आप जैसा कोई मेरी जिन्दगी में आए
इतिहास गवाह है कि कालखण्ड के कुछ पड़ाव ऐसे होते हैँ, जिसमें विचारों को क्रियारूप देना कालपुरुष की माँग बन जाती है । ऐसे में क्रिया प्रारम्भ करने से पहले गम्भीर चिन्तन करना आवश्यक होता है, क्योंकि बिना सोचे समझे प्रारंभ की गई क्रिया अक्सर घातक होती है ।
सन 2011 में भारत के बुद्धिजीवियों के समक्ष कालपुरुष ने ऐसी ही चुनौती रखी । अनायास प्रारम्भ हुए जनलोकपाल आन्दोलन को भारत की जनता का आशातीत समर्थन मिल रहा था । लम्बे समय से चले आ रहे विचारकों के तर्क -की शासन व्यवस्था पर नागरिक समाज का दबाव स्वस्थ लोकतंत्र का प्रतीक है -मूर्त रूप लेने लग गए थे ।
प्रायः यह देखा गया है कि जब भी विचारकों के निष्कर्ष मूर्त्त रूप लेने लगतें हैं, तब बुद्धिजीवी वर्ग उसका विरोध प्रारम्भ करता है क्योँकि यदि सही निष्कर्ष मूर्त रूप ले लें, तो बुद्दिजीवियों की आजीविका ही खतरे में पड़ जाती है, बुद्धिजीवी तो हमेशा समस्या के विश्लेषण से ही आजीविका चलाते आये हैँ । यदि समस्या का स्थाई समाधान हो जाय तो उनकी आफत आ जाती है ।
2011 के उत्तरार्ध में भारत में ऐसी ही स्थिति थी । विचारक प्रसन्न थे कि शासन व्यवस्था पर नागरिक समाज हावी हो रहा था, वहीं बुद्धिजीवी भयभीत थे की यथास्थति में बदलाव उनकी रोजीरोटी पर कुठाराघात करेगा । बुद्धिजीवी वर्ग ने 2011 के उस सामूहिक इच्छाशक्ति में मीनमेख भी निकालना प्रारम्भ किया एवं उसे भटकाने का भी सघन प्रयास किया ।
राजनीतिक व्यवस्था ने भी इनका भरपूर सहयोग लिया क्योंकि यदि नागरिक समाज सफल हो जाता तो वर्तमान राजनीति लंबे समय के लिए अपंग हो जाती । इसी कालखण्ड ने भारत में विचारक-कर्ता बनाम बुद्धिजीवी-धूर्त का स्पष्ट वर्गीकरण भी कर दिया ।कई विचारक कर्ता बने और कई बुद्धिजीवी धूर्त सिद्ध हुए । विचारक-कर्ता की जोड़ी समाज में राजनीति के आदर्श रूप 'स्वराज' को मूर्तरूप देने का प्रयास करने लगी एवं बुद्धिजीवी-धूर्तों की जोड़ी यथास्थिति बनाए रखने हेतु स्वराज को अव्यावहारिक सिद्ध करने में एड़ीचोटी एक करने लगी ।
भारत का औसत नागरिक चूंकि शरीफ होता है, अतः विचारक-धूर्त के बीच भेद कर पाना उसके लिये कठिन होता है । नतीजा हुआ की 2012 के प्रारम्भ तक भारतीय समाज भ्रमित हुआ एवं राजनीति पर समाज का अंकुश ढीला पड़ा । ऐसे समय में विचारक-कर्ताओं ने गूढ़ चिंतन कर यह तय किया कि चूँकि भारत में वर्तमान में तानाशाही नहीं लोकतंत्र है, तथा विकृत लोकतंत्र में भी चुनाव होते हैं, एवं चुनाव सामूहिक इच्छाशक्ति के प्रतीक भी होते हैं, ऊपर से भारत की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था क्योंकि चुनाव के समय सबसे अधिक भेद्य अर्थात कमजोर होती है, अतः वर्तमान राजनीति को चुनौती देने का सबसे उचित अवसर भी चुनाव ही होते हैं ।
फिर भी कटु सत्य यह भी है कि आम चुनाव में सीधे कूदने पर आम मतदाता उनपर सहसा विश्वास नहीं करता । अतः आम चुनाव से पूर्व इन विचारक-कर्ताओं के लिये आवश्यक था कि मतदाता के मन में स्वराज की एक बुनियादी ही सही, पर तस्वीर तो बनाएँ । इसी क्रम में इन विचारकों-कर्ताओं की टोली ने एक राजनीतिक दल का भी निर्माण किया एवं एक छोटे किंतु महतवपूर्ण राज्य में चुनाव भी लडा ।
चूंकि ये विचारक-कर्ता स्वराज अवधारणा से ओतप्रोत थे, अतः उनकी रुचि इसमे नहीं थी कि कैसे सत्ता हासिल की जाए, उनकी रुचि इसमें थी कि कैसे सत्ता को सीधे समाज के हाथों में सौंप दिया जाए । इसी वैचारिक निष्ठा के चलते आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में अपनी सरकार की तिलांजलि दी । प्रथम दृष्टया यह कदम भले अव्यावहारिक लगे, पर यह कदम स्वराज अवधारणा के पूर्णतः अनूरूप आचरण था ।
2014 के लोकसभा चुनाव में आप ने भारतभर में वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के विरुद्ध सशक्त चुनौती पेश की है । संख्या की दृष्टि से आप के कितने सांसद निर्वाचित होते हैं, यह तो निकट भविष्य में पता लग ही जायेगा, मगर भारत भर में आप के पक्ष में पड़े मत यह प्रमाणित कर देंगें कि भारतीय समाज में स्वराज की उत्कट इच्छाशक्ति जागृत भी है एवं कऱोडों की संख्या में भी । आप का यही सबसे बड़ा योगदान होगा कि उसने अल्पकाल में स्वराज विचार को करोड़ों लोगों के मन में जगा दिया । रही बात सांसदों की तो, जब एक चीँटी हाथी की सूंड में घुसकर नाकोदम कर सकती है तो दर्जनभर आप के सांसद तो वर्तमान भारतीय उद्दंड संसद पर अंकुश बनने हेतु पर्याप्त हैं ।
2014 में भारतीय राजनीति ने एक निर्णायक करवट ली है । 16 मई 2014 को नतीजे कुछ भी हों, वर्तमान भारतीय राजनीति की उलटी गिनती प्रारम्भ हो जायेगी, क्योंकि करोड़ों की संख्या में स्वराजनिष्ठ मतदाता भविष्य में यह सुनिश्चित कर देंगे कि सत्ता-केंद्रीकरण माडल के दिन अब लद गए एवं विकेन्द्रित-सत्ता रूपी सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन के कालखण्ड का प्रारम्भ हो रहा है ।
यही आप की देन है हम को ।
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