Hypocrisy : Infatuation to Power


औसत
भारतीय का सत्ता मोह

                                                                                  -सिद्धार्थ शर्मा 

 

     

     प्राचीन भारतीय संस्कृति में राजा की सत्ता का बहुत विशेष महत्त्व नहीं होता था।  वेदों में भी अत्रि ऋषि का 'यतीमहि स्वराज्ये' आता है जिससे साफ़ हो जाता है की औसत नागरिक के लिए स्वराज्य श्रेय था, भले ही राजाओं के लिए सत्ता प्रेय रही हो।  शायद इसीलिए विश्व के सबसे पहले ग्राम गणराज्य वैशाली में उत्पन्न हुए जिसमें सत्ता ग्रामवासियों में विकेन्द्रित थी और राजा केवल सांकेतिक होता था। रामचरितमानस में भी 'कोइ नृप होइ हमै का हानि', भरत के लिए राम का सहर्ष सिंहासन त्याग देना आदि ये बताती हैं की प्राचीन भारत में सत्ता मोह नियम होकर अपवाद था और औसत नागरिक सत्ता की धाक से अक्सर उदासीन रहता था। प्राचीन औसत भारतीय बाह्य सत्ता से अधिक स्वयं की मौलिक बुद्धि को ज्यादा शक्तिशाली मानता था।  

     सत्ता के प्रति भारतीय सभ्यता की उदासीनता का कारण था -भारतीय संस्कति में "सत्य" पर जोर। सत्य हमेशा मौलिक होता है, बिना किसी बाह्य आलम्बन के खड़ा होता, स्वयं संचालित होता है, और निडर होता है। सत्य का प्रतिबिम्ब भले डिस्टॉर्टेड, विकृत हो, पर सत्य स्वयं में प्योर, खरा ही होता है।  दूसरी तरफ जहां भी सत्ता होती है, वो दूसरों को संचालित करती है, वो दूसरों के वेलिडेशन, पुष्टीकरण पर निर्भर रहती है, समय के साथ साथ विकृत होती है, असत्य का सहारा लेती है, और केन्द्रीकरण के लिए अनर्गल नियम जनता पर थोपती है। तो जो सभ्यता मौलिक हो, स्वयं संचालित हो, विकेन्द्रित हो, उसे किसी अन्य सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करने की तो आदत होती है, जरूरत।  

     सत्ता के प्रति नागरिकों की उदासीनता के चलते ही शायद इस सहस्त्राब्दि के प्रारम्भ में भारतीय उपमहाद्वीप पर विदेशी राजाओं की सत्ता स्थापित होने लगी। विदेशी आक्रमणकारी राजा देसी राजाओं को हराकर अपना शासन ले आते और औसत नागरिक को उससे कोई फर्क नहीं पड़ता और वो अपने काम काज में तल्लीन रहता। आश्चर्य है की भारतीय साहित्य का स्वर्णयुग  कहा जाने वाला भक्तिकाल, मुग़ल साम्राज्य के समय हुआ।  ये प्रमाणित करता है की औसत भारतीय की दृष्टि में राज्य सत्ता कम तथा संस्कृति अधिक महत्वपूर्ण थी  

     यूरोपीय औपनिवेशवाद के भारत आगमन के बाद भी नागरिकों की सत्ता के प्रति उदासीनता जारी रही।  इसीलिए 1857 से पहले चाहे गोवा के दीपाजी राणे हों या मैसूर के टीपू सुल्तान, या झारखंड के बिरसा मुंडा, स्थानीय राजाओं ने भले यूरोपीय हुकूमतों के खिलाफ लड़ाई की हो, पर औसत नागरिक इन पचड़ों से दूर ही रहा।  

     1857 में पहली बार भारत का औसत नागरिक सत्ता प्राप्ति के संघर्ष में स्वयं कूदा।  इसके बाद चले 90 वर्षों के स्वतंत्रता आंदोलन में धीरे धीरे सत्ता प्राप्ति के लिए नागरिकों की सहभागिता बढ़ती गई और करीब 13500 नागरिकों की कुर्बानी के बाद भारत 1947 में आजाद हुआ। 1920 के दशक से गांधी के नेतृत्व वाले कांग्रेस की छतरी तले आजादी के आंदोलन में नागरिक सहभागिता बढ़ी और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अंग्रेजों को 100000 से अधिक नागरिकों को गिरफ्तार करना पड़ा था। तो ये मानने के पूरे तथ्य मौजूद हैं की सत्ता संघर्ष में औसत भारतीय का उत्साह 1942 के आसपास सर्वोच्च था जब गांधी के नेतृत्व में औसत हिन्दुस्तानी कांग्रेस के आजादी आंदोलन में सहभागी बना। 1947 की आजादी मिलते मिलते यह स्पष्ट हो गया की सत्ता संघर्ष में जन  भागीदारी के चलते ही सत्ता का अंग्रेजों के हाथ से भारतीयों के हाथ में आने का सत्ता परिवर्तन संभव हो सका। 

     किसी सभ्यता का, सदियों की सत्ता के प्रति उदासीनता -जब दो पीढ़ियों में सत्ता संघर्ष पर उतर आती है, तब संस्कृति का अपभ्रंश होना स्वाभाविक है।  शायद इसीलिए गांधी ने इस बात को समझा और स्वनत्रतता आंदोलन के सबसे नामचीन इकाई कांग्रेस को आजाद भारत में स्वयं विसर्जित हो जाने की सलाह दी।  क्योंकि स्वतंत्रता सेनानी जब स्वतन्त्र भारत में चुनाव लड़ेंगे, तो स्वाभाविक ही है की जनता का समर्थन उन्हें ही मिलने के चलते वे ही जीतेंगे।और जीतने के बाद देश निर्माण के स्थान पर वे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान झेले व्यक्तिगत कष्ट के एवज में आराम अधिक पसंद करेंगे। इस नेगेटिव स्पाइरल का आगे जाकर हश्र ये होगा की व्यवस्था की प्राथमिकता खुद का फलना फूलना हो जाएगा और जनता को राज्य द्वारा दिए जाने वाले सुरक्षा, न्याय और सुविधाएं गौण होती चली जाएंगी।

