LS 2019 : BJP banks on Nationalism

बीजेपी को विकास नहीं राष्ट्रवाद का सहारा
सिद्धार्थ शर्मा
12 Mar, 2019


https://www.satyahindi.com/lok-sabha-election-2019/bjp-loksabha-election-2019-will-fight-on-nationalism-101711.html

उघरहिं अंत न होई निबाहू, श्री रामचरितमानस में लिखी इस पंक्ति के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि ठग को साधु के वेश में देखकर, वेश के प्रताप से जग कुछ समय तक तो पूजता है, पर अंत में ठग की कलई खुल ही जाती है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भारत की जनता के सामने सभी राजनीतिक दल अपने आप को साधु और अन्य दलों को ठग के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। ऐसे में जनता ठग और साधु में भेद कैसे करेगी, लोकसभा चुनाव के नतीजे यही बताने वाले हैं।
एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी+26 दलों का एनडीए गठबंधन है, तो दूसरी तरफ़ क्षेत्रीय दलों का यूपीए गठबंधन जिसमें कांग्रेस भी शामिल है। कुछ राज्यों में अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है कि सीधे-सीधे एनडीए बनाम यूपीए की टक्कर होगी या एनडीए के खिलाफ़ प्रतिपक्ष बिख़रा रहेगा।

पुलवामा हमले से मिली संजीवनी
पुलवामा प्रकरण से पहले मोदी मैज़िक निश्चित रूप से ढलान पर था क्योंकि विमर्श बेरोज़गारी, रफ़ाल सौदे में गड़बड़ी, नोटबंदी, जीएसटी, किसानों की बदहाली, दलितों पर अत्याचार, राम मंदिर न बनने आदि पर केंद्रित था, जिन पर मोदी सरकार वास्तव में नाकाम रही है। लेकिन फ़रवरी में पुलवामा में हमला हो गया और इससे मोदी सरकार को लगा कि उसे संजीवनी मिली है।

हालाँकि पुलवामा के मास्टरमाइंड मौलाना मसूद अज़हर को बीजेपी सरकार ने ही भारत की जेल से रिहा करके अफगानिस्तान पहुँचाया था, पर पुलवामा के वीभत्स्कारी हमले के बाद प्रधानमंत्री मोदी को अपना 56 इंची सीना भांजने का मौक़ा मिल गया।

पुलवामा हमले के 13 दिन बाद भारतीय वायुसेना ने बालाकोट में जैश-ए-मुहम्मद के आतंकवादी ठिकानों को ध्वस्त कर दिया। विश्वभर की सभी पेशेवर सेनाएँ दुश्मन के एसेट्स तथा कमांड एंड कंट्रोल की क्षमता को हानि पहुँचाने को ही सफलता का मापदंड मानती हैं और भारतीय वायुसेना ने भी वही पेशेवर काम किया।

मीडिया और सरकार की जुगलबंदी
लोकप्रियता के पायदान पर फिसलती हुई बीजेपी को वायुसेना की कार्रवाई में चुनावी लाभ की सुगंध आई और सरकार ने बालाकोट में मारे गए आतंकवादियों की संख्या को प्रमुखता देने की लाइन ले ली। देखा-देखी टीवी एंकरों ने भी मारे गए आतंकवादियों की संख्या का प्रचार शुरू किया और अधिकाँश प्रिंट मीडिया भी उसी भेड़चाल में मिल गया।

2014 के अधिकाँश मोदी-बीजेपी समर्थक, चाहे वे प्रत्यक्ष हों या प्रछन्न, उनकी राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ चुनावों में बीजेपी की हार के बाद की महीनों से चली आ रही रक्षात्मकता रातों-रात आक्रामकता में बदल गई। अगले कुछ ही घंटों में बदला लेने की मोदी की क्षमता पर कसीदे बनने लगे और बीजेपी एवं बीजेपी समर्थकों के तेवर भी तेज़ी से बदल गए।

वायुसेना की कार्रवाई के बाद रातों-रात देश भर में युद्धोन्माद का जैसा परचम लहरा दिया गया। लेकिन सब यह भूल गए कि पाकिस्तान परमाणु शस्त्र संपन्न देश है और उसकी प्रतिक्रिया अप्रत्याशित भी हो सकती है। राजनीति में कोई भी स्थिति स्थाई नहीं होती और दो दिन के भीतर ही भारतीय पायलट अभिनन्दन को पाकिस्तान में बंदी बनाए जाने की ख़बरों ने बीजेपी के तेवर में कंधार सरीखी थर्राहट ला दी। कंधार हाईजैक के समय भी भारत में बीजेपी की सरकार थी और आक्रामक छद्म राष्ट्रीयता बनाम आक्रामक वास्तविक आतंकवाद के सामने सरकार के घुटने टेकने का सा पिद्दीपन अभिनन्दन मामले में भी दिखने लगा।

