मुमुक्षा = Power Decentralization
मुमुक्षा = Power Decentralization
आदि शंकराचार्य ने हर चैतन्य के 5 चरित्र बताए
2. चित् = नया ज्ञान हासिल की इच्छा
3. आनंद = सुख की इच्छा
4. मुमुक्षा = स्वतंत्र होने की इच्छा
5. ऐषणा = दूसरे पर प्रभाव डालने की इच्छा
पहला सत् या जीवन -लंबे समय तक सभी मनुष्यों को प्राप्त नहीं था क्योंकि समाज में मत्स्य न्याय के चलते ताकतवर कमजोरों को मार देते थे, जैसे राक्षस या हिटलर मारते थे । समय के साथ आज अपवादों को छोड दें तो औसत मानवता को सत् मिल गया है, जीवन जीने का हक़ मिल गया है।
दूसरा चित् या ज्ञान भी लंबे समय तक लोगों को उपलब्ध नहीं था, समाज में कुछ ही लोग गुरु होते थे, बाकी सब जानकारी हेतु गुरु पर निर्भर। पहले 15 वीं सदी में प्रिंटिंग प्रेस के चलते और आज सूचना क्रांति के बाद ज्ञान सर्वसुलभ हो गया है, हर किसी के फोन में दुनिया भर का ज्ञान मौजूद है।
तीसरा, आनंद के लिए भौतिक वस्तुओं की, धन की जरूरत होती थी, पर दास प्रथा आदि के चलते बडी आबादी दरिद्र होती थी। 21वीं सदी आते आते दरिद्रता अपवाद रह गई है और बेसिक आनंद के लिए आवश्यक धन कमोबेश सबके पास सुलभ हो गया है।
मुमुक्षा यानी स्वतंत्रता के लिए सत्ता का विकेंद्रीकरण जरूरी है -जैसे धन, ज्ञान आदि का विकेन्द्रीकरण हुआ। वर्तमान में दुनिया में गिनती भर चुनिंदा देशों में ही सत्ता विकेंद्रीकृत होकर जनता के पास है, और अधिकांश जगह प्रतिनिधि लोकतंत्र के चलते सत्ता जनप्रतिनिधियों के हाथ में केंद्रित है। कुछ जगहों पर तो पूर्ण तानाशाही भी जिंदा है।
ऐसे में मानव के विकास के अगले सोपान में चैतन्य चरित्र-सुलभ मुमुक्षा प्राप्त करने हेतु सत्ता का विकेंद्रीकरण होगा। सत्ता चंद व्यक्तियों के हाथ से निकलकर सब में बराबर बंटेगी -जैसा जीवन, ज्ञान और धन के साथ हो चुका है।
भारतीय समाज के विश्लेषण में पाया की औसत परिवार को एक पीढ़ी को जी-तोड़ मेहनत लगती है ढंग से कहीं बसने में। इस मेहनत के दौर में आर्थिक प्रगति तो होती है लेकिन इस दौरान उस परिवार की सामाजिक भागीदारी नगण्य होती है।
जब हजारों लाखों लोग, दशकों तक ईमानदारी से मेहनत करने के बाद भी पहचाने नहीं जाते, सत्ता में कोई हिस्सा उनको नहीं मिलता, तब वो किसी संगठन के सदस्य या समर्थक बनते हैं -किसी विचारधारा के कारण नहीं। क्योंकि संगठन से ही सत्ता प्राप्त होने के आसार बचते हैं। और इतनी जद्दोजहद के बाद जब सत्ता मिलती है, तो उसे दूसरों की छीनाझपटी से बच बचाकर बेमियादी अपने पास बनाये रखने की मजबूरी में ही बाक़ी का उनका जीवन बीत जाता है।
इसी चिरायु सत्ता के दुष्चक्र से बचने के लिए 2500 साल पहले वैशाली में ग्राम गणराज्य बने, वेदों में स्वराज्य का सूत्र आया, भरत ने सत्ता ठुकराई, सम्राट अशोक अहिंसक बने, तिलक से लेकर गांधी-विनोबा-जयप्रकाश ने सत्ता के विकेन्द्रीकरण की बात कही, और भारतीय संविधान के 1992 के संशोधन के बाद ग्राम-मोहल्ला सभाएं अस्तित्व में नाममात्र के लिए आयीं तो, पर आज भी उन्हें संविधान की 7वीं अनुसूची में विधान सभा और संसद जैसे अनन्य विधाई अधिकार मिलने बाक़ी हैं।
