Saturday, April 27, 2013

LITERATURE


---साहित्य.......समाज

     सामान्यतः ऐसी मान्यता है की साहित्य समाज का दर्पण है । यदि इस तर्क तो मना जाय तो यह साबित होता है की साहित्य का अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । क्योंकि दर्पण तब तक उपयोगहीन होता है जब तक उसपर कोई बाह्य आकृति का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता । साहित्य का शाब्दिक अर्थ होता है -समाज के सहित चलनेवाला । ऋग्वेद का स्तोत्र है "यावद ब्रह्म विष्ठितं तावति वाक्" अर्थात वाणी की व्यापकता ब्रह्म की व्यापकता के सामान है । वाणी की शक्ति ही साहित्य है । 


     विश्व को तीन शक्तियां संचालित करती हैं । पहली शक्ति विज्ञान की है, जो इसे रूप देती है । दूसरी शक्ति अध्यात्म की है जो जीवन को आकार देती है, और तीसरी शक्ति साहित्य की है जो दुनिया को समयोचित मार्गदर्शन करती रहती है । जब शांति की आवश्यकता हो तो शांति, आशा की जरूरत हो तो आशा, उत्साह की मांग हो तो उत्साह तथा क्रांति के समय क्रांति । 


     वर्तमान में उपासना-प्रधान धर्म तथा संकुचित-राजनीति के दिन लद गए हैं । अपने समय में इन दोनों ने समाज को जोड़ने का काम किया था, पर आज ये दोनों समाज को तोड़ने की भूमिका में आ गए हैं । ऐसे में मानवता के लिए इन दोनों की उपयोगिता समाप्त हो गई है । अतः भविष्य में ये दोनों विलुप्त होंगें । भविष्य में केवल विज्ञान और अध्यात्म टिकेंगे क्योंकि विज्ञान भौतिक जगत की यथार्थ व्याख्या करता है तथा अध्यात्म सूक्ष्म जगत का । ऐसे में साहित्य वो सेतु बनेगा जो मानवता को इन दोनों से जोड़े रखेगा ।



     ऐसे में स्वाभाविक प्रश्न उठता है की साहित्य कैसा हो ? साहित्य पुराने शब्दों में नए अर्थ भरने वाला हो । गीता की तरह नित्यनूतन भी और अर्थघन भी । साहित्य हमेशा प्रसंगोचित हो पर प्रसंग नियंत्रित कभी नहीं । साहित्य समाज के थर्मामीटर जैसा हो - तटस्थ, पर रोग मुक्ति में सहायक । वह खेल का पात्र न होकर दृष्टा मात्र हो । साहित्य यदि शुद्ध यथार्थवादी होगा तो कालबाह्य हो जाएगा इसीलिए उसे आदर्शवादी होना चाहिए, जिससे आनेवाला कल उसे अपने समय का क्रांतदर्शी कहे । जनता में उचित रूचि का प्रस्फुटन तथा भविष्यकाल का सम्यक चित्रण साहित्य का प्रमुख दायित्व तथा प्रथम उद्देश्य होना चाहिए ।

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