INDIA @ 75

 

भारत @75 = त्रिशंकु ?


    त्रिशंकु प्राचीन भारतीय पुराणों के हीरो हैं। कथा के अनुसार जब राजा त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा हुई तो ऋषि विश्वामित्र ने उन्हें तपोबल से ऊपर भेज दिया।  परन्तु स्वर्ग के राजा इंद्र ने उन्हें वापस यह कहकर नीचे ठेल दिया की स्वर्ग में सशरीर प्रवेश वर्जित है। ऋषि विश्वामित्र को इंद्र के इस दुस्साहस पर क्रोध आ गया और उन्होंने त्रिशंकु को वापस पृथ्वी पर गिरने नहीं दिया।  अंततोगत्वा इंद्र और विश्वामित्र के बीच समझौता हुआ जिसके तहत त्रिशंकु स्वर्ग की रचना हुई जिसमें की व्यक्ति जमीं से ऊपर उठ तो जाता है पर आसमां को छूने की मनाही है ।  

     १९४० के दशक में द्वितीय विश्व युद्ध एवं साम्राज़्यवाद के अंत के साथ ही दुनिया भर के कई देश आजाद हो गए, चाहे वह भारत हो, जर्मनी हो, कई अफ्रीकी देश हों, जापान हो, श्रीलंका हो या चीन।  नव स्वतन्त्र देशों ने अलग अलग व्यवथाएं अपनाई। अधिकतर पाश्चात्य देशों ने लोकतंत्र अपनाया, तो अफ्रीकी देश, चीन आदि ने साम्यवाद या अधिनायकवाद अपनाया। भारत ने भी लोकतंत्र अपनाया।  लोकतंत्र दो प्रकार का होता है -लोकतांत्रिक जीवन पद्धति या लोकतांत्रिक शासन पद्धति। 

     प्राचीन भारत के वैशाली के गणतंत्र हों, या अर्वाचीन पाश्चात्य संस्कृति, दोनों में लोकतंत्र जीवन शैली में होता है।  लोकतांत्रिक जीवन शैली में समाज को सर्वोच्च माना जाता है और सत्ता को व्यवस्थापक।  इस मॉडल  में व्यक्ति, परिवार, गाँव/मोहल्ला, जिला, राज्य, राष्ट्र, विश्व -इन सभी अलग अलग इकाइयों को इकाईगत स्वतंत्रता प्राप्त होती है, उनकी जिम्मेदारी तय होती है, कार्यक्षेत्र तय होता है, ताकि व्यवस्था ओवरलोडेड न हो और व्यवस्थापक और व्यवस्थापित के बीच की दूरी बहुत कम हो।  यह परिष्कृत लोकतंत्र होता है जिसमें सत्ता का केन्द्रीकरण नहीं हो पाता और सत्ता अकेन्द्रित होने के कारण अर्थ का भी  केन्द्रीकरण नहीं हो पाता।  नतीजतन समाज कमोबेश सुरक्षित भी होता है, स्वावलम्बी भी, खुशहाल भी, और निरपेक्ष नैतिक भी।  

    दूसरा मॉडल लोकतांत्रिक शासन पद्धति का होता है जिसमें समाज का कोई अलग अस्तित्व नहीं माना जाता है, और सत्ता को ही सर्वोच्च माना जाता है। ऎसी व्यवस्थाओं में व्यक्ति, गाँव, आदि की न कोई भागीदारी होती है, न ही स्पष्ट जिम्मेदारी।  राज्य नामक एकमात्र इकाई पर व्यवस्था की सम्पूर्ण जिम्मेदारी आ जाने से व्यवस्था ओवरलोडेड हो जाती है, सत्ता स्वकेंद्रित हो जाती है, अत्यधिक उपदेश प्रधान हो जाती है, नीति निर्धारक और प्रभावित के बीच की दूरी बढ़ती चले जाने के चलते हमेशा केओस सा दिखता है।

     सरल भाषा में कहें तो सहभागी लोकतंत्र और प्रतिनिधि लोकतंत्र ऎसी दो विधाएँ प्रचलित हैं।  पहली में लोक द्वारा नियंत्रित तंत्र होता है तो दूसरा लोक को नियंत्रित करने का तंत्र। पहले में समाज सर्वोच्च होता है तो दूसरे में सत्ता सर्वोच्च।   

