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------- अयोध्या फैसला, न्याय एवं क़ानून का समन्वय ------- न्याय एवं क़ानून भिन्न होते हैं. न्याय को परिभाषित करना कानून का काम है. न्याय - अन्याय का भान हर मनुष्य को होता है. क़ानून उस भान का लिखित दस्तावेज, या ज्ञान मात्र होता है. न्याय और क़ानून में दूरी न्यूनतम होनी चाहिये, वरना भगत सिंह को फांसी कानूनसम्मत भले हो, परन्तु न्यायसंगत नहीं मानी जाती है और उसकी गंभीर प्रतिक्रियाएं होती हैं. स्वतन्त्र भारत में पेशेवर कानून नफीसों ने कानून को न्याय से ऊपर मान लिया जिसके चलते धीरे-धीरे एक स्थिति बन गई की कानून न्यायसंगत नहीं रहा गया. इसीलिए सामान्य जनता का व्यवस्था से मोहभंग होने लगा. क़ानून क्योंकि न्याय से विलग हुआ और श्रेष्ठ भी माना जाने लगा तो धूर्तों ने कानून का सहारा लेकर अन्याय करना शुरू किया. इलाहाबाद उच्च न्यायालय के त्रि-खंडपीठ ने सौभाग्य से इस फिसलन से समाज को उबार लिया. उसने न्याय एवं क़ानून में सामंजस्य स्थापित कर एक सही दिशा दिखाई है. आम नागरिकों ने फैसले पर राहत जताई है, क्योंकि इसमें आस्था का स्वतन्त्र मूल्यांकन किया गया है. यह एक ऐसा जटिल मुद्दा था जिसमें फैसला देना उत...