Wednesday, October 9, 2019

Why RSS fears Gandhi

आरएसएस आज भी महात्मा गाँधी से थर्राता क्यों है?
सिद्धार्थ शर्मा
31 Jan, 2019


https://www.satyahindi.com/opinion/mahatma-gandhi-ideology-haunts-rss-101218.html

चेतना वाले हर जीव, और ख़ासकर मानव का सहज स्वभाव लगातार ज़्यादा से ज़्यादा आज़ादी पाने का होता है। बौद्धिक जमात इसे प्राप्त करने के लिए अहिंसक विधायी उपाय का सहारा लेती है तो भावना प्रधान जमात इसे हासिल करने के लिए हिंसक, बेढब प्रयास करती है।

गाँधी के सपनों का आदर्श समाज न्याय प्रधान था और समाज निर्माण के उनके प्रयास बौद्धिक, अहिंसक और विधायी रहे। दूसरी तरफ़ संघ के सपनों का आदर्श समाज अपनत्व प्रधान था तथा उसके साधन भावनात्मक, उग्र तथा सांगठनिक रहे।

आरएसएस एक सांप्रदायिक संगठन है- सांप्रदायिक यानी किसी ख़ास उपासना पद्धति पर जोर, संगठन यानी सत्ता प्राप्त करने का इच्छुक समूह। गाँधी सामाजिक संत थे- समाज यानी ख़ुद से निर्मित दीर्घकालिक नियमों से प्रतिबद्ध व्यक्तियों का समूह, संत यानी नैतिक बल के बूते लोगों को मनवाने वाला। गाँधी भारत की प्राचीन ऋषि परंपरा के नवीनतम आइकन रहे तो संघ आधुनिक पाश्चात्य राज्यसत्ता का भारतीय संस्करण।

सामाजिक संत की प्राथमिकता होती है कि तात्कालिक समाज की ज्वलंत समस्याओं का निराकरण करने के बाद उसे आदर्श की ओर ले जाने का प्रयास करना। गाँधी ने इसीलिए पहले स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रयास किया तथा स्वतंत्र भारत के लिए स्वराज का आदर्श रखा। सांप्रदायिक संगठनों की प्राथमिकता उपासना पद्धति होती है और उसे लागू करने का माध्यम सत्ता। संघ ने इसीलिए आज़ादी के आंदोलन के समय बड़े स्तर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया तथा आज़ादी के बाद सुराज्य की स्थापना के लिए सत्ता प्राप्ति का प्रयास।

गाँधी की नैतिक आभा
स्वाभाविक है कि आज़ादी की लड़ाई जैसे सामाजिक आपातकाल के दौरान गाँधी सरीखे सामाजिक संतों का प्रभाव अधिक रहा बनिस्बत आपदा के वक्त पूजा-पाठ को प्रोत्साहन देने वाले आरएसएस का। स्वतंत्रता के तुरंत बाद भी स्वतंत्रता सैनिक के नाते गाँधी की नैतिक आभा संघ की छवि से कई गुना अधिक रही होगी। ऊपर से स्वतंत्र भारत का जनमानस अब गाँधी के सपनों के आदर्श, स्वराज की ओर अग्रसर होने को तैयार था। वैसी स्थिति में सत्ता के माध्यम से अपनी उपासना पद्धति लागू करने का संघ का आदर्श वंध्यापुत्र बन के रह जाता। जो भी हो, किसी फ़िरकापरस्त, संघ के फ़ैन व्यक्ति ने गाँधी हत्या को अंजाम दिया।

बाद में संघ ने सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक संगठनों के माध्यम से भारत में ख़ास उपासना पद्धति और उसके प्रतीकों का काफ़ी प्रचार जारी रखा। विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, ठाकुरदास बंग जैसे ग़ैर-राजनीतिक अपवादों को छोड़ दें तो आज़ाद भारत के शुरुआती दिनों की शासन-व्यवस्था ने भी जाने-अनजाने गाँधी के स्वराज के स्थान पर सुराज्य का मार्ग अपनाकर संघ के आदर्श को और हवा दे दी। इसी कारण संघी राजनीति धीरे-धीरे सत्ता पर भी काबिज होती गई।

संघ की चूक
लेकिन एक चीज़ में संघ चूक कर गया। गाँधी और गाँधी विचार के बीच भेद करने में। गाँधी एक मर्त्य व्यक्ति नहीं था, बल्कि नैसर्गिक विकास सिद्धांत का प्रतीक, एक विचार था। जैसे ईसा, बुद्ध आदि ने शाश्वत सत्य की मानव सुलभ परिभाषा करके एक नयी कालजयी व्यवस्था को जन्म दिया, वैसे ही गाँधी ने एक सभ्य समाज-व्यवस्था का मॉडल दिया, जो सफल भी था, लोकप्रिय भी, सर्वमान्य भी, प्राचीन भारतीय संस्कृति के वसुधैव कुटुंबकम् का जीवंत प्रतीक भी।

संघ का समाज मॉडल सर्वमान्य नहीं है, भारतीय संस्कृति के एक संत् विप्रा बहुधाः वदन्ति के विपरीत है, आधुनिक मध्यपूर्वी इसलाम के एकविध उपासना पद्धति से अधिक प्रभावित है। तो मृत्यु के सात दशक बाद भी गाँधी से दहशत खाना संघ के लिए स्वाभाविक ही है।

गाँधी ऐसे हुए अमर
ध्यान देने की बात यह है कि अपने मौलिक विचारों, उन विचारों को आचरण में लाने, समाज के तात्कालिक दर्द का निवारण करने, और सबसे महत्वपूर्ण, सत्ताबल के स्थान पर नैतिकबल के सहारे एक आदर्श न्यायसंगत व्यावहारिक व्यवस्था की वकालत करने के चलते गाँधी अमर हो गए। जिस दिन भारत की राजनीति उनके सुझाए स्वराज्य के मॉडल पर चल देगी, उस दिन सत्ता के माध्यम से उपासना पद्धति लागू करने के पैरोकारों के पैरों तले ज़मीन खिसक जाएगी। लेकिन तब तक, संघ की लोकप्रियता बढ़ती रहेगी क्योंकि सामान्य जनमानस में सांस्कृतिक विषयों पर अपार श्रद्धा है, और सांस्कृतिक प्रोपगेंडा में संघ आज़ादी से पहले भी अव्वल था, आज तो अथाह संसाधन के साथ अजेय भी है।

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