इजराइल को अपना आदर्श मानने वाले यह भूल गए कि इजराइल दुश्मनों से कब्जे से जबरन अपने नागरिक छुड़ाता है, जैसे 1976 का ऑपरेशन एंटेब्बे। अभिनन्दन मामले में बीजेपी सरकार जिनीवा कन्वेंशन के हवाले से पाकिस्तान से अभिनन्दन की वापसी की गुहार लगाती प्रतीत हुई।
जिस बीजेपी के अनुसार उसने 400 आतंकवादियों को पाकिस्तान में घुसकर मार गिराया था, दो दिन बाद वही बीजेपी अपने एक सैनिक को अपने बलबूते पाकिस्तान से रिहा करने में नाकाम रही जिसका पूरा फायदा पाकिस्तान ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठाते हुए मीडिया की चकाचौंध के बीच भारत को अभिनन्दन लौटा दिया।


जले पर नमक अंतर्राष्ट्रीय और कुछेक भारतीय मीडिया ने तब छिड़का जब बालाकोट में किसी भी आतंकवादी के हताहत न होने की ख़बरें भी सामने आईं। बालाकोट से लेकर अभिनन्दन प्रकरण ने दो-चार दिनों में ही बीजेपी तथा उसके समर्थकों की सेना की बहादुरी को भुनाने की परजीवी मानसिकता का उदाहरण प्रस्तुत कर दिया।

राष्ट्रीयता ही चुनावी नारा बचा
बावजूद इसके, 2019 में बीजेपी+मोदी+गोदी मीडिया+समर्थकों के लिए राष्ट्रीयता ही एकमात्र चुनावी नारा रहेगा क्योंकि मंदिर, कालाधन, अच्छे दिन, किसान, पंद्रह लाख, गाय-गोबर, धारा 370, अखण्ड भारत आदि में विफलता के चलते जनता का इन विषयों से मोहभंग हो चुका है। ऐसे में राष्ट्रीयता की भावना को भुनाने के अलावा बीजेपी के पास कोई दूसरा चारा नहीं बचा दिख रहा है।

प्रश्न यह उठता है कि चुनावों के मौसम में भारतीय जनता का बहुमत राष्ट्रवाद के भावुक नारे में कितना बहेगा और कितना नहीं। इसका पहला उदाहरण 3 मार्च की पटना रैली में दिखा जहाँ नीतीश प्रशासन के पुरजोर प्रचार के बावजूद प्रधानमंत्री की रैली फ़्लॉप रही। उसके बाद हो रही चुनावी रैलियों में मोदीजी के भाषणों में आक्रामकता बढ़ती नज़र आ रही है तथा वह एक प्रधानमंत्री की नपी-तुली भाषा कम और फ़िल्मी हीरो जैसी दंगली भाषा का उपयोग अधिक कर रहे हैं, क्योंकि राष्ट्रीयता की भावुकता ही 2019 में बीजेपी का अंतिम अस्त्र है।

बीजेपी नेता येदियुरप्पा का फूहड़ बयान कि पुलवामा प्रकरण के बाद के हालात से बीजेपी को चुनावी लाभ होगा, इससे जनता में यह भी सन्देश गया कि बीजेपी अब अपने बूते चुनाव जीतने का माद्दा नहीं रखती, उसे दूसरों के पराक्रम और तीसरे की हानि में ही गिद्धभोज का लाभ होने का इन्तजार रहता है। मनसे सुप्रीमो राज ठाकरे ने यहाँ तक कह दिया है कि लोकसभा चुनाव में जीत के लिए पुलवामा की तरह एक और घटना घट सकती है। मनसे की ओर से ऐसा बयान आना यह बताता है कि बीजेपी इन चुनावों में काफ़ी भयभीत है।

संगठित हो रहा है ग़ैर बीजेपी वोट
बीजेपी का पाला गणित से पड़ा है।  2014 में ग़ैर बीजेपी दलों को मिला जो 69 प्रतिशत वोट विघटित था, वह इस बार कई राज्यों में संगठित हो रहा है। किसान, युवा, दलित, महिला, अल्पसंख्यक, बौद्धिक वर्ग के कई वोटर, जिन्होंने 2014 में मोदी में विकास पुरुष की छवि देखी थी, उनका पिछले पांच वर्षों का अनुभव खट्टा रहा है क्योंकि वादे के अच्छे दिन किसी के भी नहीं आए।

बीजेपी के कोर वोटर भी व्यक्तिगत वार्तालापों में यह खुलकर मानने लगे हैं कि पिछले पांच वर्षों में केवल यह सुकून मिला कि सत्ता उनके पास है, बाक़ी देश को कोई गुणात्मक फायदा नहीं हुआ।

