Tuesday, March 27, 2012

Parliament Censure & Team Anna


-------------------मोर-मोर मौसेरे भाई 

     भारतीय संसद   ने एकमत से बिना नाम लिए टीम अन्ना के विरुद्ध  चेतावनी प्रस्ताव मंजूर किया है | हाल ही में एक सार्वजनिक सभा  में टीम अन्ना ने लोकपाल बिल मामले में सांसदों के आचरण को चोर की दाढी में .... कहा तो श्रोताओं ने ...... तिनका का नारा दिया | हमारे सांसदों  को यह नागवार गुजरा कि उनके बीच 150 से अधिक अपराधियों को चोर कहा जाय | प्रश्न है कि मोर  को मोर  नहीं तो क्या मुर्गा कहा जाय ? यह भी एक चिंतन का विषय है कि 540 संख्या वाले सदन को 150 संख्या वाले सांसद कैसे संचालित कर रहे हैं, वरना जो करीब 400  सांसद  बेदाग़ हैं,  वे दागियों के पक्ष में कैसे हो गए ?  गाय को पूँछ हिलाते हुए तो  देखा है  पर यहाँ तो पूँछ ही गाय को हिला रही है | संसद के विभिन्न राजनैतिक दल एक दूसरे को चोर उचक्का कहें तो क्षम्य, पर लोक कुछ कहे तो अवमानना, हमारा बच्चा मुन्ना, आपका बच्चा जनसंख्या, यह समझ से परे है |

     ऐसे चरित्र वाले संसद से हम मजबूत लोकपाल क़ानून की अपेक्षा कैसे कर सकते है जो चार दशकों से तो तंत्र के भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है पर सड़क पर कही गई बात पर चालीस  मिनट में लोक पर  निंदा प्रस्ताव ले आती  है | अब तो दो ही रास्ते हैं -या तो संसद का चरित्र बदले या संसदीय लोकतंत्र का प्रारूप ही बदले | आजादी के बाद से वर्तमान तक का रिकार्ड तो यही कहता है कि संसद से चरित्र के बदलने की अपेक्षा करना मृगमरीचिका है | पहले इक्का-दुक्का  सांसद दागी थे, फिर उनकी संख्या बढी, अब तो वे ही उसके संचालक बन गए हैं, हद हो गई जब उनकी सच्चाई कहने वाले को ही दण्डित करने की योजना बन रही हो |

     तानाशाही में तो कोई इकाई सर्वोच्च बन सकती है, पर लोकतंत्र में इकाइयां एक-दूसरे की पूरक हुआ करती हैं | इन सांसदों को यह भी नहीं पता कि भारत में लोकतंत्र है और लोकतंत्र में विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका एक दूसरे की पूरक हैं | ऐसा प्रतीत होता है कि सांसदों ने संसद सर्वोच्च की गलतफहमी में अपनी चिंतन शक्ति खो दी है | इन्हें लोकतंत्र की पाठशाला में ककहरा सीखने की जरूरत है | इन सांसदों को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 'हिंद स्वराज' पढ़नी चाहिए जिसमें बापू ने संसद को गणिका एवं बाँझ कहकर संबोधित किया है |

     संसदीय शासन प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह होता है कि लोक का प्रतिनिधि दबाव के अभाव में उच्चशृंखल  हो जाता है | और दबाव तानाशाही का, हिंसा का, प्रथम चरण होता है | लोकतंत्र का सही अर्थ "लोक का तंत्र" होता है जो दुर्भाग्य से वर्तमान में "संसद सर्वोच्च" नारे के कारण "लोक के लिए तंत्र" की विकृत परिभाषा में तब्दील हो गया है | आज तंत्र ईमानदारी से यह मान बैठा है कि लोक को काबू में रखना ही उसका पवित्र कर्तव्य है | ऐसे में आश्चर्य नहीं कि अपराधी, भ्रष्टाचारी वर्ग पहले तो तंत्र में घुसपैठ बना ले और अंततोगत्वा स्वयं तंत्र बन बैठें |

     तानाशाही  शक्ति के केन्द्रीकरण को कहते हैं और लोकतंत्र शक्ति के अ-केंद्रीकरण को | 21 वीं सदी का भारतीय इतना तो योग्य हो ही गया है कि अपना भला बुरा खुद समझे | क्यों हम प्रतिनिधि लोकतंत्र के माडल को अनंत काल तक  ढोते रहें ? क्यों न सभी संवैधानिक अधिकार मूलभूत इकाई (ग्राम सभा, मोहल्ला सभा) के पास हों ? क्योंकि संविधान में  संसद से ऊंची तो लोक-संसद होती है, -"हम भारत के लोग" |  

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Karpuri Thakur

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