Hinduism v/s Constitution ?
दुनिया के जितने भी बडे धर्म बने वो या तो मध्य पूर्व में बने या भारत चीन में। मध्य पूर्व के धर्मों में एक ईश्वर, एक पुस्तक, एक उपासना पद्धति अनिवार्य है। भारत चीन के कुछ धर्म जैसे जैन, बौद्ध, कन्फ्यूशियस, हिंदुत्व का सांख्य आदि निरीश्वरवादी भी है, किसी एक पुस्तक या उपासना पद्धति पर अनिवार्यता नहीं है।
तो जब आप यूनिफार्मिटि चाहते हैं, तो वहां अनुशासन, दबाव और संगठन की अनिवार्यता आ जाती है। क्योंकि संगठन ही लोगों में एक ईश्वर, एक पुस्तक, एक उपासना पद्धति को लागू कर सकता है। संगठन मतलब संख्या बल। इसीलिए मध्य पूर्व के सभी धर्म संगठन प्रधान हैं।
दूसरी तरफ सनातन धर्म संख्या प्रधान न होकर विचार प्रधान है। यहां एकं सत् विप्रा बहुधा वदंति भी मान्य है,जाकी रही भावना जैसी भी मान्य है, शंकराचार्य का अद्वैत भी है तो माध्वाचार्य का द्वैत भी है तो कपिल का निरीश्वरवाद भी है। हिन्दू धर्म के दस लक्षणों में भगवान् या उपासना पद्धति अनुपस्थित हैं।
तो सनातन को कभी संगठन की जरूरत नहीं पडी, क्योंकि उसे कोई पद्धति किसी पर लागू नहीं करनी थी। संगठन की उपेक्षा करने का हिंदुत्व को हानि कम और लाभ अधिक हुआ। प्राचीन काल से ही दुनिया भर में एक सभ्यता का दूसरी सभ्यता पर हमला करना इतिहास में सैकडों बार दर्ज है। तो जब एक संगठित सभ्यता दूसरी सभ्यता पर चढाई करती है तो दूसरी अपना बचाव भी अकसर अपने संगठन से ही करती है । ऐसे युद्धों में अंत में जीत किसी एक की होती है और जीतने वाली सभ्यता हारी हुई सभ्यता को पूरी तरह से कुचल कर अपनी सभ्यता थोप देती है।
मिस्र की पिरामिड की सभ्यता आज गायब है, अमेरिका के रेड इंडियन् या माया सभ्यता आज गायब है, ऑस्ट्रेलिया के एब्रॉजिनि सभ्यता आज गायब है। जैसे इन सभ्यताओं पर आक्रमण हुआ, वैसे ही हिंदुस्तान की सभ्यता पर भी हजारों साल से कई आक्रमण हुए। पहले मंगोलों ने किया, फिर सिकंदर ने किया, फिर मुगलों ने किया, फिर यूरोपियन ने किया।
तो हिंदुस्तान में ऐसा क्या है जो अन्य सभ्यताएं बाहरी आक्रमण के बाद बर्बाद हो गई, पर हिंदू सभ्यता आज भी जीवित है ? अंतर एक ही है। हिंदू धर्म क्योंकि विचारों की हवा की तरह चारों ओर फैला है, इसीलिए किसी वस्तु की तरह एक डब्बे में संगठित रूप से बंद नहीं रहा। डब्बे में बंद वस्तु तो डब्बा नष्ट होते ही खुद नाश हो जाती है, पर बहती हवा में फैली हुई खुशबू कभी नाश नहीं की जा सकती। वो अविनाशी है, नित्य नूतन है, इसीलिए सनातन है।
अपनत्व प्रधान होना संगठन निर्माण के लिए अनिवार्य होता है जबकि न्याय प्रधान होना समाज निर्माण के लिया अनिवार्य। तो पहले के लिए गण महत्वपूर्ण है तो दुसरे के लिए गुण, मध्यपूर्व के धर्मों में क्वांटिटी पर जोर है तो भारत के धर्मों में क्वालिटी पर।