औसत भारतीय की असुरक्षा बढ़ी
भारत का औसत व्यक्ति शांतिप्रिय होता है तथा अव्यवस्था एवं खलबली से घबराता है। 2014 में बीजेपी को वोट अव्यवस्था से व्यवस्था पर लाने और अशांति से शांति स्थापित करने की मोदी के व्यक्तित्व की क्षमता वाली बनाई गई छवि के चलते मिले थे। परन्तु भारत पिछले पांच वर्षों में अधिक बेचैन हुआ है। हिंसा, खेती, व्यापार, रोज़गार, आमदनी, आदि सब मानदंडों पर औसत भारतीय की असुरक्षा बढ़ी है।

मोदी अपनी छवि के अनुरूप खरे नहीं उतरे यह हर कोई मानता है चाहे बीजेपी हो, ग़ैर बीजेपी हो, या तटस्थ। अंतर केवल इतना है कि बीजेपी इस विफलता के लिए नेहरू से लेकर आम आदमी को ज़िम्मेदार मानती है, ग़ैर बीजेपी दल मोदी के इरादों को दोष देते हैं तो तटस्थ विश्लेषक इसका कारण मोदी की तानाशाही प्रवृत्ति के फलस्वरूप बनी अलोकतांत्रिक नीतियों को मानते हैं।

क्या रहेगा वोटर का रुख
बावजूद इसके, यह मानने का पूरा आधार है कि चुनावों के द्विकोणीय ध्रुवीकरण की स्थिति में वोटर जबरन एक या दूसरे के पाले में जाने हेतु मजबूर होगा क्योंकि उसके सामने विकल्प दो ही होंगे, बीजेपी या ग़ैर बीजेपी। ऐसी स्थिति में यह संभव है कि ऐसे वोटर जिनका बीजेपी से मोहभंग हो चुका है, ग़ैर बीजेपी कैम्प की और झुक जाएँ, तो वहीं यह भी संभव है कि ग़ैर बीजेपी वोटर राष्ट्रवाद की भावना में बहकर बीजेपी की ओर रुख कर दें।

इन दोनों संभावनाओं के मद्देनजर, बहरहाल बड़े राज्यों का ताज़ा परिदृश्य यह उभरता दिख रहा है कि बीजेपी को देश में औसत 35% वोट तथा उप्र, महाराष्ट्र, बिहार, मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात जैसे उसके पारम्परिक गढ़ में 40%+ तक वोट हासिल हो सकते हैं।

विपक्षी एकता सूचकांक तथा चुनाव पूर्व गठबंधनों के वर्तमान परिदृश्य में, जहाँ तक सीटों का सवाल है, बीजेपी के इन गढ़ों में एनडीए को उप्र में 25, महाराष्ट्र में 30, बिहार में 25, मप्र में 20, राजस्थान में 15, छत्तीसगढ़ में 5, गुजरात में 20, कर्नाटक में 15, आदि को मिलाकर देशभर में 250 सीटें जीतने की संभावना प्रबल दिखती है, जो कि 2014 में मिली 336 सीटों से 86 सीटें कम है। दूसरी ओर विपक्ष को 290 सीटें मिल सकती हैं जिनमें मुख्यतः उप्र 55, बंगाल 35, तमिलनाडु 35, पूर्वोत्तर 15, केरल 15 और अन्य राज्यों से आने की संभावना है।

जहाँ तक अगली लोकसभा में सरकार के गठन का मामला है, इसमें क्षेत्रीय दलों की भूमिका प्रमुख रहेगी इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए।
लब्बोलुआब में, 2014 और 2019 में महत्वपूर्ण अंतर यह है कि 2014 में बीजेपी के औसत 20% चरमपंथी हिंदू वोटबैंक में 15% अतिरिक्त वोट मोदी के विकास पुरुष की छवि के चलते जुड़े। विकास पुरुष नायक होता है, विष्णु जैसा समन्वयकारी होता है। लेकिन विकास तो आया नहीं कि उल्टे अभिनंदन भी बमुश्किल रिहा हुआ।

समन्वयक नहीं विध्वंसक साबित हुए!
पाँच साल तक मोदी जी की नीतियाँ भी उनके 20% हिंदू वोटर के अनुरूप ही गाय, गोबर, मंदिर, छप्पन इंच, भाषण, उपदेश से ओतप्रोत रहीं। दलित, पिछड़ा, अल्पसंख्यक, बौद्धिक, व्यापारी आदि के प्रतिकूल रहीं जिसके चलते 2014 के 15% अतिरिक्त वोटर को अब उस छवि में विष्णु जैसा समन्वयक नायक कम और शिव जैसा विध्वंसक दंडनायक अधिक प्रतीत होने लगा है।

और शिव जैसे उग्र भगवान को भक्त अपने घर पर सत्यनारायण पूजा में आह्वान करने के बदले दूर कैलास जाकर ख़ुद परिक्रमा करना अधिक श्रेयस्कर मानते हैं।

Comments

Popular posts from this blog

Media : Birth, Growth, Present & Future Challenge by AI

Crime Prevention

Trump Wins USA 2024