INDIA.....................the road ahead
भारत ............... अब आगे की राह
पिछले कई महीनों से भारत में परिवर्तन की एक उत्कट लालसा दिखाई दे रही है | कल तक जो सज्जन अव्यवस्था, भ्रष्टाचार, अन्याय, दूषित लोकतंत्र आदि को नियति मान नेपथ्य में चले गए थे, अचानक वो लामबंद होकर इनके विरुद्ध खुलकर सामने आने लगे हैं | साथ ही इस अव्यवस्था, भ्रष्टाचार, अन्याय, दूषित लोकतंत्र को संचालित करनेवाले भारत के प्रायः सभी राजनीतिज्ञ भी यथास्थिति को बनाए रखने हेतु सज्जनों के खिलाफ आग उगलने लगे हैं | यह शुभ संकेत है | अच्छा है । पहले "लोक" एवं "तंत्र" का स्पष्ट ध्रुवीकरण होगा तभी तो निर्णायक युद्ध संभव होगा | इस ध्रुवीकरण का श्रेय सर्वप्रथम भारत के लोक, उसके बाद टीम अन्ना, बाबा रामदेव, लोकस्वराज्य मंच सहित समूची सज्जन शक्ति को जाता है |
सवाल है कि अब आगे की राह क्या हो ? कुछ विकल्प हैं - 1 ) संसदीय लोकतंत्र को पूरी तरह ध्वस्त कर देना | 2 ) संसदीय लोकतंत्र को परिष्कृत करना | 3 ) सत्ता परिवर्तन द्वारा वर्तमान संसद को स्वयं सुधरने का एक और मौक़ा देना | तीसरा विकल्प अब भारत के लोक को मान्य नहीं हैं क्योंकि पिछले 65 वर्षों में उसने "कंधे बदल बदलकर देखे, सभी शवों के भार बराबर" को झेल लिया है | पहला विकल्प अल्पकाल के लिए काफी उथल-पुथल लाएगा जिसकी पुरजोर इच्छा लोक को शायद न हो क्योंकि वर्तमान भारतीय राजनैतिक स्थिति भले शोचनीय हो, पर भारत पर फिलहाल कोई आर्थिक महासंकट नहीं है जिससे ऊबकर लोक आमूलचूल बदलाव के पक्ष में हो | अलावा इसके, भ्रष्टाचार से प्राप्त संसाधनों का एक बड़ा हिस्सा भी तो वापस इसी अर्थव्यवस्था में डाला जाता है । तो बचता है मार्ग संसदीय लोकतंत्र को परिष्कृत करने का |
संसदीय लोकतंत्र को परिष्कृत करने के दो तरीके संभव हैं | पहले में वर्तमान राजनीति पर "लोक" का इतना जबरदस्त दबाव लाया जाय कि संसद अक्षरशः लोक की इच्छानुरूप काम करने लग जाय | आन्दोलन अन्ना ने अप्रैल/अगस्त/दिसंबर 2011 में यह विकल्प अजमाया है | पर लोक के विराट समर्थन के बावजूद देश सशक्त लोकपाल क़ानून के मामले में आज एक वर्ष बाद भी वहीँ खडा है | ऊपर से "तंत्र" अब "लोक" के सामने यह दलील पेश भी करने लगा है कि दरोगा अगर ठीक नहीं तो लोक स्वयं दरोगा बन जाए | अर्थात आन्दोलनकारियों को स्वयं राजनीति में कूदने की चुनौती |
बात है कि अगर बीच यात्रा में मेरे ड्राइवर की नीयत बिगड़ जाय और वह मेरी गाड़ी को ऊटपटांग चलाने लगे तो मैं क्या करूँ ? गाड़ी में बैठे-बैठे एक्सिडेंट की बाट जोहूँ या ड्राइवर को छोड़ स्वयं ड्राइविंग करूँ | उत्तर स्वाभाविक है | मैं स्वयं ड्राइविंग करूंगा | पर मुझे इतना समझदार होना है कि गंतव्य पर पहुंचकर मैं नए ड्राइवर की तलाश करूँ | ऐसा न हो कि ड्राइविंग के आनंद में मैं स्वयं पूर्णकालिक ड्राइवर बन बैठूं | आज तक यही तो हुआ है, राजनेता लोक की सशक्त आवाज को राजनीति में समाहित कर अपना बल बढ़ा लेते हैं जिसके चलते अब लोक बेचारा ठगाते-ठगाते बहुत कमजोर हो गया है |
दूसरे विकल्प के तौर पर, लोक के सीधे राजनीति में प्रवेश पर कई सवाल खड़े किये जायेंगे | वो इसीलिए कि आज तक लोकनीति करते-करते राजनीति में प्रवेश करनेवाले सभियों ने लोक को भुला दिया | अगर इस बार देश से यह सवाल किया जाय की- लोकपाल रूपी सीता को अपने पति लोक रूपी राम से छीनकर संसद रूपी लंका में कैद कर लिया गया हो तो राम क्या करे ? अन्ना रूपी हनुमान के लंका दहन रूपी संसद पर दबाव भी अगर लंकेश न माने तो राम के पास वानर सेना लेकर लंका पर चढ़ाई करने के अलावा मार्ग ही क्या बचता है ? सागर तट से बिना सीता को लिए लौटना तो राम की कायरता होती |
गलत तो तब होता अगर राम लंका पर चढ़ाई, लंका को अपने कब्जे में करने के लिए किए होते | परन्तु युद्ध से पहले ही राम ने विभीषण का राज्याभिषेक कर यह स्पष्ट कर दिया कि सीता को छुडाकर वे लंका विभीषण के हवाले करेंगे और स्वयं अयोध्या लौट जायेंगे |
अगर 2014 से पहले पूरे भारत में यह नवीन एवं मौलिक स्पष्ट सन्देश जाए कि चुनाव में "लोक", संसद में केवलमात्र पूर्वघोषित परिवर्तन (जन लोकपाल क़ानून से लेकर अकेंद्रीकरण के लोकास्वराज तक) लाने भर के लिए जाएगा एवं अल्प समय में उसे पूरा कर पुनः साधारण "लोक" बन जाएगा और संसद को वापस सांसदों के हवाले कर देगा तो निश्चित रूप से जनता इस राह को चुनेगी । अन्ना हजारे भारत की जनता को यह स्वस्थ्य विकल्प दे सकते हैं |
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