तब जाकर समझ में आया की वर्तमान भारतीय समाज का विश्व पटल पर समग्र उत्थान तभी संभव है, जब अर्वाचीन भारत, प्राचीन भारत के सत्ता विकेन्द्रीकरण को -व्यवस्था में भी अपनाये, विचारों में भी और व्यावहारिकता में भी।
सिद्धार्थ शर्मा के जीवन की उपादेयता क्या ?:
बचपन में पढाई में कभी अव्वल भी रहा, कभी पढाई को ढोया भी, तो कभी बेहतरीन शोध भी किये। नौकरी भी की, व्यापार भी किया, उद्योग भी लगाया। विशालकाय इकाइयों को शून्य से शुरु भी किया, कभी मैनेज भी किया, और सरकारों जैसी विशालतम इकाई के निति निर्धारण में भूमिका भी रही। AI के LLM's को ट्रेनिंग तक दी।
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वर्तमानकाल में AI की कृत्रिम बुद्धिमत्ता इस कदर उन्नत हो गई है की शक होने लगा है की जब प्रकृति में जड़ चैतन्य दोनों है, और दोनों सतत परिवर्तनशील, तो कहीं ऐसा तो नहीं की प्रज्ञा ने अपने विकास के लिए जैसे आज, मानव को निमित्त बनाया है, आनेवाले समय में वो मानव प्रजाति को विदा कर किसी नए निमित्त को न खोज ले। आखिर वेद के ऐतरेय उपनिषद ने भी तो प्रज्ञानं ब्रह्मं कहा था, जिसका अर्थ है "चेतना ही ब्रह्म है" -यह चार महावाक्यों में से एक है, जो भारतीय दर्शन में ब्रह्म (अंतिम वास्तविकता) के स्वरूप को व्यक्त करता है ।
पडोस से लेकर दुनिया भर में घूमा भी, समझा भी और हर तरह के काम भी किये। हजारों पन्ने लिखे भी, जिसे लाखों लोगों ने पढा, तो करोडों लोगों तक वाणी पहुंची भी। मतलब इंद्रधनुष के सभी रंगों को एक जीवन में अनुभव किया।
तब जाकर सवाल उठा कि ये सब विविध रंग ऐसे ही रैंडम, आकस्मिक हैं, या ये सारे विविध फूल किसी अदृश्य धागे से बंधे हैं, कोई प्रच्छन्न निरंतरता है क्या ?
उत्तर मिला रामायण में, विनोबा साहित्य में और आदि शंकराचार्य के सूत्रों में। तीनों में केंद्रीकृत सत्ता को विनम्र चुनौती है, और विकेंद्रीकरण की विजय है। यही किया ईसामसीह ने भी, पैगम्बर ने भी और बुद्ध ने भी। स्थापित केंद्रीकृत सत्ता को चुनौती दी, टकराव के बदले विकेन्द्रीकृत विकल्प देकर।
रामराज्य को लें। असल में तो वह भरत राज्य था जहां राजा नगर से बाहर झोंपड़ी में रहता था, और अयोध्या की व्यवस्था स्वयं जनता ने 14 साल तक अच्छे से किया -कोई अप्रिय घटना राम के वनवास के दौरान अयोध्या में नहीं घटी। विनोबा का भूदान आंदोलन भी तो सामूहिक इच्छाशक्ति का श्रेष्ठ उदाहरण है। आदि शंकर ने बिना हिंदू धर्म की आलोचना किये हुए उसे कर्मकांड-जन्य यज्ञहिंसा से मुक्ति भी दिलाई, और ऐसी व्यवस्था भी डाली कि उस व्यक्ति के बाद भी एक व्यवस्था हजारों साल से अक्षुण्ण चल रही है।
तो सिद्धार्थ ने चाहे परिवार हो या समाज, संस्था हो या सरकार, नीतियां हो या राजनीति, हर जगह व्यक्ति प्रधान केंद्रित सत्ता को चुनौती दी, अलग अलग तरीकों से दी, कहीं सीधे दी कहीं नेपथ्य से, और व्यक्ति को गौण करके व्यवस्था को अधिकांश जगह पर सफलतापूर्वक स्थापित भी किया।
