावनाएँ खुल गई। इस इंडस्ट्री को पढे लिखे लोग देने हेतु कर्नाटक में हजारों उच्च कोटि के शिक्षण और स्वास्थ्य संस्थान भी खुलने लगे, जिसके परिणामस्वरूप विश्वभर के विद्यार्थी डाक्टर इंजिनियर आज कर्नाटक में रहते हैं । 

     अब स्थिति यह है कि इन सब विशिष्ट उद्योगों के फलनेफूलने में आवश्यक सर्विस सेक्टर में सेवा प्रदान करने हेतु उत्तर पूर्व समेत समूचे भारत से प्रवासी कर्नाटक के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं। कर्नाटक में प्रवासी आज श्रमिक से लेकर शिक्षाविद तक सभी जगह फैले हुए हैं । कर्नाटक की राजधानी बेंगलूरु वर्तमान में देश का सर्वाधिक विविधतापूर्ण शहर है जहां कि कन्नड भाषी ४५% हैं तो बाकी के ५५% हिंदी, मैथिली, मलयालम, ओडिया, पंजाबी, तमिल, तेलुगु, काश्मीरी, सिंधी, उर्दू, कोंकणी, संथाली, मराठी, मणीपुरी, भोजपुरी, मारवाडी, नेपाली, अंग्रेजी, काबुली, पश्तो, तिब्बती, फारसी भाषा बोलनेवाले। 

     कर्नाटक के विकास में प्रवासियों के योगदान के कारण भी आज यह राज्य मानव सूचकांक में देश के अग्रणी राज्यों के शुमार में आता है । भारत सरकार के कुल राजकीय कोष में करीब १९ लाख करोड रुपये प्रतिवर्ष का सकल घरेलू उत्पाद कर्नाटक देता है। दूसरी तरफ केंद्र को दिये गये हर एक रुपये के एवज में कर्नाटक केवल ४७ पैसे वापस लेता है, जिसके चलते अन्य जरूरतमंद राज्यों पर केंद्र अधिक निवेश कर पाता है । इस दृष्टि से राष्ट्रनिर्माण में भी कर्नाटक की सकारात्मक भागीदारी है।

     तो लब्बोलुआब यह निकलता है कि जो भी संस्कृति उदात्त होती है, दूसरों को अपने में समाहित करने में निःसंकोच होती है, ऐसी संस्कृतियां खूब पनपती है, बशर्ते प्रवासी भी उदार चेतना का परिचय देते हुए स्थानीय संस्कृति के साथ आत्मसात हो जाएं। 

    प्राचीन से अर्वाचीन काल तक, राम-हनुमान से नारायणमूर्ति-ऋषिसुनक तक कर्नाटक एवं प्रवासियों के बीच दूध-शक्कर जैसी उदार चरित एकात्मता ,कर्नाटक को वसुधैव कुटुम्बकम् का उत्तंग बुलंद सनातन नित्यनूतन उदाहरण बनाती है ।

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