Friday, February 22, 2013

Hyderabad Blasts

 हैवानियत से दहला हैदराबाद.... फिर से !!



"न हिन्दू मरा है न मुसलमान मरा है ,
सत्ता है सुरक्षित पर इंसान मरा है...!"

     एक बार फिर आतंकवाद ने हैदराबाद को लपेट लिया | 21 फरवरी के दोहरे विस्फोटों ने फिर से साबित कर दिया कि भारत आतंकवादियों के लिए साफ्ट टार्गेट है | मीडिया के खबरों के अनुसार एक बम उस  स्थान से बरामद हुआ है जहां कुछ वर्ष पूर्व ऐसा ही विस्फोट हुआ था ।  हमले के तुरंत बाद राजनेताओं के बयान भविष्य के लिए स्पष्ट संकेत हैं |  प्रधानमंत्री से लेकर गुजरात के मुख्यमंत्री, भाजपा के करिश्माई नेता नरेन्द्र मोदी तक  सभी   ने संवेदनाएं व्यक्त की | इस बीच केन्द्रीय गृहमंत्री ने कहा की हमले की खुफिया पूर्वसूचना थी | प्रश्न है की पूर्वसूचना के बावजूद यह  दुष्कृत्य सरंजाम कैसे हुआ ? देश की आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था क्या कर रही थी ? स्पष्ट है की निरीह जनता बेचारी पीड़ा से कराह रही है और राज्यसत्ता ने उन्हें रामभरोसे छोड़ दिया है |

      सवाल है कि जब देश के दोनों बड़े राजनैतिक दल जनता को आश्वस्त करने की बजाय अपने प्रारब्ध पर छोड़ रहे हैं, तो शासन व्यवस्था की आवश्यकता ही क्या है ? भारत में जहां प्रति एक लाख जनसँख्या (आम आदमी) पर 137 पुलिसवाले तैनात हैं, वहीं महज 13000 वीआइपी की सुरक्षा में 45000 पुलिसवाले नियुक्त हैं ।  और सरकारी सूत्रों के अनुसार 22% पुलिस पद रिक्त हैं । दिल्ली में पिछले वर्ष लगभग 341 करोड़ रुपए वीवीआईपी सुरक्षा पर खर्च किये गये, जिसमे अधिकतर उन 376 व्यक्ति विशेष पर थे, जिन्हे Z+ सुरक्षा और केन्द्रीय सुरक्षा सेना दी गयी. 40 करोड़ तो अकेले राष्ट्रपति भवन की सुरक्षा में खर्च किये गए. गुजरात में Z+ सुरक्षा के लिए 304 करोड़ रुपए खर्च किये. उत्तर प्रदेश में 120 करोड़. सबसे कम वीआइपी सुरक्षा पर खर्च 44 लाख सिक्किम में किये गये.

     इससे भी बड़ा आश्चर्य यह की एक तरफ तो शासन के व्यवहार एवं बयानों से यह स्पष्ट है  कि गिनती भर आतंवादियों को नियंत्रित करना उसके बस का नहीं, अगले ही पल वही शासन 120  करोड़ जनता में सिगरेट, हेलमेट, बालविवाह, दहेज़, बारबाला आदि विषयों को नियंत्रित करने का ठेका जबरन अपने ऊपर लेने के लिए अगर जमीन-आसमान एक करता है तो उसकी नीयत पर शक न किया जाय तो क्या किया जाय | बलात्कार, चोरी, डकैती, अपहरण, लूट, ह्त्या, आतंकवाद, भ्रष्टाचार आदि असली समस्याएं जिस व्यवस्था से नहीं संभलती वह सामाजिक सुधार में इतनी तत्परता क्यों दिखाती है |

     सर्वमान्य सिद्धांत है हर कोई अपनी-अपनी क्षमता को प्राथमिकताओं के आधार पर ही नियोजित करता है | प्रश्न है कि भारत की जनता की प्राथमिकता क्या ? सुरक्षा या समाज सुधार ? सामाजिक न्याय हमारा अभीष्ट तो  है, पर सुरक्षा की कीमत पर नहीं | क्योंकि अगर बांस ही न रहे तो बाँसुरी कहाँ बजेगी |

     सन 2001  में अमरीका पर अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला हुआ | आश्चर्य  है वह दोबारा दोहराया नहीं जा सका | उलटे शासन ने उस हमले के सूत्रधार को ही बिल में घुसकर साफ़  भी कर दिया | क्या अंतर है भारत और अमरीका में | अमरीका ने 9/11  के बाद यह नीतिगत निर्णय ले लिया कि वह अपनी पूरी क्षमता पहले अपने नागरिकों की सुरक्षा पर लगाएगा, उसके बाद अगर क्षमता बचे तो वह समाज सुधार में | इसका प्रमाण है कि इन दस वर्षों के अंतराल में दो-दो अमरीकी राष्ट्रपतियों की प्रिय स्वास्थ सुधार योजना को भी वहां की सदनों ने निरस्त कर दिया |

     भारत में इसके ठीक उल्टा हो रहा है | एक तरफ तो शासन ने आतंवाद निरोधी धारा टाडा को निरस्त कर दिया, भ्रष्टाचार पर सशक्त लोकपाल विधेयक लाने में आना-कानी कर रहा  है | दूसरी तरफ समाज सुधार के नाम पर नरेगा, खाद्य आपूर्ती बिल, सार्वजनिक स्थानों पर सिगरेट पर रोक जैसे विधेयक लाने में तत्परता दिखाता  है | इन्हें कौन समझाए कि मुर्गी को कैसे हलाल  किया जाय इससे मुर्गी को कोई अंतर नहीं पड़ता | जनता जीवित रहेगी  तब खाना सिगरेट आदि प्रश्न उठेंगे, मृत या शीघ्र ही  मरने वालों के लिए ये किस काम के |

     समय आ गया है कि भारत की राज्य व्यवस्था भी अपनी सीमित क्षमता केवल जनता को सुरक्षा एवं न्याय प्रदान करने में लगाए | समाज सुधार जैसी कृत्रिम मृगमरीचिका अगर अब लम्बे समय तक जनता को दिखाने का प्रयास जारी रहा तो अववस्था भी बढ़ेगी और सुरक्षा-ख़तरा भी | माया या राम में से शासन हम जनता को क्या दिलाएगा यह स्पष्ट करे |    

     

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Karpuri Thakur

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