     स्वतन्त्र भारत ने जो संविधान अपनाया, उसकी मूल उद्देशिका की भाषा तो निश्चित रूप से सहभागी लोकतंत्र की तरफ झुकी थी, पर उसके प्रयोजनमूलक या ऑपरेटिव भागों ने प्रतिनिधि लोकतांत्रिक व्यवस्था को जन्म दे दिया।  उदाहरणार्थ, वर्तमान भारतीय व्यवस्था, व्यक्ति के मूल अधिकारों के बाद सीधे राज्य एवं केंद्र के अधिकारों को मान्यता प्रदान करती है।  व्यक्ति के बाद परिवार, गाँव, जिला आदि इकाइयों की प्रशासनिक मान्यता भले है, पर उन्हें कोई विधाई अधिकार प्राप्त नहीं हैं। इस कारण नीति निर्धारण में प्रभावितों की सहमति के स्थान पर बहुमत से निर्णय लेने का प्रचलन प्रारम्भ हो जाता है।  बहुमत अल्पमत के आधार पर नीति निर्धारण करने पर 49=00 v/s  51=100 की स्थिति आ जाती है।  51=सत्ता, अपने आप को सत्य का एकाधिकारी मान लेती है, जिससे नाराज होकर बाक़ी के 49 किसी तरह +2 को अपने तरफ करके खुद सत्ता=सत्य हासिल करने की कवायद में लग जाते हैं । इन सबका नतीजा होता है केओस, जो भारत में आज दिख रहा है। 

     प्राचीन भारत के वैशाली के ग्राम गणराज्य हों, या वर्तमान के अमेरिका, फ्रांस या जापान जैसे देश, जिन्होंने भी सहभागी लोकतंत्र अपनाया, वे पिछले अपने 75 वर्षों की अपेक्षा अगले 75 वर्षों में उन्नति कर गए क्योकि सहभागी लोकतंत्र अपनाते ही व्यवस्था की जिम्मेदारी सभी नागरिकों में बंट गई और व्यवस्था ने सुचारु रूप ले लिया, वहां अपराध घट गए, अर्थव्यवस्था मजबूत हो गई, खुशहाली आ गई। जिन जिन देशों ने सहभागी के स्थान पर प्रतिनिधि लोकतंत्र अपनाया, वहां मानवीय विकास के मानदंडों में समूचे समाज की उन्नति के स्थान पर कुछ प्रतिनिधियों की, कुछ प्रतीकों की उन्नति ने ले लिया।  

     भारत में भी पिछले 75 वर्षों में कुछ ऐसा ही हुआ।  गरीबी, जातिवाद, दलितों की स्थिति, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि में सुधार तो बेशक हुआ, पर यह सुधार समूचे समाज का न होकर, सर्वोदय न होकर, चंद प्रतीकों का हुआ, कुछ लोगों का हुआ। सत्ता के केन्द्रीकरण और जनता की सहभागिता के अभाव में सबसे अधिक ह्रास तो अपराधों की बेतहाशा वृद्धि में हुआ।  भारतीय अपराध ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं की 1950 के भारत में 182 प्रति लाख आबादी अपराध होते थे जो की 2020 के दशक में 382 अपराध प्रति लाख व्यक्ति तक बढ़ गए हैं।  सामान्य सर्वमान्य सिद्धांत है की घटते अपराध से समाज में आर्थिक गतिविधियां भी बढ़ती है, आवागमन भी बढ़ता है, महिला सहभागिता भी बढ़ती है, जिसका नतीजा खुशहाली होती है। संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवीय विकास के वैश्विक सूचकांक में भारत आज 189 देशों में 131वें स्थान पर है।  नार्वे, जिसे 1940 में जर्मनी ने  तहस नहस कर दिया था, वह इसी सूचकांक में आज पहले स्थान पर है।  
 
     @75 में आज भारत 1947 की तुलना में बेशक बेहतर स्थिति में है, पर दुनिया के अन्य देशों की स्थिति में उसे अभी लंबा रास्ता तय करना है। राजा त्रिशंकु जैसे वह जमीन से तो काफी ऊपर उठ गया है, पर आसमान की ऊंचाइयों तक नहीं पहुंच पा रहा है। @75 से आने वाले वर्षों में @100 तक हम भारत के लोग समझ जाएंगे की भारत की खुशहाली, बहुमत के कुछ करोड़ की नहीं, अपितु सभी 140 करोड़ लोगों की खुशहाली में निहित है।  उस दिन यह देश सहभागी लोकतंत्र की तरफ रुख करेगा।  सहभागी लोकतंत्र की उस व्यवस्था में सत्ता विकेन्द्रित हो जाएगी, व्यक्ति, परिवार, गाँव/मोहल्ला, जिला, राज्य, राष्ट्र, और विश्व इकाइयों को इकाईगत नीति निर्धारण के विधाई अधिकार मिल जाएंगे।  किसी अवतार पुरुष पर निर्भरता के स्थान पर सामूहिक प्रयास पर भरोसा आ टिकेगा। 

     स्व-राज की वैसी स्थिति में आज का केऑस एक तारतम्य को जन्म देगा, क्योकि विकेन्द्रित व्यवस्था में कोई इकाई ओवरलोडेड नहीं होती, हर इकाई को अपने क्षमतानुरूप ही कार्य वितरण रहेगा। और जब हर नागरिक किसी न किसी विधाई इकाई का अंग होगा, उसे प्रभावित करनेवाली नीतियों का निर्धारक खुद होगा, तो प्रशासन की गुणवत्ता स्वयमेव कई गुना बढ़ जाएगी।   

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