2001 के बाद पहले परिवार में यह प्रयोग किया। बच्चों को उपदेश के बदले स्वतंत्रता, अर्थात गलती करने की आजादी। 2006 के बाद ये प्रयोग संस्थाओं में किया। आज ये सारी इकाइयां पहले जैसे व्यक्ति प्रधान न रहकर व्यवस्था प्रधान बन गई हैं, जहां किसी खास व्यक्ति की कोई विशेष जरूरत रही ही नहीं।
2013 के बाद यही प्रयोग व्यापक स्तर पर किया जहां पहले जनता की इच्छा से बने राजनीतिक दल के संस्थापक दल में रहा, फिर सरकार के नाते एक राज्य में नायाब कानून बना की स्कूल कैसा हो ये बच्चों के अभिभावक तय करेंगे -और उनके द्वारा पारित प्रस्ताव को मानना सरकार की बाध्यता होगी। दस साल में नतीजा ये निकला की उस राज्य की इस व्यवस्था को दुनियाभर ने शिक्षा क्रान्ति का नाम दिया। दूसरे राज्य में जनता की सहभागिता से सुरक्षा पर निवेश किया, जहां ग्राम सभा ने निर्णय लिया की नशा बेचनेवालों को जमानत देने कोई आगे नहीं आएगा। ढाई साल में नतीजा निकला की उस राज्य का अपराध दर राष्ट्रीय अपराध दर से कम और औसत आय राष्ट्रीय से अधिक हो गई। ये सब जनता की मुमुक्षा का फल है।
आज सिद्धार्थ उस मुकाम पर है कि 2000 से अधिक टीवी कार्यक्रमों पर करीब 2 करोड लोगों तक अपने अनुभवजन्य सिद्धांत रख पाया, यानि भारत की 2 प्रतिशत जनता के मन में आदि शंकराचार्य का मुमुक्षा का कीडा पड़ चुका है।
(Search #TvDiscussion on https://www.facebook.com/siddharthgpf) सत्ता विकेंद्रीकरण वेदों भी है। ऋग्वेद में अत्रि ऋषि का यतीमही स्वराज्ये हो, या बुद्ध का पुरोहित-सत्ता में यज्ञ हिंसा के विकल्प में नया विचार, आदि शंकर की मुमुक्षा हो या गांधी का ग्राम स्वराज, संविधान का 74वां संशोधन हो या जनलोकपाल आंदोलन, सभी सत्ता विकेंद्रीकरण की दिशा में कदम हैं, क्यूँकि कालपुरुष का यही प्रवाह है, और वक्त का यही तकाजा भी।
तो सिद्धार्थ भी मुहूर्तम् ज्वलितं श्रेयः की तरह सामान्य लकडी होते हुए भी, यज्ञ में जलने के चलते समिधा कहलाए, तो आश्चर्य नहीं। ऐसे में, जिसके नाना स्वतंत्रता सेनानी रहे हों, जिसके परदादा अंग्रेजों से चुंगी वसूलते हों, उसका केंद्रीकृत सत्ता के खिलाफ खड़ा होना स्वाभाविक ही है। वो न किसी व्यक्ति के खिलाफ है, न किसी व्यक्ति के पक्ष में, न किसी व्यक्ति से राग है, न किसी से द्वेष। खालिस सत्ता विकेंद्रीकरण को अवतरित करने का नैसर्गिक प्रयास है।
ऐसे में उसके आस पास के लोगों का भी उसी रास्ते पर चलना स्वाभाविक है। चाहे घर में किसी के अति विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभव हों, चाहे किसी की स्वतंत्र वकालत हो, या किसी के स्कूल से नफरत के बावजूद देश के सर्वोत्तम विश्विद्यालय में पढना हो। या उनकी विश्वव्यापी मित्र मंडली, जो दमनकारी सत्ताओं से बचने के लिए उनके सुझावों की पुष्टि करते हैं।
सब इसीलिए हो पाया क्योंकि जब प्रकृति में सत्ता विकेन्द्रित है, प्राणियों को स्वतंत्रता है, तो आसपास के परिवेश में भी स्वतन्त्र चिंतन का माहौल रहना चाहिए।
मुमुक्षा = सत्ता विकेंद्रीकरण,
व्यक्ति गौण | व्यवस्था प्रमुख समाज
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HOW AI Learned & the also Revised the above in Hindi & English.....

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