5 state election results

----- 5 राज्यों  के विधान सभा नतीजों 
का निहित     
     
     मनुष्य की आकांक्षा एवं उसे पूरी करने के हेतुओं में अंतर रहता है | मनुष्य के स्वभाव में ही स्वतंत्रता है | उस स्वतंत्रता की राजनैतिक/सामाजिक व्यवस्था ही स्वराज्य है | वेदवाक्य भी है, "यतीमहे स्वराज्ये" | स्वराज्य का मार्ग लोकतंत्र से होकर गुजरता है | स्फूर्त लोकतंत्र स्वराज्य की ओर झुका होता है और मंद लोकतंत्र तानाशाही की ओर | भारत का नागरिक भी स्वराज्य चाहता है पर वर्तमान भारतीय संविधान लोकस्वराज्य का दस्तावेज न होकर लोकतंत्र का घोषणापत्र मात्र है | इसमें केंद्र  के बाद राज्य को ही अंतिम इकाई मान ली गई है | स्थानीय निकायों, ग्राम सभा, परिवार आदि को स्वायत्त अधिकार नहीं हैं | 

     तो स्वाभाविक ही है कि चुनावों में जनमानस अपनी स्वराज्य की इच्छा वर्तमान में उपलब्ध सबसे छोटी इकाई के प्रति ही जाहिर कर सकता है | क्योंकि शासित-शासक की दूरी जितनी कम होती है, व्यवस्था उतनी ही अधिक सुचारू । शासित-शासक की दूरी घटाने के मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति के परिप्रेक्ष्य में पांच राज्य (उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड ,पंजाब, गोआ, मणिपुर) के करीब 700 सीटों के नतीजे देखने चाहिए | 

     इन चुनावों में जहां दोनों राष्ट्रीय दलों (कांग्रेस 112,भाजपा 157) को साझा केवल 1/3 से कुछ अधिक सीटें ही मिली, वहीँ क्षेत्रीय दलों को 2/3 से कुछ ही कम | अर्थात भाजपा का धर्म प्रधान  राज्य का विचार तथा कांग्रेस का वंशवाद/व्यक्ति  प्रधान  शासन का विचार जनता ने नकार दिया क्योंकि दोनों ही स्वराज्य की इच्छा के विपरीत हैं | दूसरी ओर भले ही आदर्श स्वराज्य की स्थिति हमारे संविधान में वर्णित न हो, पर शासित-शासक की न्यूनतम दूरी के वर्तमान में उपलब्ध सर्वाधिक मान्य व्यवस्था (क्षेत्रीय दलों) को आशातीत सफलता मिली है | 

     इन चुनावों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि जहां भारतीय जनमानस में स्वराज्य की आकांक्षा बलवती है, वहीँ उस स्वराज्य को चरितार्थ करने के दस्तावेजों का अभाव है | आकांक्षा एवं हेतुओं के इस अंतर की स्थिति में जनता ने शासित-शासक की दूरी न्यूनतम करने का जो भी उपलब्ध साधन मिला, उसका उपयोग किया | 

     हालांकि यह भी तथ्य है कि वर्तमान चुनावों में 60 प्रतिशत मतदाताओं के 1/3 , अर्थात जनसंख्या के 20 प्रतिशत से कम का आशीर्वाद ही शासक के पास होता है | साथ ही यह भी जाहिर है की  स्वार्थपरक  क्षेत्रीय दल सत्ता में तो अधिकारों के विकेंद्रीकरण के नारे पर आते हैं पर आने के बाद संविधान सम्मत दलबदल निरोधी क़ानून की आड़ में वंशवाद या तानाशाही  में तब्दील हो जाते हैं | निकट भविष्य में शायद यह संभावना बने कि ममता, जया, नीतीश, मुलायम आदि क्षेत्रीय दल अपने को शक्तिशाली होता देख, विराट गठबंधन बनाकर देश को मध्यावधि चुनाव की ओर ले जाएं |

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