तो हुआ ये की जब जब भी भारतीय सभ्यता पर बाहरी आक्रमण हुआ, तब तब भारतीयों ने संगठित होकर लड़ने के बदले बीज जैसे बिखर कर अपना अस्तित्व बचा लिया। पौराणिक भारत के दो सबसे बड़े युद्ध रामायण और महाभारत हुए। न तो रामायण में राम की अपनी खुद की कोई संगठित सेना थी, न ही महाभारत में पांडवों की। दोनों युद्धों में समकालीन परिस्थिति की आवश्यकता के अनुसार दो समूह बने जो लड़े, और लड़ाई की समाप्ति के बाद अपने अपने घर को लौट गए।
हिन्दू धर्म में संख्या के स्थान पर विचार इतने महत्वपूर्ण हुए की आर्यभट्ट का शून्य हो या उपनिषद का अद्वैतवाद, पूरी दुनिया में फ़ैल पसर गया। और प्राचीन भारत दुनिया को विचारों का विशुद्ध निर्यातक भी बन गया, और विश्वभर में आदरणीय भी। इसीलिए यूरोपीय मार्को पोलो हो या मध्यपूर्व के इब्न बतूता हो या चीनी ह्वेनसांग, दुनिया भर से विद्वान भारत आये।
पर पिछले सौ वर्षों से पाश्चात्य विज्ञान, तकनीक और प्रचार का असर भारतीय जनमानस पर कुछ ऐसा पड़ा की हिन्दू धर्म में एक अल्पमत उभरा जिसने ये तर्क दिया की भारत की गुलामी का कारण हिन्दुओं का संगठित न रहना है । प्रथम दृष्टा ये यकीन करने लायक भी लगे तो ये तर्क प्राचीन भारतीय दर्शन और भारत के इतिहास, दोनों के विपरीत भी है और मध्य पूर्व के धर्मों का मिरर इमेज जैसा भी।
हर धर्म, सभ्यता लम्बे समय तक तब टिकती है जब वो मौलिक विचारों पर खडी हो, न की उधार से ली हुई दूसरों की बैसाखी पर। हिन्दू धर्म अपने मौलिक दार्शनिक विचारों के चलते आज सबसे प्राचीन होते हुए भी नए धर्मों के सामने टिका हुआ है, भले संख्या कम हो, जैसे चींटियों के सामने हाथी की संख्या। पर वजन ज्यादा होने के चलते हमेशा अकेला हाथी लाखों चींटियों से भारी भी रहेगा और लंबा भी जियेगा।
इसीलिए जो भी ये मानता है की हिन्दू खतरे में है, हिन्दू संख्या में कम है, हिन्दुओं को संगठित होना चाहिए आदि, वो जाने अनजाने प्राचीन भारत की मौलिक विरासत कम और मध्यपूर्व की मध्ययुगीन सभ्यता का प्रतिबिम्ब अधिक हो जाएगा।
इसीलिए आजाद भारत की संविधान सभा ने तीन साल तक की चार सौ सदस्यों द्वारा चर्चा करने के बाद भारत का जो संविधान अपनाया, उसमें मध्यपूर्व के धर्मों की रूढ़िवादिता और अपनत्व प्रधान संगठन के बनिस्पत प्राचीन भारत की मौलिक प्रगतिशील न्याय प्रधान प्रणाली प्रस्तावित की। इसीलिए भारत के मूल संविधान में संगठन शब्द नहीं है, राजनैतिक दल शब्द नहीं है, चुनाव में वोटर के सामने बैलेट पर किसी राजनैतिक दल का नाम नहीं होता है, पर उसी संविधान के मूल अधिकारों में ही समूह शब्द है। क्योंकि सगठन में संख्या की प्रधानता होती है, समूह में विचारों की।
उपरोक्त तथ्यों से प्रमाणित हो जाता है की भारत में आरएसएस या अन्य संख्या पर जोर देने वाले संगठनों का -सनातन प्राचीन भारतीय सभ्यता तथा अर्वाचीन भारतीय संविधान में- कितना बड़ा विरोधाभास है।
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