     किसी भी समाज में 95 प्रतिशत से अधिक लोग शांतिप्रिय, -सामाजिक, सज्जन होते हैं।  2 प्रतिशत के आसपास समाज विरोधी तत्व होते हैं, और 3 प्रतिशत धूर्त होते हैं। 3 प्रतिशत धूर्त लोग 2 प्रतिशत समाज विरोधियों की साथ गाँठ से स्वयं को सज्जन के रूप में पेश करते हुए 95 प्रतिशत सज्जन लोगों के सामने स्वयं को सामाजिक, शांतिप्रिय पेश करते हैं ताकि उन 95 प्रतिशत के समर्थन से वे सत्ता पर काबू कर सकें। तो संक्षेप में कहें तो, सत्ता अर्थात पाखण्ड, होना कुछ और तथा दिखना कुछ और का छलावा -आदि शंकाराचार्य के शब्दों में "मिथ्या" | 

     तो 1947 के बाद के भारत में हुआ ये की सहस्त्राब्दियों से चली रही सत्ता के प्रति जनता की उदासीनता ने सत्ता के प्रति मोह पैदा कर दिया। आज 21 वीं सदी के पूर्वार्ध आते आते हम ऐसे भारत में जी रहे हैं जो करीब सौ वर्षों से, करीब सात पीढ़ियों से सत्ता और सत्ता संघर्ष को जायज मानने लगा है। हजारों वर्षों की सत्य पर आधारित संस्कृति पिछले सात आठ पीढ़ियों से मिथ्या को अधिक मानने लगी है। 

     इसके चलते हुआ ये की हजारों वर्षों तक विश्वभर को शून्य, पाई जैसे मौलिक विचारों का विशुद्ध निर्यातक भारत, अपनी मौलिकता खोने के बाद, सत्ता को बुद्धि से अधिक ताकतवर मानना शुरू करने के बाद से, पिछले सौ वर्षों में दुनिया भर के चीजों और विचारों का विशुद्ध आयातक बन गया है। 

     बुद्धि और सत्य के स्थान पर सत्ता और मिथ्या को महत्त्व देने के चलते आज भारतीय राजनीति इस दौर में पहुंची है की करीब एक तिहाई जनता को इसमें कोई पाखण्ड नहीं दिखता की राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर आई हुई सरकार के कार्यकाल में चीन ने 4000 भारतीय भूमि पर लाल झंडा गाड़ रखा है। की चाल चरित्र चेहरा के नाम पर सत्ता में आनेवालों के साथ ऐसे लोग हैं जिन्होंने 3000 महिलाओं की अश्लील वीडियो बना रखी है।  या की कृषि प्रधान भारतीय संस्कृति में कृषक को अपनी फसल का उचित दाम सत्ता नहीं दे रही है।  या की सनातन संस्कृति के नाम पर सत्ता में आने वाले गोवा के मांस बेचने वाले होटलों के मालिक हैं। या की किसी मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा शंकराचार्यों के रहते हुए कोई विवाहित राजनेता अपत्नीक कर लेता है। यही पाखण्ड आज हम औसत भारतीय का हस्ताक्षर बन गया है।   

     तो अंत में सवाल उठता है की पाखण्ड और मिथ्या से छुटकारा कैसे प्राप्त हो, कैसे भारत अपनी प्राचीन सत्य एवं मौलिकता को पुनः प्राप्त हो

     उत्तर आसान भी है, स्वाभाविक भी।  प्राचीन भारतीय संस्कृति विकेन्द्रित थीइसीलिए सत्ता अप्रासंगिक थी, अतः सत्ता के प्रति अनावश्यक आदर/मोह अनुपस्थित था।  वर्तमान भारत में सत्ता केंद्रित है, इसीलिए सत्ता के प्रति अति आकर्षण भी है और सत्ता पाने या बचाये रखने के  लिए पाखण्ड को जायज भी माना जा रहा है। सौभाग्य से वर्तमान भारतीय संविधान में ही इसका समाधान भी है।  74 वे संशोधन के बाद जो स्थानीय इकाइयां बनीं हैं उसमे ग्राम सभा से लेकर शहरी मोहल्लों तक करीब 31 लाख चुने हुए प्रतिनिधि आते हैं। केवल उन 31 लाख चुने हुए लोगों को संविधान की सातवीं अनुसूची में इकाईगत विधायी अधिकार देने का काम लंबित है।  आज उस सूची में जो केंद्र और राज्यों के विधाई अधिकार स्पष्ट हैं उसीमें स्थानीय इकाइयों की सूची जुड़ते ही भारत की सत्ता विकेन्द्रित हो जाएगी और सत्ता के विकेन्द्रीकरण के साथ ही औसत भारतीय का सत्ता के प्रति मोह के चलते पाखण्ड को मान्यता देने का प्रचलन भी -बंद हो जाएगा। 

     सत्ता विकेन्द्रित होते ही मिथ्या और पाखण्ड के स्थान पर सत्य और मौलिकता स्वयं सहज स्थापित हो जाएगी और भारत अपनी प्राचीन गरिमा पुनः प्राप्त कर लेगा। 

आचार्य विनोबा भावे के सूत्र में : हमारा मंत्र भले जय जगत हो, पर उसे पाने का तंत्र ग्राम स्वराज्य ही होगा 

  

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