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Showing posts from July, 2013

Guru Poornima

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---------अंधा बहुमत - मेरे स्वर्गीय पिता सीताशरण शर्मा की रचना (१९८२)  स्वर्गवास- गुरु पूर्णिमा २००१       गरमी से परेशान हंस, आसमान से धरती पर आया, बडबडाते हुए एक डाल पर आसन जमाया - बोला "आज तो सूर्य का तेज कराल है, गरमी से तन मन बेहाल है"  उसी डाल पर एक उल्लू बैठा था, हंस की बात सुनकर चकराया- बोला "गरमी तो है, अन्धकार बढ़ने से ऐसा होता ही है, इसके लिए सूरज क्या बला ले आया ?" "भाई, सूरज का प्रकाश जितना तेज होता है,  धरती पर ताप बढ़ता है" -हंस ने समझाया  उल्लू जोर से हंसा "शायद अंधे हो, चाँद और चांदनी की बात करते तो समझ में आती, सूरज और प्रकाश की बात कर रहे हो, मूर्ख कहीं के ! हंस के बार-बार समझाने पर उल्लू ने उसे  उल्लुओं के समूह में फैसला कराने को उकसाया  उल्लुओं के समूह ने भी हंस को  पागल कहकर ठहाका लगाया, हंस से सूरज और प्रकाश की बात बंद करने को धमकाया  सत्याग्रही हंस के इनकार करने पर, उसके पंख नोच डाले, ...................................और, उसे बहुमत का न्याय बताया  

The Equality Chimera

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Democracies invariably turn chaotic when economic power is decentralized but political power is not. This situation arose in India in 1991 and we are experiencing its natural aftermaths. In the above scenario, Capital (crony) surreptitiously beds with The State to exponentially increase its power. It is a fact that mere physical power makes one a ‘laborer’ and mere capital makes one a ‘businessman’. It is when the businessman buys labor, he transforms into an ‘industrialist’, and if he goes on to buy Intellect, he attains absolute power.  Capital + Labor + Intellect = POWER. Another fact is that in western countries where resource to population ratio favors the former, artificial energy (AE) is labor complimentary. In the Indian context where the converse applies, AE becomes labor substitute. The way out of this quagmire is simple. Either ensure high labor remuneration, or hike AE costs so that labor can more or less become on par with capital. Enforcement of the former polic

भारत :: लोकतांत्रिक अव्यवस्था का दौर

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लोकतंत्र की एक विशेष पहचान होती है कि जिन क्षेत्रों में वह जीवन पद्धति में आता है वहॉं सुव्यवस्था संभव है और जहां जहां सिर्फ शासन पद्धति तक आकर ही रूक जाता है वहॉं अव्यवस्था निश्चित है। दक्षिण एशिया के देश भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, इराक, इरान, अफगानिस्तान आदि में जीवन पद्धति में लोकतंत्र न आकर सिर्फ शासन व्यवस्था तक ही सीमित रहा। इन सभी देशों में मौलिक लोकतंत्र की सोच कभी नहीं बनी। इन सबमें आयातित लोकतंत्र ही रहा। परिणाम है अव्यवस्था। लोकतंत्र का परिणाम होता है अव्यवस्था तथा अव्यवस्था का परिणाम होता है तानाशाही। तानाशाही लोकतंत्र का वह अन्तिम पड़ाव मानी जाती है जहॉं जाकर लोकतंत्र भी समाप्त हो जाता है और अव्यवस्था भी समाप्त हो जाती है। भारत आज वैसी ही लोकतांत्रिक अव्यवस्था के दौर से गुजर रहा है।  अव्यवस्था की एक विशेष पहचान होती है कि वहॉ असंगठित समाज पर संगठित गिरोह हावी हो जाता है। सैद्धान्तिक सत्य है कि दो संगठित व्यक्तियों का समूह बीस असंगठित व्यक्तियों पर भारी पड़ता है। यदि ये संगठित व्यक्ति संख्या में दस हो जावें तो ये कई सौ लोगों पर भारी पड़ सकते हैं